कर्जा लो, घी पियो और वसूली की बारी आए तो बट्टे खाते में डाल दो!

चार्वाक दर्शन का मूल मंत्र है ‘कर्ज़ लो घी पियो’। नव उदारवाद या आर्थिक उदारीकरण का भी मूलमंत्र कमोवेश यही है। अब कर्ज़े पर आधारित विकासवाद में कर्ज़े पर कर्ज़ा, नए काम पर नए काम, देखने सुनने में बड़ा अच्छा लगता है। कहा भी जाता है 5 लाख या 50 लाख से काम शुरू किया था, आज 5 हज़ार करोड़ या 50 लाख करोड़ के टर्न ओवर की कम्पनी बन गयी है। अब यहाँ दो स्थितियां हैं यदि आप क्रोनी पूंजीपति (कार्पोरेट) हैं तो दिवाला निकल जाने के बाद भी आप घी पीते रहते हैं और आपके कर्जे सरकार द्वारा बट्टे खाते में डाल दिए जाते हैं पर आप छुटभैये पूंजीपति (कार्पोरेट) हैं तो जैसे ही बैंकों के कर्ज़ों के एनपीए का मामला सामने आता है या फिर आयकर विभाग और ईडी की वक्र दृष्टि उस कम्पनी पर पड़ जाती है तो उसके बाद अनंत उत्पीड़न, वसूली जेल से लेकर देश छोड़ने, लुक आउट नोटिस, प्रत्यर्पण से होते हुए आत्महत्या या हार्टअटैक से मौत तक मामला जा पहुंचता है। अब दिवालिया होकर भी सरकार की कृपा से कर्जे का घी पीने वालों पर उच्चतम न्यायालय को भी कहना पड़ा है कि भले ही लोग खुद को दिवालिया घोषित करते हैं, लेकिन वे वास्तव में अपनी जीवन शैली को कभी नहीं बदलते हैं। उनकी जीवनशैली कभी प्रभावित नहीं होती, वे जनता के पैसे से खेलते हैं।

दरअसल कर्ज़ा लो घी पियो के बीच आयकर, सरकार, बैंक वसूली तंत्र आ जाता है जिसकी परिकल्पना न तो चार्वाक ने की थी न ही नव उदारवाद के जनकों ने। चार्वाक संप्रदाय का स्पष्ट मत है कि जब तक जियो सुख से जियो, उधार लेकर घी पियो, एक बार देह भस्म हो जाने के बाद वापस कोई लौटकर नहीं आता है।

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि अदालत के लिए यह निगरानी करना संभव नहीं है कि कितने लोन वसूल किए गए हैं, जिसमें राज्य के स्वामित्व वाली आवास और शहरी विकास निगम (हुडको) द्वारा कानून का पालन किए बिना कुछ कंपनियों को दिए गए लोन के मुद्दे पर प्रकाश डाला गया है।

जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस अभय श्रीनिवास ओका और जस्टिस विक्रम नाथ की पीठ ने मौखिक रूप से कहा कि न्यायालय की भूमिका संबंधित संस्थान को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए मजबूर करना है। हम इस बात की निगरानी नहीं कर सकते कि कितने लोन वसूल किए गए हैं। यह हमारा काम नहीं है। हम किसी अपराध की निगरानी कैसे कर सकते हैं?

पीठ 2003 में सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (सीपीआईएल) द्वारा दायर एक याचिका पर विचार कर रही थी, जिसमें हुडको के अधिकारियों द्वारा प्रत्येक मामले की योग्यता में जाने के बिना राजनीतिक और बाहरी विचारों के लिए मनमाने ढंग से लोन देने की कार्रवाई को सुप्रीम कोर्ट के नोटिस में लाया गया था।

पीठ ने पहले मामले को जांच के लिए सीवीसी को भेजा था और सीवीसी ने मामले में विस्तृत रिपोर्ट सौंप दी थी। 2017 में पिछली सुनवाई के दौरान, कोर्ट ने केंद्र सरकार के लोन वसूली मैकेनिज्म के बारे में कई सवाल किए और कैसे उसने लोन की पुनर्प्राप्ति में तेजी लाने के लिए बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की योजना बनाई थी।

