मनुवादी-सांप्रदायिक-कॉरपोरेट फासीवाद से संघर्ष का एजेंडा

1- भारतीय समाज का वर्चस्वशाली समूह शुरू से ही जाति जनगणना के खिलाफ रहा है, वह जाति आधारित विषमता को बनाये रखना चाहता है। आज तक आजाद भारत की किसी भी सरकार ने जाति जनगणना नहीं कराई है। 1931 की जाति जनगणना से ही काम चल रहा है। जाति जनगणना सामाजिक न्याय की नीतियों-योजनाओं को ठोस व सुसंगत बनाने के लिए जरूरी है। जाति आधारित वंचना को हल करने और जाति उन्मूलन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए यह बेहद जरूरी है।

जातिवार जनगणना का सवाल सामाजिक न्याय का बुनियादी सवाल है। जाति जनगणना ओबीसी के लिए सामाजिक न्याय के बंद दरवाजे को खोलने की कुंजी है, इससे जीवन के हर क्षेत्र में कायम सवर्ण वर्चस्व से परदा हटेगा और सामाजिक न्याय की लड़ाई का रास्ता भी खुलेगा। केन्द्र सरकार द्वारा जातिवार जनगणना कराये जाने का सवाल सामाजिक न्याय की लड़ाई का केन्द्रीय एजेंडा है।

2- एससी-एसटी को आबादी के अनुपात में आरक्षण आजादी के बाद हासिल हो गया था। लंबे इंतजार के बाद ओबीसी को सरकारी नौकरियों व उच्च शिक्षा में आबादी के अनुपात में आरक्षण मिलने के बजाय केवल 27 प्रतिशत ही हासिल हुआ। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक क्रीमी लेयर थोप दिया। दूसरी तरफ आरक्षण को लागू करने में बेईमानी व गड़बड़ियों का सिलसिला जारी है। नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद एससी, एसटी व ओबीसी के आरक्षण पर हमला तेज हुआ है। आज भी नौकरशाही में सवर्णों का वर्चस्व कायम है।

एक रिपोर्ट के अनुसार हाल के 5 वर्षों में हाईकोर्टों में कुल 537 न्यायाधीश नियुक्त किए गए, जिनमें 82 प्रतिशत से अधिक सवर्ण हैं। भारतीय मीडिया में 90 प्रतिशत शीर्ष पदों पर ऊंची जाति समूहों का कब्जा है। सचिवों की केन्द्र सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन एससी, एसटी और ओबीसी समुदायों के केवल सात प्रतिशत सचिव हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार ने ज्वाइंट सेक्रेटरी लेवल पर लेटरल एंट्री को लागू कर दिया है जिसमें आरक्षण लागू नहीं है। सार्वजनिक उपक्रमों व सेवाओं के अबाध निजीकरण से सरकारी रोजगार के अवसर के खत्म होने का असर ज्यादा बहुजनों पर हो रहा है। निजी क्षेत्र में आरक्षण नहीं है।

एससी, एसटी व ओबीसी के संवैधानिक आरक्षण को ठिकाने लगाने की साजिशों के बीच अंतत: संविधान को बदलते हुए 10 प्रतिशत EWS आरक्षण के जरिए सवर्ण वर्चस्व की गारंटी कर दी गयी है। अब उच्चतम न्यायालय ने भी इस पर मुहर लगाकर सामाजिक न्याय पर मरणांतक प्रहार कर दिया है। अंतत: EWS आरक्षण के जरिए संविधान के मूल ढ़ांचे से सामाजिक न्याय को निकाल बाहर निकाल फेंका गया है।

असंवैधानिक 10 प्रतिशत EWS आरक्षण को रद्द करने, आरक्षण के लिए 50 प्रतिशत की तय सीमा खत्म कर तमाम क्षेत्रों, मीडिया समेत निजी क्षेत्र में आबादी के अनुपात में एससी,एसटी व ओबीसी आरक्षण लागू करने के साथ सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्ट में कॉलेजियम सिस्टम खत्म कर राष्ट्रीय न्यायिक सेवा आयोग के जरिए एससी, एसटी व ओबीसी को आबादी के अनुपात में आरक्षण के साथ जजों की नियुक्ति के सवालों पर बहुजनों के समक्ष संघर्ष तेज करने की चुनौती है।

