बुंदेलखंड और गोमती से सरयू के अलावा बीजेपी के पास कोई राह नहीं

पहले चरण से सत्तारूढ़ भाजपा को जो उम्मीद थी, उसके अनुरूप प्रदर्शन कहीं न कहीं चूक गया है। यह स्पष्ट हो गया है कि 58 में से पिछली बार 53 सीटों पर भारी जीत के बाद यदि प्रदर्शन 50% या उससे भी कम आने की संभावना है तो आगे की डगर और भी कठिन होने जा रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि दूसरे चरण के चुनावों में दिल्ली का प्रभाव क्षेत्र कम होते जाता है, और सपा सहित अन्य पिछड़े समुदाय का बढ़ता प्रभाव यहाँ पर स्पष्ट नजर आता है।   

यह देश में पहला चुनाव होने जा रहा है, जहाँ पर मोदी के चेहरे पर भाजपा चुनाव नहीं लड़ रही है। 2017 के बाद से योगी का व्यक्तित्व इतना विराट नजर आता है कि उसमें मोदी के लिए जगह ही नहीं बनती, और यदि जो थोड़ी-बहुत बनती भी, उसे केंद्र ने राज्य सरकार के मुखिया को हिलाने की नाकाम कोशिश के बाद छोड़ दिया। योगी ने किसान आंदोलन के नेताओं को खुलेआम कहा था कि लखनऊ आयेंगे तो भूल जायें कि यह दिल्ली है। लखनऊ, लखनऊ है यहाँ पर कानून का राज चलता है। इशारा स्पष्ट था, इसलिए लोग जानते हैं कि यदि सरकार भाजपा की आती है तो कैसे दिन देखने को मिलेंगे।

पश्चिम से शुरू पहले चरण के बाद

पहले चरण के बाद राकेश टिकैत अक्सर ‘कोको फैक्टर’ का जिक्र करते हैं। उन्होंने किसी भी दल के लिए समर्थन की बात खुलकर कभी नहीं कही। लेकिन कोको की बात बार-बार दुहराते हैं। उनका इशारा चैनलों के पत्रकारों को अबूझ लग सकता है, लेकिन वे इसे अपने इलाके की प्रचलित हवा में गुम हो जाने और फिर सिर पीटने वाले सत्ता लोलुप लोगों की खिल्ली सी उड़ाते नजर आते हैं, कि चुनाव परिणाम ही आपको असली रिजल्ट में किसानों की वोट की चोट को बतायेंगे। किसान आंदोलन और केंद्र के दिए घाव अभी सूखे भी नहीं थे, कि पहले चरण के बीच ही गृहराज्य मंत्री टेनी के बेटे को जमानत मिल गई। इस घटना ने किसानों को एक बार फिर से अपनी भवें तानने के लिए मजबूर कर दिया है। मृतक किसानों को मुआवजा तो मिला है, लेकिन कानून वापसी के बाद भी उन्हें केंद्र पर भरोसा नहीं हो रहा है। कईयों का मानना है कि 5 राज्यों के चुनावों के बाद केंद्र सरकार अपनी असली पहचान दिखाएगी। ऐसे में आर-पार की लड़ाई के लिए किसान तैयारी में जुटने जा रहे हैं।

गुर्जरों में भाजपा की अच्छी खासी पकड़ बनी हुई है। लेकिन एक घटना ऐसी भी हुई जिसमें रालोप नेता के गुर्जर मिहिर राज की प्रतिमा के अनावरण में शामिल गुर्जरों के 400 लोगों पर प्राथमिकी दर्ज कर दिए जाने के कारण इसका परिणाम अपेक्षित नहीं रहा। फिर मिहिर भोज राज को गुर्जर समाज अपने जाति का गौरव मानता है, जिनकी विशालकाय मूर्ति पर उन्हें गुर्जर न लिखने और कहीं न कहीं क्षत्रियों के द्वारा अपनाने के विरोध में गुस्सा फूटा था, जिसे बाद में ठीक कर लिया गया था लेकिन दादरी सहित कई क्षेत्रों में उसका असर देखने को मिल सकता है।

