बीबीसी के संपादक मनुस्मृति और जनेऊ शास्त्र से चलाना चाहते हैं न्यूज़रूम: पूर्व बीबीसी कर्मी मीना कोटवाल

(पिछले दिनों बीबीसी में काम करने वाली एक महिला पत्रकार मीना कोतवाल का अपने संस्थान के साथ विवाद का मामला सुर्खियों में आया था। उसी विवाद के बाद कोटवाल को बीबीसी की नौकरी छोड़नी पड़ी थी। इन्हीं दोनों पक्षों से जुड़ा एक और विवाद सामने आया है। जिसका खुलासा मीना कोटवाल ने अपनी फेसबुक पोस्ट में किया है। इसमें उन्होंने बीबीसी पर कई तरह के गंभीर आरोप लगाए हैं। पेश है उनकी पूरी पोस्ट और बीबीसी की तरफ़ से दिया गया जवाब-संपादक) 

मैं मीना कोटवाल, दलित समाज से आने वाली भारत की एक आम नागरिक, बाबा साहेब आंबेडकर के बनाए गए संविधान पर पूर्ण विश्वास रखती हूं। संविधान के प्रस्तावना में लिखित सामाजिक न्याय और अवसर की समता के लिए कटिबद्ध हूं। लेकिन संपादक पदों पर बैठे लोग बाबा साहेब के बनाए गए संविधान को व्यवहार में नहीं मानते हैं और अवसर की समता के साथ किस तरह खिलवाड़ करते हैं उसका एक उदाहरण नीचे लिख रही हूं।

प्रिय संपादक महोदय, मैं जानती हूं कि आप की निष्ठा मनुस्मृति के प्रति है और यही वजह है कि न्यूज़रूम में सिर्फ एक ही तरह के लोग दिखाई देते हैं। लेकिन मैं भी आपको बताना चाहती हूं कि यह देश संविधान से चलेगा आपके जनेऊ शास्त्र से नहीं। बाबा साहेब ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी दी है और वह आप हमसे नहीं छीन सकते हैं। नीचे स्क्रीनशॉट के साथ मैं पूरा वाकया आप सबसे शेयर कर रही हूं।

पिछले महीने मुंबई प्रेस क्लब द्वारा आयोजित RedInk Award के लिए आवेदन मांगे गए थे, इसके लिए मैंने भी आवेदन किया था। चूंकि आवेदन करते समय केवल साल 2019 में की गई ही स्टोरी भेज सकते थे। इसलिए ज़ाहिर है बीबीसी में रहते हुए भी मैंने कुछ स्टोरी की, जिन्हें मैं यहां भेजना चाहती थी। आवेदन करने के लिए अपने संस्थान के संपादक या वहां के हेड से भी अथेंटिकेशन चाहिए था। मैंने भी इसके लिए बीबीसी हिंदी के संपादक मुकेश शर्मा और बीबीसी इंडिया की सभी भाषाओं की संपादक रूपा झा को मेल किया।

मेरे मेल पर उनका जो जवाब आया वो मेरे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इन लोगों ने बीबीसी में रहते हुए तो मेरा शोषण किया ही है लेकिन वहां से बाहर निकलने के बाद भी वो सिलसिला आज भी खत्म नहीं हुआ। ये हमेशा से चाहते रहे हैं कि कैसे मुझे आगे बढ़ने से रोका जाए, जिसका प्रमाण आपको ये मेल पढ़ने के बाद मिल जायेगा। एक ख़ास जाति की लड़की के लिए इतनी घृणा एक संपादक जैसी पोस्ट पर बैठने के बाद इन्हें कितनी शोभा देता है!