ओबीसी के लिए आबादी के अनुपात में आरक्षण लागू करने,ओबीसी आरक्षण से क्रीमी लेयर के असंवैधानिक प्रावधान को हटाने, उच्च नौकरशाही में एससी, एसटी व ओबीसी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए प्रोन्नति में भी आरक्षण सुनिश्चित करने, बैकलॉग को प्राथमिकता के आधार पर भरने व लैटरल इंट्री पर रोक लगाने और आरक्षण को लागू करने में बेईमानी व गड़बड़ी पर रोक लगाने के लिए आरक्षण के प्रावधानों के उल्लंघन को संज्ञेय अपराध बनाने के लिए भी संघर्ष जरूरी है।

3- प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग- काका कालेलकर आयोग ने पिछड़ी जातियों में भी अति पिछड़ी जातियों को अलग से चिन्हित किया था। बिहार में 1978 में कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री रहते हुए मुंगेरीलाल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया। इसके तहत पिछड़ी जातियों को दो हिस्सों में वर्गीकृत किया गया। जरूर ही ओबीसी की विभिन्न जातियों की सामाजिक, शैक्षणिक, राजनीतिक व आर्थिक स्थिति में फर्क है।

ओबीसी एकांगी कैटेगरी नहीं है, बल्कि इसके भीतर भी कई तरह की श्रेणियां हैं। यह मजबूत धारणा बनी है कि OBC आरक्षण के लाभ का अधिकांश हिस्सा प्रायः प्रभावशाली OBC समूहों द्वारा प्राप्त किया जा रहा है, इसलिये OBC के भीतर अत्यंत पिछड़े वर्गों के लिये उप-कोटे की जरूरत है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के उप-वर्गीकरण पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये रोहिणी आयोग का गठन अक्तूबर 2017 में किया था। कई बार आयोग के कार्यकाल में विस्तार किया जा चुका है।

यह महत्वपूर्ण है कि ओबीसी के उपवर्गीकरण के लिए जरूरी तथ्य व आंकड़ें की उपलब्धता अपर्याप्त है, इसके लिए भी जाति आधारित जनगणना प्राथमिक शर्त है। जरूर ही केन्द्रीय स्तर पर ओबीसी के उपवर्गीकरण के साथ आरक्षण का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित करने की जरूरत है, यह बहुजन एकजुटता व संघर्ष को आगे ले जाने के लिए महत्वपूर्ण एजेंडा है।

4- यूपीए-1 की सरकार ने इस्लाम-ईसाई धर्म में भी दलितों की पहचान हेतु रंगनाथ मिश्र आयोग का गठन किया। इसके अलावा तत्कालीन सरकार ने मुसलमानों की तालिमी, माली हालत तथा सरकारी मुलाजमत में उनकी नुमाइंदगी का जायजा लेकर रिपोर्ट देने हेतु ‘प्राइम मिनिस्टर हाई पावर कमेटी’ का गठन किया। यह कमेटी जस्टिस राजिन्दर सच्चर की अध्यक्षता में बनी।

सच्चर रिपोर्ट में कहा गया कि मुस्लिम समाज तीन वर्गों- अशरफ, अजलफ, अरजल में बंटा है। रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट में भी मुसलमानों के तीन वर्गीकरण को माना गया है। रिपोर्ट में यह बात साफ तौर पर कही गयी है कि दलित मुसलमान और दलित ईसाईयों के साथ आरक्षण देने में भेदभाव संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।

सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग ने यह भी कहा है कि शिड्यूल ट्राईब के मामले में संविधान की धारा-342 पर कोई धार्मिक प्रतिबंध नहीं है। इसलिए मुसलमानों में कई ऐसी जातियां हैं जिन्हें इस सूची में शामिल किया जाना चाहिए। दलित मुसलमानों और ईसाईयों को एससी कैटेगरी और आदिवासी मुसलमानों को एसटी कैटेगरी में शामिल करने के साथ जरूर ही एससी और एसटी के आरक्षण का कोटा भी बढ़ाया जाना महत्वपूर्ण सवाल है। बहुजन आंदोलन में इन मुद्दों की उपेक्षा कतई नहीं किया जा सकता है।