इसी प्रकार ‘गर्मी उतार देंगे’ वाले जुमले, जिसे कैराना के संदर्भ में योगी जी ने कहा था, पर मुस्लिम नेताओं और सपा के बजाय चुनौती के तौर पर रालोद नेता जयंत चौधरी ने अपने ऊपर लिया, और इसे जाटों के स्वाभिमान से जोड़ दिया। इसका नतीजा बड़े पैमाने पर जाट बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान में नजर आया।

ओवैसी फैक्टर जितनी तेजी से आया था, उतनी ही तेजी से गायब हो चुका लगता है। इसके साथ ही मुस्लिम एकमुश्त वोट इस बार सपा और उसके सहयोगी गठबंधन के खाते में जा रहा दिखता है। कुछेक सीटों पर बसपा यदि मजबूत है, और कुछ सीटें निकाल सकती है तो ये वही सीटें हैं जहाँ पर उसने बेहद दमदार मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है, जहाँ वे अपने बल पर जीत की दहलीज तक पहुँचते रहे हैं। इसके अलावा इस बार जाटव वोटों में भी कुछ हिस्सा बसपा से छिटककर सपा की झोली में जा रहा है। इसके पीछे परंपरागत रूप से केंद्र और राज्य की नौकरियों में मिलने वाले आरक्षण में इस दौरान न सिर्फ भारी कमी, बल्कि कहीं न कहीं उसके खात्मे के साथ उनके एक बार फिर से किनारे लगा दिए जाने और बढ़ते हिंदुत्व के प्रभाव और ब्राह्मणवाद के हावी होते जाने में है। मायावती को इस बार सपा की राह में सबसे बड़े रोड़े के रूप में देखा जा रहा है। स्पष्ट है कि 41% वाले पिछले वोट आधार से भाजपा के 10% तक की कमी में यदि 22% के वोट बेस वाले सपा को बढ़त बनानी है तो उसे बसपा के वोट बेस से कम से कम 5-7% वोट की दरकार रहेगी, इसके बिना वह पूर्ण बहुमत के आंकड़े से दूर ही रह जाने वाली है। शायद इसी को ध्यान में रखकर एक बार फिर से मायावती के हाथी को चुपके लेकिन सधी चाल से बढ़ता हुआ राष्ट्रीय तथाकथित नॉएडा पत्रकारों के द्वारा प्रचारित किया जा रहा है।   

नौजवान इस बार किसके साथ हैं?

पश्चिमी यूपी में बड़ी संख्या में नौजवान सेना और अन्य केन्द्रीय बलों की भर्ती के अलावा पुलिस की प्रतीक्षा में रहते हैं, इनमें से लाखों युवा पिछले दो साल से भर्ती परीक्षा के रुके होने से बेहद खफा हैं। इनके ओवरएज होने और उसकी कगार पर पहुँच जाने से भारी गुस्सा बना हुआ है, ये रालोद और सपा के लिए सबसे बड़े प्रचारक बने हुए हैं।

वहीँ पूर्वी यूपी में प्रयागराज में पिछले दिनों रेलवे की ग्रुप डी में पिछले 3 साल से भर्ती में अनियमितता और विभिन्न पदों पर एक ही उम्मीदवार के चयनित किये जाने से हजारों की संख्या को स्वतः कम कर देने के विरोध में हुए समूचे बिहार और प्रयागराज में युवाओं के गुस्से से पुलिस प्रशासन द्वारा निपटान किया गया, उसने पहले से आक्रोशित गुस्से को मानो भाजपा आरएसएस के खिलाफ पूरी तरह से मोड़ दिया है। जिसका सीधा-सीधा फायदा साइकिल के पक्ष में जाता दिख रहा है।