*नोट- मेल में मुझे बताया गया कि इसके लिए लंदन से परमिशन लेनी होती है, जबकि ये काम मेरा नहीं संपादक महोदय का है। रही बात डिटेल्स की तो वो सारी डिटेल्स जिनकी जरूरत उन्हे पड़ सकती थी वो मैंने भेज दी थी। फिर भी कुछ और चाहिए था तो वो मुझसे एक बार संपर्क कर सकते थे। दूसरा, उनका कहना है कि हमारे यहां से ऑल रेडी उन कैटेगरी में कई आवेदन किए जा रहे हैं जिनमें मैं करना चाहती हूं। मतलब आपने तो मेरी यहीं छंटनी कर दी, जबकि एक कैटेगरी में कब कितने आवेदन भेजने हैं इसका फैसला अवार्ड आयोजित करने वालों पर छोड़ना चाहिए था शायद।

कोटवाल की इस पोस्ट पर दीपांकर पटेल नाम के एक दूसरे सज्जन ने अपनी प्रतिक्रिया दी है:

बीबीसी ने जो हरकत की है उसके लिए मुम्बई प्रेस क्लब को चाहिए कि रेड इंक अवार्ड के लिए बीबीसी हिंदी की तरफ से आने वाली हर एंट्री को ब्लैक लिस्ट कर दे।

पर क्यों? उसके लिए ये पोस्ट पढ़िए..

क्या रेड इंक (#RedInk) अवार्ड की तरफ से किसी संस्थान विशेष की तरफ से कितने आवेदन आ सकते हैं इसकी कोई संख्या सीमा तय की गई है?
मेरी जानकारी के हिसाब से संस्थानों के लिए ऐसी कोई संख्या सीमा तय नहीं की गयी है।
अगर नहीं तो BBC हिंदी अपनी तरफ से ये क्यों कर रहा है।
अगर ये पत्रकार अपने व्यक्तिगत स्तर पर चुनने के लिए स्वतंत्र है कि किस कटेगरी में उसे कितने आवेदन करने हैं तो BBC अपनी तरफ से प्राथमिकता क्यों तय कर रहा है?
अगर BBC को ही तय करना है कि कौन सी स्टोरी बेहतर है, कौन सी लायक है तो रेड इंक अवार्ड की ज्यूरी का क्या काम है?
BBC हिंदी के लोग ही अपनी वेबसाइट पर विनर्स लिस्ट निकाल दें।
दरअसल BBC हिंदी के एडिटर्स अपने पुराने एम्प्लॉई से “बदला” ले रहे हैं।
न्यूजरूम में जातिगत भेदभाव की कई परते हैं।
यह कहां तक उचित है कि बाद में एक्स एम्पलॉई को ऑथेंटिफिकेशन देने तक से मना कर दो।
BBC हिंदी के सम्पादक मुकेश शर्मा ये तर्क दे रहे हैं कि ” क्योंकि वर्तमान कर्मचारी भी सेम कटेगरीज् के लिए अप्लाई कर रहे हैं, तो हम आपकी उम्मीदवारी का समर्थन नहीं कर सकते।”
ये तर्क ना केवल हास्यास्पद है बल्कि कुंठा में डूबा हुआ लगता है।
यही नहीं ये एक एडिटर का गैर पेशेवर रवैया भी दर्शाता है। जो अपने ही संस्थान में कभी काम किये एम्प्लाई को रिकॉग्नाइज करने से मना कर देता है।
ऐसा लगता है कि मुकेश शर्मा को पढ़ने-लिखने की फुर्सत नहीं है, नहीं तो रेड इंक की गाइडलाइन जरूर पढ़ते।
क्या कहती है गाइडलाइन-
5. An applicant is allowed a maximum of 3 entries across all categories.
6. Entries will need to be authenticated (supported/recommended) by the Editors/Media Heads of respective media platforms.
पूरी गाइडलाइन में इस बात का कहीं जिक्र नहीं है कि किसी संस्थान विशेष से अधिकतम कितनी एन्ट्री भेजी जा सकती है। ये सीमा व्यक्तिगत स्तर पर है।
अच्छा है! इसी बहाने झूठी निष्पक्षता का दावा करने वाले मीडिया हाउस के एडिटर का भेदभाव सामने आ रहा है।

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