रगों में बहनेवाले खून के पानी बन जाने से पहले, ‎ इस तालाब का पानी ‎बदलना जरूरी है ‎

आम चुनाव 2024 भारत के सामने है। चुनाव यानी लोकतंत्र का सब से बड़ा पर्व। भारत के लोकतंत्र की आंख में लहरा रहा है, सपनों का सागर। सपने अतीत के भी। सपने वर्तमान के भी। सपने भविष्य के भी। भ्रामक अतीत और काल्पनिक भविष्य के सपनों के लोकलुभावन राजनीति के जाल में फंसने से बचने की सावधानी के साथ वर्तमान की आवाज को सुनना जरूरी है। क्या वर्तमान की आवाज को सुन पा रहा है देश! जी, सुन रहा है।

सपनों के रेशे सुनहले ही नहीं, मटमैले भी हैं। लोकलुभावन राजनीति के तरंगों पर चढ़कर आये ‎‘अच्छे दिन आने के’ सपनों के फटे हुए रैपर भी हैं। उसने भरोसा किया था अटल विहारी बाजपेयी की उस परंपरा का जिस में चिमटा से भी अपवित्र समर्थन को न उठाने की बात थी। उस ने भरोसा किया था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ‎‘सांस्कृतिक उद्बोधन ’ का। उसने भरोसा किया था ‘बाबा’ नाम से विख्यात रामदेव का। उसने भरोसा किया था अण्णा हजारे के इरादों का। उसने भरोसा किया था नरेंद्र मोदी के विकास की बात और गुजरात मॉडल का। इन सब पर भरोसा करते हुए उसने देखा था सपना ‎‘अच्छे दिन के आने का’।

पिछले दस साल में जब ‎‘अच्छे दिन आने के’ रैपर फटते रहे तो, कोई काम नहीं आया, कोई नहीं। अटल विहारी बाजपेयी की पवित्र परंपरा, न राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का ‎‘सांस्कृतिक उद्बोधन’ न, न ‎‘बाबा’ नाम से विख्यात रामदेव, न अण्णा हजारे कोई काम नहीं आया। ‎‘बाबा’ तो अपने प्रचार सामग्री में धोखेबाजी के तत्वों क्रिया मामले में सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई का सामना कर रहे हैं। आज जब सामने आम चुनाव है, भारत के लोकतंत्र की आंख में ‎‘अच्छे दिन आने के’ फटे हुए रैपर लहरा रहे हैं। रैपर चाहे जितना भी चमकीला हो, एक दिन तो उसे फटना ही पड़ता है! भरोसा भ्रामक निकला। जी, सभी भरोसा!‎ देश शिकार हो गया सत्ता की शठ-धर्मिता का। ‎

क्या, क्या न वादा किया गया था। बदले में क्या मिला? उफनती हुई महंगाई! सुरसा के मुंह की तरह फैलती बेरोजगारी! लगातार घटती आय! विषमताओं की गहरी और चौड़ी होती खाई! और सब से भयानक, जबरिया चंदा और गैरकानूनी धंधा का इतना बड़ा जाल! सलाम सुप्रीम कोर्ट और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR)‎ के सहयोगियों तथा उसकी पूरी टीम, असंख्य पत्रकारों की जमात को! कुधन-कुधंधेबाजों का, सब से बड़ी राजनीतिक दलों का कितना बड़ा दबाव बनाया जाता रहा है, सुप्रीम कोर्ट और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR)‎ के सहयोगियों तथा उसकी पूरी ‎टीम पर, इसका अनुमान लगाना क्या सचमुच बहुत मुश्किल है!

दबाव कि किसी तरह से चुनावी चंदा (Electoral Bonds) से संबंधित विवरण बाहर न आये। बाहर आये भी तो 2024 के आम चुनाव के संपन्न होने के बाद विलंब से आये। या फिर, आये तो इस तरह से आये कि किसी निष्कर्ष तक न ले जाये। दाता-पाता का, उनके इरादों का कोई पता ही न चले यह सब तो सामने दिख रहा था। पीठ पीछे क्या-क्या न हो रहा होगा! जो सुनवाई सीधे प्रसारित हो रही थी उसके बारे में कहा गया कि जनता के पीठ पीछे इतना बड़ा फैसला कैसे हो रहा है! दाता-पाता की गोपनीयता को जनता के जानने के अधिकार से कहीं बड़ा बताने की कोशिश की गई। ऐसे-ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं कि कलेजा मुंह को आ जाये। सटोरिए, लॉटरीवाले की बात क्या की जाये, जब दवा बनानेवाली कंपनियां भी इस गोरखधंधा में शामिल बताई जा रही है।

चुनावी चंदा (Electoral Bonds) का इतना बड़ा मामला सामने आया और सब चुप! राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ चुप, अण्णा हजारे चुप, रामदेव चुप, मुख्य-धारा की मीडिया चुप, वैकल्पिक मीडिया में की सीमा भले हो उनके उद्यम में कोई कमी नहीं है। वैकल्पिक मीडिया की जितनी भी सराहना की जाये कम ही होगी। देश ने इस तानाशाही सरकार और सत्ता हवस के सामने पूरी भारतीय जनता पार्टी ऐसी नतमस्तक!