5- आज भी देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था- लोकसभा में भी सवर्णों का दबदबा कायम है। वर्तमान लोकसभा में ओबीसी सांसद 22.09 प्रतिशत हैं जबकि सवर्णों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व उनकी आबादी से करीब दो गुना 42.7 प्रतिशत है। मंडल उभार के दौर में भी पिछड़े आबादी के अनुपात से संसद में काफी पीछे ही थे। आगे बढ़ने का ट्रेंड जरूर आया था। भाजपा के ताकतवर होने के साथ लोकसभा में सवर्णों की तादाद बढ़ी है और पिछड़े फिर से पीछे की ओर गये हैं।

बिहार जहां ओबीसी की अगुआई वाली पार्टियां ही ताकतवर हैं। वहां से भी वर्तमान लोकसभा में चुन कर गए सांसदों में करीब 30 प्रतिशत सवर्ण हैं। अतिपिछड़ों की संख्या 7 है। वर्तमान में बिहार से राज्यसभा के 16 सदस्यों में भी हिंदू सवर्ण आबादी के अनुपात से ज्यादा हैं। गौरतलब है कि बिहार विधानसभा में 2015 की अपेक्षा सवर्णों की संख्या बढ़ी है, वे अभी 26.33 प्रतिशत हैं। पिछड़ा वर्ग करीब 41 प्रतिशत है। अति पिछड़ों की हिस्सेदारी पर गौर करें तो वे केवल 13 प्रतिशत है।

लोकसभा-राज्यसभा में पिछड़ों-अतिपिछड़ों को आबादी के अनुपात में आरक्षण की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। राज्यसभा में एससी-एसटी के लिए भी सीटें आरक्षित होनी चाहिए। विधानसभा में EBC व विधान परिषद में SC-ST और EBC के लिए आबादी के अनुपात में आरक्षण लागू करना भी जरूरी है। बहुजनों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण प्रश्न बना हुआ है।

6- हाल ही में राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से जुड़े आंकड़े, जो भारत सरकार द्वारा 2022 में पेश किए गए हैं, बताते हैं कि संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 15% से भी कम है। लोकसभा में 14.94% महिला सदस्य हैं, राज्यसभा में 14.05% महिला सदस्य हैं और देशभर की सभी राज्यों की विधानसभाओं में महिला विधायकों की औसत संख्या केवल 8% है। यह राजनीति में मौजूद लैंगिक असमानता और पितृसत्ता की मजबूती को दिखाता है।

महिला प्रतिनिधित्व भी जाति निरपेक्ष नहीं हो सकता। जो महिलाएं संसद में हैं उनमें आधी से ज्यादा उच्च जाति से हैं। लंबे समय से लोकसभा-विधानसभा में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का बिल लटका हुआ है। एससी, एसटी और अतिपिछड़े-पिछड़े समाज की महिलाओं का आबादी के अनुपात में कोटा की गारंटी के साथ महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण की गारंटी का सवाल बहुजन संघर्ष के एजेंडा में शामिल करना बेहद जरूरी है।

7- पहले से ही बदहाल-बर्बाद सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर नरेन्द्र मोदी सरकार ने नई शिक्षा नीति-2020 के जरिए अधिकतम हमला बोल दिया है। संपूर्ण सरकारी शिक्षा व्यवस्था की बर्बादी बढ़ाने, शिक्षा को महंगी करने के साथ देशी-विदेशी पूंजी के हवाले करने के लिए निजीकरण बढ़ाने की दिशा में सरकार ने गति तेज कर दी है। इस शिक्षा नीति में सामाजिक न्याय के लिए कोई जगह नहीं है।

शिक्षा के केंद्रीय बजट में लगातार कटौती जारी है। पहले से ही जारी शिक्षा के निजीकरण से दो तरह की शिक्षा व्यवस्था निर्मित हो रही थी। अब बहुजनों के हिस्से गुणवत्ताविहीन शिक्षा की गारंटी होगी। शिक्षा से बहुजनों की बेदखली बढ़ेगी क्योंकि उनकी पहुंच आज भी सरकारी शिक्षण संस्थानों में सस्ती शिक्षा तक ही है। दूसरी तरफ, पाठ्यक्रमों को भी बदला जा रहा है।

अभी एनसीईआरटी के हिंदी, विज्ञान, समाज शास्त्र, इतिहास व राजनीति विज्ञान के पाठ्यपुस्तकों में बदलाव सामने आये हैं। यह बदलाव तार्किक-वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक चेतना के निर्माण को कुंद करने के लिए किये जा रहे हैं। अंतिम तौर पर मनुवादी वर्चस्व व कॉरपोरेट हितों के अनुरूप शिक्षा व्यवस्था को पुनर्गठित किया जा रहा है।