5 किलो लाभार्थी बनाम सांड द्वारा सारी फसल चौपट

सत्तारूढ़ सहित विपक्ष जिस एक मुद्दे को हवा नहीं दे रहा है, वह मुद्दा असल में पूरे उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी टीस बना हुआ है। यह सच है कि कोरोना के चलते बड़ी संख्या में केंद्र सरकार की ओर से लंबे समय से 5 किलो प्रति व्यक्ति की दर से अत्यंत गरीब वर्ग को मुफ्त राशन दिया जा रहा है, जिसे लाभार्थी कैटेगरी के रूप में एक नया वर्ग इस बीच खड़ा कर दिया गया है। पिछले कुछ दशकों से भाजपा, आरएसएस ने जिस मनरेगा और राशन कार्ड के जरिये गरीबों, वंचितों के सशक्तिकरण को भीख बताया गया था, आज असल में यूपी में उसी के बल पर सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाई जा रही है।

बड़ी संख्या में इन लाभार्थियों का डेटाबेस लेकर भाजपा कार्यकर्ता उत्तरप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में जा रहे हैं, और उनसे इसके बारे में उनसे पूछताछ कर रहे हैं। ऐसे ही एक दलित इलाके में जब मौजूदा भाजपा विधायक ने दलित टोले में जाकर पूछताछ की तो उसका मिला जवाब विधायक उम्मीदवार को जल्द ही वहां से वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया।

आवारा मवेशियों से किसान सबसे अधिक हैरान-परेशान रहे। यह मुसीबत उन्हें पिछले चार साल से दिन का चैन और रातों की नींद हराम करने के लिये काफी रही। पिछले कुछ समय से संपन्न किसानों ने कुछ खेतों में तारों के बाड़ अवश्य लगा दिए हैं, और कईयों ने तो अपनी फसल का पैटर्न ही बदल डाला है।

प्रशासनिक धांधली

एक निर्वाचन क्षेत्र में 700 मतदाता नामांकित थे। लेकिन बूथ पर सिर्फ 200 लोगों के ही नाम थे, अर्थात 500 मतदाताओं को उनके मताधिकार से वंचित कर दिया गया, वह भी वोट के जरिये लोकतंत्र की दुहाई देने वाले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का।

इसके अलावा साहिबाबाद विधानसभा क्षेत्र में कई चुनाव केन्द्रों पर बुजुर्गों के वोट पता चला पहले ही बैलट पत्रों के जरिये निर्वाचन आयोग को प्राप्त होने की सूचना है। इन सबमें से कई खबरों को लाइव कई राष्ट्रीय मीडिया के चैनलों ने प्रसारित किया है। पता चला है कि रालोद-सपा ने चुनाव आयोग की इस संदिग्ध भूमिका पर पहले से ही विचार किया हुआ था, और उसने लगभग 10,000 मतों को फैक्टर करने की बात अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं के बीच रखी थी, अर्थात कम से कम 15,000 से ऊपर विपक्षी दल से जीत का अंतर रखने का कार्यभार दे रखा है।

पूर्वांचल का इलाका सबसे विस्फोटक रूप ले सकता है

चुनावी समर में जाने की तैयारियों में ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस बार चुनावी चरण की शुरुआत की जानी थी। इसी को ध्यान में रखते हुए बनारस को केंद्र करते हुए विश्वनाथ कोरिडोर सहित तमाम चुनावी घोषणाओं के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार अपना कार्यक्रम रखा था। माना जा रहा था कि इससे एक बार फिर से न सिर्फ बनारस की सभी 8 सीटों की जीत को सुनिश्चित कर लिया जायेगा, बल्कि इसे भव्य आयोजन की झलक से समूचे प्रदेश और खासकर गाजीपुर, बलिया, देवरिया सहित चंदौली, मिर्जापुर, सोनभद्र और जौनपुर जैसे जिलों में जादुई प्रभाव बनाया जा सकता है। ऐसा दिखा भी, और लगा कि जैसे इस भव्य आयोजन ने लोगों की आँखों को पूरी तरह से चकाचौंध कर दिया है।