सुनवाई के दौरान एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कहा कि वर्तमान में लाखों करोड़ का कर्ज डूबते कर्ज के तौर पर माफ किया जाता है। उन्होंने पीठ को यह भी बताया कि उनके द्वारा दायर एक अन्य जनहित याचिका में, भारतीय रिजर्व बैंक को विलफुल डिफॉल्टर्स पर एक सर्कुलर जारी करने के लिए मजबूर किया गया और सभी सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तीय संस्थानों को उन्हें आगे लोन नहीं देने का निर्देश दिया।

पीठ ने टिप्पणी की कि भले ही लोग खुद को दिवालिया घोषित करते हैं, लेकिन वे वास्तव में अपनी जीवन शैली को कभी नहीं बदलते हैं। उनकी जीवन शैली कभी प्रभावित नहीं होती, वे जनता के पैसे से खेलते हैं।

भूषण ने भारतीय व्यवसायी अनिल अंबानी का उदाहरण देते हुए कहा कि लोग दिवालिया घोषित करते हैं और राजाओं की तरह जीते हैं। उन्होंने कहा कि इससे पहले, आरबीआई को यह फाइल करना था कि कौन डिफॉल्टर हैं जिन्होंने 500 करोड़ से अधिक का डिफॉल्ट किया है। हालांकि, ऐसा नहीं किया गया है। भूषण ने तर्क दिया कि हालांकि राष्ट्रीय ऋणदाता एक तर्क के रूप में निजता का उल्लंघन करता है, लेकिन यह उस व्यक्ति पर लागू नहीं हो सकता जो डिफॉल्टर है। साथ ही, उन्होंने कहा कि केवल चुनिंदा जानकारी वाले लोग ही ब्लैकमेल कर सकते हैं और जब सूचना सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराई जाती है तो इसे समाप्त कर दिया जाता है।

पीठ ने इस पर कहा कि वह शासन के पहलुओं को नहीं ले सकती है। पीठ ने पूछा कि हम यह मानते हैं कि आप यह सुनिश्चित करने के लिए वित्तीय प्रणाली में जवाबदेही लाना चाहते हैं कि जनता के पैसे का दुरुपयोग न हो?पीठ ने तब भूषण को दो सप्ताह के भीतर इस मामले में क्या हुआ और क्या करने की आवश्यकता है, इसका एक संक्षिप्त नोट तैयार करने का निर्देश दिया।

पीठ ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल को भूषण के नोट की जांच करने, सरकार द्वारा क्या कार्रवाई की गई है और सरकार क्या कार्रवाई करने की योजना बना रही है, इसकी जांच करने के लिए भी कहा। अब मामले में छह सप्ताह बाद सुनवाई होगी।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने 23 अक्टूबर 2016 को आरबीआई से पूछा था कि 85,000 करोड़ रुपये के बैंक ऋण में चूक करने वाले 57 कर्जदारों के नाम सार्वजनिक क्यों नहीं किए जाने चाहिए।

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने पूछा था कि ये लोग कौन हैं जिन्होंने पैसा उधार लिया है और वापस नहीं कर रहे हैं? यह तथ्य जनता को क्यों नहीं पता कि व्यक्ति ने पैसा उधार लिया है और वापस नहीं कर रहा है। यह देखते हुए कि यदि लोग आरटीआई प्रश्न दायर करते हैं, तो उन्हें पता होना चाहिए कि डिफॉल्टर कौन हैं, इसने भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) से पूछा था कि डिफॉल्टरों की जानकारी को क्यों रोका जाना चाहिए।

पीठ ने कहा था कि लोगों को पता होना चाहिए कि एक व्यक्ति ने कितना पैसा उधार लिया है और उसे कितना पैसा चुकाना है। देय राशि जनता को पता होनी चाहिए। आपको जानकारी क्यों रोकनी चाहिए।

एक अन्य सुनवाई में उच्चतम न्यायालय ने डिफॉल्टरों के नामों का खुलासा किए बिना कुल बकाया राशि को सार्वजनिक करने का सुझाव दिया था, लेकिन आरबीआई ने निजता के उल्लंघन का हवाला देते हुए प्रस्ताव का विरोध किया था।