ज्ञान पर ही नहीं, बल्कि ज्ञान के केन्द्रों- संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था पर भी सवर्णों का कब्जा है। नरेन्द्र मोदी के राज में यह बढ़ रहा है। शैक्षणिक संस्थानों-शोध संस्थाओं में एक तो बहुजन आज भी आबादी के अनुपात से कम पहुंच रहे हैं। लेकिन पहुंचने के बाद भी उसके लिए अनुकूल परिस्थिति मौजूद नहीं रहती हैं, मनुवादी भेदभाव-यातना उसका पीछा नहीं छोड़ती हैं। पहले ही बहुत सी चुनौतियां होती हैं और संस्थागत भेदभाव उनके लिए चुनौतियों को कई गुना बढ़ा देता है।

नरेन्द्र मोदी राज में शैक्षणिक संस्थानों पर मनुवादी-सवर्ण दबदबा बढ़ रहा है। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में दलित शोध छात्र रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या को सात साल गुजर गए, सिलसिला रुका नहीं है। दूसरी तरफ, छात्रों की सत्ता विरोधी वैचारिक-राजनीतिक सक्रियता पर शिकंजा कसता जा रहा है। भगवा ब्रिगेड का दबदबा व आतंक कायम है।

नई शिक्षा नीति-2020 और पाठ्यक्रमों के बदलाव को कतई कबूल नहीं किया जा सकता है। डॉ अम्बेडकर, महात्मा ज्योतिराव फुले, सावित्रीबाई फुले और ई.वी. रामासामी पेरियार के संघर्ष व विचारों को हरेक स्तर पर पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। शैक्षणिक परिसर को जातीय-सांप्रदायिक व लैंगिक भेदभाव से मुक्त कराने के लिए संस्थागत पहल की जरूरत है। कैंपसों में जातिगत भेदभाव को ख़त्म करने के लिए रोहित एक्ट बने। हरेक कैम्पस में छात्र संघ बहाल होना ही चाहिए।

शिक्षा व्यवस्था को मनुवादी-सांप्रदायिक-कॉरपोरेट शिकंजे से मुक्त कराने, सबको शिक्षा- एकसमान शिक्षा और वैज्ञानिक, लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष शिक्षा के लिए बहुजनों को संघर्ष करना ही होगा।

8- भारत जीडीपी के हिसाब से अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर खर्च करने के मामले में दुनिया में काफी नीचे है। इस साल भी केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य पर खर्च अपेक्षित तौर पर नहीं बढ़ा है। जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि जीडीपी का 2.5 फीसदी से ज्यादा स्वास्थ्य पर खर्च करने की जरूरत है। डब्ल्यूएचओ द्वारा अनुशंसित प्रत्येक 1,000 लोगों के लिए एक डॉक्टर के विपरीत भारत में 11,500 से अधिक लोगों के लिए केवल एक सरकारी डॉक्टर है।

2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार साठ फीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में केवल एक डाक्टर उपलब्ध है, जबकि पांच फीसद में एक भी डाक्टर नहीं है। ग्रामीण भारत में प्रति सत्तर हजार आबादी पर सरकारी अस्पतालों में डब्लूएचओ के अनुशंसित स्तर से बेहद कम मात्र 3.2 बिस्तर हैं।

कोरोना महामारी ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के महत्व और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के दयनीय हालत को सामने ला दिया है। राष्ट्रीय आपदा के समय सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका ही महत्वपूर्ण और कारगर हो सकती है।

नागरिकों को मिलने वाली स्वास्थ्य सेवाओं का अठहत्तर फीसदी हिस्सा निजी अस्पतालों और डाक्टरों के माध्यम से ही मिल रहा है। आम नागरिक के लिए सस्ते और कारगर इलाज की सुविधा मुश्किल है। जबकि, आज भी भारत की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा गांव और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहा है जो निजी क्षेत्र की सुविधाओं का लाभ नहीं ले सकता और लेने का प्रयास करता है तो गरीबी के कुचक्र की गहराई में और फंस जाता है।