किसान आंदोलन हो, बेरोजगार युवाओं का आंदोलन हो, मणिपुर पर एक शब्द नहीं! ऑलंपिक मेडल जीतने वाली पहलवानों के साथ ऐसा व्यवहार! अभी जब उन्होंने अपने बड़बोलेपन में राहुल गांधी के दुष्ट शक्ति से लड़ने की बात को तोड़ते-मरोड़ते माताओं-बहनों की पूजा करने की बात कही तो महिला पहलवानों ने जो X किया उससे सारे देश का माथा शर्म से झुक गया! जिनका नहीं झुका हो, वे धन्य हैं! सार्वभौम नैतिक मानदंडों एवं मानवाधिकारों से संबंधित मूल्यों की कोई परवाह किसी ‘सत्ता-कुटुंब’ को नहीं! ‘वसुधैव कुटुंबकम’ जपते हुए इतना बड़ा घोटाला हो गया! सब खामोश!

चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎के मामले के सामने आने पर पचकेजिया मोटरी-गठरी ढोनेवालों को उसकी कीमत का कुछ तो अंदाजा हो ही गया होगा। विपक्षी गठबंधन अपनी ताकत भर मुद्दों को उठा रहा है। मुख्य चुनाव आयुक्त संघर्ष का समान अवसर (Level Playing Field)‎ का जितना भी भाषा में भरोसा दिलायें असली भरोसा तो उनकी निष्पक्ष कार्रवाइयों से मिलेगा। आम मतदाताओं को निष्पक्ष कार्रवाइयों का इंतजार रहेगा, आखिरी दिन तक।

जनता ने निष्पक्षता का भरोसा तो उन संवैधानिक संस्थाओं पर किया था, जिन्हें ‘वसूली गेंग’ में शामिल होने की बात कही जा रही है। कौन है जिसका पूर्वग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क भीतर से उसकी आत्मा को मथता न हो? लेकिन यहां तो आत्मा जगती भी है तो इस तरह कि परमात्मा भी चकराव में पड़ जायें! निश्चित रूप से लोगों को राम के प्रति भक्ति है, और किसी भी राजनीतिक व्यक्तित्व से अधिक है।

राम के नाम पर रोटी की उपेक्षा की जा सकती है भला! प्रसाद से पेट नहीं भरा करता है, मन भले भर जाये। इतना बड़ा अन्याय मर्यादा पुरुषोत्तम राम को क्या अच्छा लगेगा! अयोध्या के भव्य और दिव्य मंदिर में राम लला की प्रण-प्रतिष्ठा का कार्यक्रम धर्म का मामला था उसे राजनीतिक क्रिया-कलाप का माध्यम बना लिया! शंकराचार्यों समेत किसी भी धार्मिक व्यक्तित्व की कोई बात न सुनी गई! जिन लोगों ने राममंदिर आंदोलन में अपनी जिंदगी का बेहतरीन समय लगा दिया उन्हें भी कायदे से न पूछा गया!

चिट से मुख्यमंत्री का नाम निकलता है! इस बीच किस भरोसे को, किस-किस के भरोसे को भ्रम में नहीं बदला गया? किस भरोसे को? नोटबंदी, जीएसटी, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (सीएए),‎ से लेकर चुनावी चंदा (Electoral Bonds) में हुए बड़े घोटाला के विवरणों के सामने आने से रोकने के कुप्रयासों से लेकर‎ कौन ऐसा मामला बचा जिस पर सत्ता के जनविरोधी रुझानों से आम नागरिकों उतप्त और उत्पीड़ित नहीं हुआ!

कल तक ‘तपस्वी और त्यागी जैसी जिंदगी जीने पर गर्व करनेवाले’ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को क्या हुआ? वे जो अपनी तरह से भारत की संस्कृति की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं उस से कोई प्रेरणा नहीं मिली! विदुर नीति से लेकर चाणक्य नीति की बातें करते हैं, इन से नहीं मिली कोई प्रेरणा! जिस सनातन की बातें करते हैं उस से भी नहीं मिली की प्रेरणा! ‘दो हजार साल’ से अपने भाइयों को सताये जाने पर अफसोस की बात में भी नहीं दिखी प्रेरणा! कहीं से कोई प्रेरणा नहीं मिली? प्रेरणा कि ‘न्यायार्थ अपने बंधुओं को भी दंड देना धर्म है’। किस सुख-सुविधा के भोग विलास, किस भय के दबाव में भारत की संस्कृति के वागविलासी कंठरोध के शिकार हो गये!

सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं के हाथ-पैर बांधने और गला दबाने का मामला तो है ही! दिल में टूटा हुआ भरोसा, माथा पर पचकेजिया मोटरी-गठरी क्या इसी ‘महान दृश्य’ को देखने-दिखलाने के लिए भारत माता की जय को असंख्य कंठ से बार-बार कहा और दुहराया जाता रहा है। क्या यही दिन दिखलाने के लिए विष्णु का ‘नया अवतार’ हुआ! भारत के लोग धन विपन्नता से अधिक भाव विपन्नता से पीड़ित होते हैं। अभाव से ‎अधिक अन्याय से उतप्त और उत्पीड़ित होते हैं। इतना बड़ा छलाघात और ‎भावाघात इसके पहले इस देश को कभी नहीं लगा था।‎

लोकतंत्र के अंतर्निहित अनिवार्य मूल्यों की धज्जियां उड़कार भारत की संस्कृति की कौन-सी कथा लिखी जा रही है! किस विकास की बात करते हैं! जिस विकास में दूसरों को लूटने, अपने और ‘अपनों’ के निर्द्वंद्व विलास के अवसर जुटाने के कूट उद्यम से अलग और इतर कुछ नहीं है! कुछ भी नहीं! कर्तव्य, धर्म और समाज की चिंताओं को पास फटकने देने से रोकने की निष्ठुर अनैतिकता का समावेश इस विकास के मूल चरित्र में है। इस विकास का क्या करेगा भारत? ऐसा लगता है कि आंख और कान में मिलीभगत से दिमाग कुंद हो गया है।

किस राहुल गांधी की बात को तोड़ते-मरोड़ते हैं! जिसके पिता, जिसकी दादी ने देश के लिए अपनी जान दे दी, फिर भी वह पूरे भारत में निर्भय घूम-घूमकर धूम मचा रहा है! जिस के पूरे परिवार को परेशान करने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखा गया, उस राहुल गांधी की बात को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश करते रहते हैं। उस राहुल गांधी की जिसकी पीढ़ियां लगी रही और लग गई देश काज में! जितना भी तोड़िए-मरोड़िए एक बात समझ लीजिए, सत्ता की सारी शक्तियां मिलकर भी जिस राहुल गांधी के इरादों को तोड़-मरोड़ नहीं पाई, सत्ता की जबानदराजियां उस राहुल गांधी का कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगी!

पहली बार संसद की सीढ़ियां चढ़ते समय जिस आंख में पानी भर आया था, उस आंख का पानी मर गया है। भारत विविध ही नहीं, विचित्र भी है। भारत के लोकतंत्र के महासागर को तालाब में बदल दिया गया है। रगों में बहनेवाले खून के पानी बन जाने से पहले, ‎ ‎इस तालाब का पानी ‎बदलना जरूरी है। ‎फिर कहूं, इस तालाब का पानी बहुत विषैला हो गया है। इस तालाब का पानी बदलना जरूरी है।

2024 के आम चुनाव में क्या होगा? सतरू (सत्तारूढ़) पक्ष अपनी सत्ता बरकरार रखेगा या विपक्ष का गठबंधन सत्ता संभालेगा! यह सवाल तो महत्वपूर्ण है ही, उस से अधिक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि बेपटरी हो चुके भारत के लोकतंत्र का क्या होगा? इन दिनों भारत के लोकतंत्र की आंख में सपनों का ज्वार-भाटा उठ रहा है। इस ज्वार को समझना होगा इस भाटा पर नजर रखनी होगी।

अपनी ही आवाजों की अनुगूंजों में घिरे लोगों की आंख में खट से खटक जाती ही ‎कोई आवाज तो वह बेचैनी से भर जाता है। सपनों में हकीकत और हकीकत में ‎सपनों का तांडव चलता रहता है। जी, सत्ता तो आती, जाती रहती है। फिर याद कर लें, भारत के लोग धन विपन्नता से अधिक भाव विपन्नता से पीड़ित होते हैं। ‎

अभाव से अधिक अन्याय से उतप्त और उत्पीड़ित होते हैं। इतना बड़ा छलाघात और भावाघात ‎इसके पहले इस देश को कभी नहीं लगा था। इससे उबरना देश को है। बचाना तो ‎देश को है। कौन बचायेगा? जनता बचायेगी देश को। भारत के लोकतंत्र के लोकमन में है आशा कि वह किरण, जो अंत में उसे तंत्र के हर अंधेरे के पार ले जाती रही है। लोक बचायेगा लोकतंत्र को। ‎

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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