सीपीआईएल की याचिका में कहा गया है कि 2015 में कॉरपोरेट कर्ज का करीब 40,000 करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाला गया था। सुप्रीम कोर्ट ने तब आरबीआई को उन कंपनियों की एक सूची प्रदान करने का निर्देश दिया था, जिन्होंने खराब ऋणों में वृद्धि पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए 500 करोड़ रुपये से अधिक का बैंक ऋण चुकाया था। हालांकि, आरबीआई के वकील ने सुझाव का विरोध किया और कहा कि सभी चूककर्ता जानबूझकर नहीं थे।

एक अन्य सूचना के मुताबिक जनवरी 22 में देश में वाणिज्यिक बैंकों ने पिछले पांच वर्षों में 9.54 लाख करोड़ रुपये के भारी-भरकम फंसे ऋण बट्टे खाते में डाले हैं, जिनमें 7 लाख करोड़ रुपये से अधिक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) के हैं। बैंकों की तरफ से बट्टे खाते में डाली गई धनराशि इस अवधि में वसूली गई राशि की दोगुनी से अधिक है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के आंकड़ों के मुताबिक पिछले पांच वर्षों में लोक अदालतों, कर्ज वसूली न्यायाधिकरणों, सरफेसी अधिनियम और ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) जैसे विभिन्न जरियों से वसूली गई राशि 4.14 लाख करोड़ रुपये रही।

आम तौर पर बैंक अधिकारी तर्क देते हैं कि बट्टे खाते में डालने का मतलब यह नहीं है कि उनके पास इन ऋणों की वसूली का विकल्प नहीं है क्योंकि इन्हें तकनीकी रूप से बट्टे खाते में डाला गया है। हालांकि आंकड़ों से पता चलता है कि बैंकों की वसूली बट्टे खाते में डाली गई राशि से आधी है, जबकि यह वसूली केवल बट्टे खाते से ही नहीं हुई है। बैंकों के कम फंसे ऋणों की एक प्रमुख वजह इन्हें बट्टे खाते में डाला जाना है। कुल फंसे ऋण मार्च 2018 में 11.8 फीसदी के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गए थे मगर मार्च 2021 में घटकर 7.3 फीसदी पर आ गए। आरबीआई ने कहा कि प्रारंभिक आंकड़ों से पता चलता है कि यह अनुपात सितंबर 2021 तक घटकर 6.9 फीसदी पर आ गया, जो पांच साल का सबसे निचला स्तर है।

बैंकों द्वारा पिछले पांच साल में बट्टे खाते में डाली गई धनराशि 31 मार्च, 2021 को उनकी परिसंपत्तियां करीब 195 लाख करोड़ रुपये की 5 फीसदी से कम थी। वित्त वर्ष 2020-21 में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों ने 2.08 लाख करोड़ रुपये के ऋण बट्टे खाते में डाले, जिनमें सरकारी बैंकों का हिस्सा 1.34 लाख करोड़ रुपये था। वहीं बैंकों द्वारा वसूल की गई राशि महज 64,228 करोड़ रुपये थी, जो वसूली के लिए विभिन्न चैनलों को संदर्भित राशि की 14.1 फीसदी थी। वित्त वर्ष 2021 में वसूली का प्रतिशत पिछले चार साल में सबसे कम है।

आईबीसी के तहत वसूली वित्त वर्ष 2021 में 2.73 लाख करोड़ रुपये थी, जो इस योजना में सदंर्भित राशि की 20.2 फीसदी थी। यह दिवालिया संहिता शुरू होने के बाद किसी वर्ष में सबसे कम वसूली थी। पहले तीन पूर्ण वित्त वर्षों में आईबीसी के तहत वसूली का प्रतिशत 45 फीसदी से अधिक था। सुस्त वसूली का प्रमुख कारण यह है कि सरकार ने कोविड-19 महामारी की वजह से 25 मार्च 2020 से 24 मार्च 2021 तक एक साल के लिए आईबीसी के कुछ प्रावधान स्थगित कर दिए। देश में 25 मार्च, 2020 से राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लगा था। इस स्थगन अवधि में आईबीसी के तहत नई प्रक्रियाओं को मंजूरी नहीं दी गई।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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