भारत में जाति आधारित असमानता का रिश्ता स्वास्थ्य की असमानता के साथ जुड़ता है। अध्ययन और सरकारी रिपोर्ट भी बताते हैं कि अनुसूचित जनजाति की सबसे कम उम्र होती है। सवर्ण जाति के लोग सबसे ज्यादा जीते हैं। सवर्ण महिलाएं भी दलित महिलाओं की तुलना में ज्यादा जीती हैं। ओबीसी और मुसलमान भी सवर्णों से कम जीते हैं।

दूसरी तरफ, ऑक्सफैम इंडिया की ‘इंडिया इनइक्वलिटी रिपोर्ट 2021: इंडियाज अनइक्वल हेल्थ स्टोरी’ बताती है कि सवर्ण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तुलना में स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच के मामले में बेहतर हैं। हर चार में से एक के साथ जाति-धर्म के आधार पर स्वास्थ्य सुविधाओं में भेदभाव होता है।

स्वास्थ्य और गुणवत्ता पूर्ण स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता के मामले में समानता के लिए जरूरी है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण पर लगाम लगाया जाए। सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को सार्वभौमिक बनाया जाए। सार्वजनिक स्वास्थ सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का बड़ा हिस्सा खर्च हो। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत बनाया जाए। जिला स्तर के सार्वजनिक अस्पतालों से लेकर निचले स्तर तक ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों को हर लिहाज से सुविधा संपन्न बनाया जाए। गुणवत्ता पूर्ण स्वास्थ्य सुविधाओं को सार्वभौमिक बनाये जाने के साथ ही स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने का प्रश्न बहुजनों के संघर्ष के लिए महत्वपूर्ण एजेंडा है।

9- रोटी के साथ जमीन का एक टुकड़ा जिस पर सर छुपाने के लिए छत हो, यह गरिमापूर्ण जीवन के लिए बुनियादी मसला है। आवास का सवाल भूमिहीनता के सवाल से जुड़ा है। सभी के लिए आवास सुनिश्चित करने की दिशा में भूमिहीनता एक बड़ी बाधा है। गांव से शहर तक वास भूमि और आवास की समस्या से खासतौर से बहुजन ही जूझते हैं। शहर की झुग्गी बस्तियां उन्हीं से आबाद होती हैं।

नरेन्द्र मोदी सरकार सबको आवास देने की बात कर रही है। लेकिन, गांव से शहर तक भूमिहीनों को बुल्डोजर चलाकर बेघर किया जा रहा है। हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (HLRN) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़, केंद्र और राज्य सरकारों ने मिलकर 2017, 2018 और 2019 में कुल 1,77,700 घरों को नष्ट किया है।

न्यूनतम वास भूमि का भी नहीं होना इस देश के नागरिक होने पर ही प्रश्न चिन्ह बन जाता है, उसे अपने ही मुल्क में अतिक्रमणकारी कहा जाता है। बहुजन आंदोलन को भूमिहीन बहुजनों को वास भूमि के साथ आवास के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने को एजेंडा बनाना होगा।

10- भारत की कुल कामगार आबादी के 40% को रोजगार कृषि से मिलता है और ग्रामीण आबादी का करीब 70% इसी पर निर्भर है। कृषि गहरे संकट में है। कृषि अर्थव्यवस्था पर देशी-विदेशी कॉरपोरेटों का शिकंजा कसता जा रहा है। मोदी सरकार ने जमीन व खेती को पूर्णत: कॉरपोरेटों के हवाले कर देने के लिए ही तीन कृषि कानून लाया था।

अध्ययन-सर्वेक्षण से पता चला है कि बड़ी तादाद में किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। खेती उनके लिए घाटे का काम है। लेकिन कृषि संकट का जो बोझ उठाने के लिए बाध्य हैं, वे बहुजन हैं। खेत मजदूर हैं, गरीब, बटाईदार, छोटे व मंझोले किसान हैं। मौजूदा कृषि संकट की सबसे ज्यादा और भीषण मार यही तबका झेल रहा है।

भारत में आज भी जाति व्यवस्था के अनुरूप ही भूमि का वितरण कायम है। ज्यादातर दलित भूमिहीन हैं। 71% दलित भूमिहीन मजदूर हैं जो उस जमीन पर काम करते हैं जो उनके पास नहीं है। दूसरी तरफ, जंगल-जमीन पर कॉरपोरेट कब्जे की मुहिम आदिवासियों की बेदखली की मुहिम बन गयी है।