लेकिन इसी बीच बनारस में बिना किसी पूर्व तैयारी के प्रियंका गाँधी की एक विशाल सभा और गाजीपुर से लखनऊ तक चली अखिलेश यादव की रैली में जिस प्रकार से अभूतपूर्व संख्या में लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा, उसने सत्तारूढ़ दल का चैन उड़ा दिया और अचानक से पूर्वी उत्तरप्रदेश की जगह हवा को पश्चिमी यूपी से बहाने की तैयारी की जाने लगी। माना जाता है कि किसी भी टेस्ट मैच में यदि ओपनिंग बल्लेबाज टिक कर एक मजबूत आधार देने में सफल रहते हैं, तो उसके आधार पर मध्य क्रम और पुछल्ले बल्लेबाज भी धुआंधार बल्लेबाजी का प्रदर्शन करने के लिए माकूल अवसर पा जाते हैं, और ऐसी लीड बन जाती है जिससे सामने वाला मन ही मन में हार जाता है।

वैसे भी राष्ट्रीय राजधानी से सटे इलाके में गाजियाबाद नोएडा और मेरठ, मोदीनगर के इलाके हैं, जहाँ पर शहरी मतदाताओं का बड़ा आधार है और भाजपा के लिए अथाह जनसमर्थन रहा है। लेकिन गाजियाबाद और नोएडा को छोड़ दें तो जैसे-जैसे यूपी के विशाल क्षेत्रों की ओर बढ़ते हैं, यह रंग उतरने लगता है।

कांग्रेस और प्रियंका का जमीनी आधार तलाशने की मुहिम

पिछले दो वर्षों से यूपी में यदि किसी राजनैतिक दल ने आँख में आँख डालकर यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार के सामने मुकाबला किया है तो वह कांग्रेस रही है। उसके सामने सबसे बड़ी समस्या यही रही है कि उसने पिछले 3-4 दशकों से सिर्फ अपने समर्थन आधार को एक-एक कर गंवाने का ही काम किया, और उस बारे में कभी ध्यान नहीं दिया। लोकसभा चुनावों में उसे ठीक-ठाक सीटें आज से 10 साल पहले तक मिल जाती थीं, और उसके पास मिली-जुली सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत मिल जाता था। लेकिन पिछले दो लोकसभा चुनावों में एक में दो सीट और पिछली बार तो सिर्फ एक सीट और वह भी सिर्फ गाँधी परिवार को मिलने के बाद, अब जाकर कांग्रेस को समझ में शायद आया है कि उसके लिए देश में दुबारा कभी सत्ता में आने का सपना, सपना ही रह जाने वाला है यदि उसने यूपी में अपना जमीनी आधार खड़ा नहीं किया।

शायद यही वजह है कि चुनावी मौसम में मौसमी नेता के रूप में जहाँ राहुल प्रियंका नजर आते थे, प्रियंका को राष्ट्रीय महासचिव बनाकर उन्हें सिर्फ यूपी पर ही केंद्रित रहने की जिम्मेदारी दी गई। भले ही इस चुनाव में कांग्रेस कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं लाने जा रही है, लेकिन महिलाओं के मुद्दों पर कांग्रेस ने इसे ऐसा मुद्दा बना दिया है जो महिलाओं के सशक्तिकरण और आधी आबादी को एक वोटर के तौर पर पहचाने जाने को लगातार मजबूत करेगा। इसके साथ ही साथ अपने पुराने समर्थक आधार से जुड़ने और स्थानीय स्तर पर संगठन निर्माण और यूपी में कांग्रेस वापस जमीन पर आ गई है, इस आईडिया को सामने रखने से बसपा की मायवती के नेपथ्य में जाने को देखते हुए एक खाली स्थान नजर आता है, जिसे यदि कांग्रेस भरने में सफल रहती है तो उसके लिए यूपी ही नहीं दिल्ली में वापसी का स्थान बनने लगता है। पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी की सफलता इस मायने में आगे बड़े काम की होने जा रही है।