कृषि संकट को हल करने के लिए कृषि अर्थव्यवस्था को कॉरपोरेटों के शिकंजे से मुक्त कराने के साथ जाति और जमीन के रिश्ते को बदलने की जरूरत है, भूमि सुधार को अंजाम देने की जरूरत है। कृषि पर निवेश बढ़ाने के साथ फसलों के लाभकारी मूल्य की गारंटी की जरूरत है।

नरेन्द्र मोदी सरकार के वादे के अनुरूप 2022 खत्म हो गया लेकिन किसानों की आय दोगुनी नहीं हुई है। उलटे कृषि लागत दोगुनी से ज्यादा हो गई है। हालिया कृषि बजट में कटौती की गयी है। फसल बीमा योजना, खाद पर मिलने वाली सब्सिडी और प्रधानमंत्री सिंचाई योजना के मद में कटौती हुई है।

कृषि अर्थव्यवस्था को कॉरपोरेट शिकंजे से मुक्त कराने, भूमि सुधार के साथ बहुजनों को भूमि अधिकार की गारंटी, कृषि पर सरकारी निवेश बढ़ाने और तमाम कृषि उत्पादों की लागत के डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी जैसे सवालों को बहुजन संघर्ष में प्रमुखता से उठाना होगा।

11.10% आबादी के पास ही देश की कुल संपत्ति में से 80% से अधिक इकट्ठा हो गई है। जबकि निचले 50-60% के पास कोई संपत्ति नहीं हैं, वे क़र्ज़ के बोझ में दबे हुए हैं। एक ओर कुछ चुनिंदा काॅरपोरेटों की तिजौरी उफन रही है दूसरी ओर वैश्विक असमानता रिपोर्ट ने देश में बढ़ती गरीबी व असामनता की खाई को एक बार फिर से उजागर किया है। कोविड के बाद तो 23 करोड़ के गरीबी में धकेल दिए जाने का अनुमान है। नोटबंदी, जीसटी व लॉकडाउन से अनौपचारिक क्षेत्र की स्थिति कमजोर हुई है।

संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, मेहनतकश किसानों व सभी छोटे काम-धंधे करने वालों के जीवन में भारी आर्थिक संकट है। नौकरियों में कटौती हुई है, बेरोजगारी चरम पर है। मजदूरी घटी है, महंगाई ऊंचाई की ओर है, भूख सूचकांक में भारत नीचे की ओर लुढ़क रहा है। मजदूरों को अधिकतम निचोड़कर कॉरपोरेटों का मुनाफा बढ़ाने के लिए श्रम कानूनों को बदल दिया गया है। महंगाई, बेरोजगारी व कर्ज के दबाव में सामूहिक आत्महत्याओं का सिलसिला तेज हुआ है।

देश के कीमती प्राकृतिक संसाधनों तथा रेल, सेल, बैंक, बीमा सहित सार्वजनिक क्षेत्रों को कॉरपोरेटों के हवाले किया जा रहा है। सार्वजनिक उपक्रमों, सेवाओं-सुविधाओं के अबाध निजीकरण से एससी, एसटी व ओबीसी को रोजगार के अवसरों में हासिल आरक्षण भी खत्म हो रहा है। साथ ही निजी क्षेत्र के हवाले होने पर जरूरी सेवाओं व सुविधाओं तक इन तबकों की पहुंच भी मुश्किल हो जाती है।

हाल के केंद्रीय बजट में भारत में बढ़ती असमानता को दूर करने के लिए काॅरपोरट पर टैक्स बढ़ाने व वेल्थ टैक्स लगाने तथा आम लोगों को राहत देने के बदले मनरेगा, खाद्य सुरक्षा सहित सामाजिक सुरक्षा मदों में की गई भारी कटौती, महंगाई-बेरोजगारी की मार झेल रही जनता के साथ क्रूर मजाक ही है। संपत्ति का केन्द्रीकरण, निजीकरण, बढ़ती आर्थिक असमानता व गरीबी के बीच बढ़ती महंगाई-बेरोजगारी, सब्सिडी में कटौती, श्रम कानूनों में बदलाव अंतत: बहुजनों की बेदखली-बदहाली को बढ़ा रहा है।