सपा नेता अखिलेश पहले चरण के संभावित नतीजों से स्पष्टतया खुश नजर आते हैं, क्योंकि यह असली टेस्ट था। 7 चरण के चुनाव में भाजपा बनाम भाईचारे की इस लड़ाई में गंगा का मैदानी क्षेत्र नहीं, बल्कि असली चुनौती अवध के गोमती से लेकर सरयू के बीच में जताई जा रही है। चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के स्टार प्रचारकों की भाषा में तल्खी पर बोलते हुए अखिलेश यादव कहते हैं, “यह उनकी हार की बौखलाहट है। कुश्ती हारने वाला पहलवान कई बार अपने प्रतिद्वंद्वी को काटने लगता है, नोचने लगता है। यही हाल भाजपा के नेताओं का भी है। उन्हें पता है कि भाजपा का पश्चिम से सूरज अंत होना तय है, और पहले चरण से इसका संदेश उन्हें चला गया है। जैसे-जैसे आगे के चरणों का मतदान होगा, भाजपा का सफाया होता चला जायेगा। तीसरे चरण में मैं खुद वोट करूंगा, और बलिया, गाजीपुर जाते-जाते भाजपा नेता पस्त हो जायेंगे।”

देखना दिलचस्प होगा, क्योंकि सुनने में आ रहा है कि मार्च के पहले सप्ताह एक बार फिर से पीएम मोदी बनारस में 3 दिनों तक दिन-रात कैंप करने जा रहे हैं। बताया जा रहा है कि बनारस शहर में ही कई उथल पुथल चल रही है। दसियों लाख की संख्या में बुनकरों के शहर बनारस और मल्लाहों की कश्ती से गंगा आरती और विहंगम दृश्य को देखने के लिए दुनिया भर से आने वाले पर्यटकों, तीर्थयात्रियों के साथ सदियों से इसके घाटों पर ही जीने मरने वाले मल्लाहों की बस्तियों के हाल कुछ और ही गवाही दे रहे हैं। पिछले चार दशकों से बनारस शहर के चप्पे चप्पे से परिचित और गंगा की हर हलचल पर बारीक निगाह रखने वाले सेवानिवृत्त पत्रकार सुरेश प्रताप सिंह के शब्दों में, “बनारस शहर दक्षिणी विधानसभा के चुनावी दंगल में सूरमा अखाड़े में आ गये हैं। विकास बनाम धरोहर के बीच में होगी सीधी टक्कर।”

इसका सही-सही अर्थ बनारस को जानने वाले लोग ही बता सकते हैं, जहाँ पीढ़ियों से आबाद संकरी गलियों में बसे अनगिनत किस्से-कहानियों और किंवदंतियों को क्योटो के नाम पर मटियामेट कर दिया गया है, उसके भग्नावशेष और शिव लिंगों को गंगा के किनारे आज भी दफन किये जाने की प्रक्रिया जारी है। उस विकास की गहरी मार खाए पंडो, पुजारियों, मल्लाहों के लिए धरोहर को बचाने की लड़ाई आज बनारस के शहर दक्षिणी में प्रमुखता से उभरने लगी है, जिसने देश की वीवीआईपी सीट को ही अस्थिर कर डाला है। भले ही 2022 का चुनाव योगी के लिए जीवन—मरण का प्रश्न हो, मोदी के लिए तो अभी से 2024 की तपिश महसूस होने लगी है। 2024 का लोकसभा चुनाव 10 मार्च के बाद से ही सुर्ख़ियों में होने जा रहा है, लेकिन इतना तय है कि यह बात रह-रहकर चुनावी समीक्षकों ही नहीं देश के जन-गण-मन को झकझोरने जा रही है।

(रविंद्र सिंह पटवाल लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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