आर्थिक असमानता सामाजिक असमानता के साथ जुड़ी हुई है। वर्ण-जाति व्यवस्था में नीचे की ओर आने पर गरीबी बढ़ती है। बहुजन आंदोलन को कॉरपोरेट पक्षधर अर्थनीति को पलटने के सवाल को एजेंडा बनाना होगा। बेहिसाब मुनाफा लूटने वाले कॉरपोरेट को मिली लूट की छूट को रोकने व उस पर टैक्स बढ़ाने, निजीकरण रोकने, चारों श्रम कोड की वापसी, महंगाई-बेरोजगारी पर लगाम लगाने, रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने, जरूरी खाद्य पदार्थों के साथ सार्वभौमिक खाद्य सुरक्षा की गारंटी और सम्मानजनक वेतन-मजदूरी के सवालों पर आवाज बुलंद करना होगा।

12- नरेन्द्र मोदी के राज में सांप्रदायिक हिंसा-आक्रमण के साथ ही जातीय व लैंगिक हिंसा भी बढ़ी है।भारत में दलितों के खिलाफ हिंसा के मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है। हिंसा-भेदभाव-अपमान दलितों के जीवन का हिस्सा बना हुआ है। दलितों की जिंदगी की कोई कीमत नहीं है, मौत मामूली मसला है। गौरतलब है कि मैला साफ करते वक्त भारत में रिकॉर्ड मौतें होती हैं। एनसीआरबी द्वारा जारी ‘क्राइम इन इंडिया 2021’ रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में बढ़ोत्तरी हो रही है।

भाजपा-आरएसएस मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा-उन्माद के जरिए हिंदू पहचान को उभारती है। हाल में रामनवमी के दरम्यान बिहार सहित देश के दूसरे हिस्सों में हिंसा-उत्पात-उन्माद फैलाया गया। सांप्रदायिक जहर फैलाने और बहुसंख्यकों के सैन्यीकरण की मुहिम जारी है। हिंदू राष्ट्र के बैनर लहराए जा रहे हैं। दूसरी तरफ, रामचरित मानस के मामले में मनुवादी शक्तियों की आक्रामकता सामने आई। बहुजनों के सम्मान के सवाल को दबाते हुए एक महाकाव्य को पवित्र धार्मिक ग्रंथ बताकर थोपने की कोशिश की गयी। साधु-संत तलवारें लहराकर हिंसा का आह्वान तक नहीं रुके, हिंसक आक्रमण पर भी उतर आए।

भाजपा-आरएसएस व उससे जुड़े संगठन धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल करते हुए धर्मनिरपेक्षता की धज्जियां उड़ा रहे हैं और सवर्ण वर्चस्व को आगे बढ़ा रहे हैं। बहुजनों के समक्ष बढ़ते ब्राह्मणवादी-पितृसत्तात्मक-सांप्रदायिक हिंसा-हमले का प्रतिरोध करते हुए न्याय, सम्मान, समानता व धर्मनिरपेक्षता की आवाज को बुलंद करने की चुनौती है।

13- मोदी राज में पहले सड़क पर जारी आंदोलनों के कार्यकर्ताओं, पत्रकारों व बुद्धिजीवियों पर हमला शुरू हुआ। अब देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था- संसद के भीतर भी विपक्ष की आवाज का गला घोंट दिया जा रहा है। सीबीआई-ईडी जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल विपक्ष की आवाज को दबा देने के लिए किया जा रहा है। राज्य संरक्षित हिंसा-दमन चरम पर है तो संवैधानिक-लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भाजपा-आरएसएस मजबूत पकड़ बनाते हुए संविधान व लोकतंत्र को ठिकाने लगा रही है।

मुल्क पर मनुवादी-कॉरपोरेट फासीवाद थोपा जा रहा है। संविधान व लोकतंत्र ने ही बहुजनों के लिए सम्मान, हक-हिस्सा व बराबरी हासिल करने का रास्ता खोला है। बहुजन संसद बहुजनों द्वारा हासिल उपलब्धियों को छीनने के सरकार के हरेक फैसले व कदम, संविधान व लोकतंत्र पर होने वाले हरेक हमले के प्रतिरोध का संकल्प व्यक्त करता है।

बहुजन संसद बहुजन विरासत- पहचान, बहुजन एजेंडा और बहुजनों की एकजुटता व दावेदारी को बुलंद करते हुए सर्वोपरि संविधान व लोकतंत्र को बचाने के लिए अंतिम हद तक-अधिकतम ताकत से लड़ने का संकल्प व्यक्त करता है।

(रिंकु यादव, सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार से जुड़े हैं)

रिंकु यादव
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रिंकु यादव