पुस्तक समीक्षाः देश के लोग हैं असल ‘भारत माता’

वर्तमान लोकतांत्रिक भारत राष्ट्रवाद के जिस रास्ते पर चल रहा है, उसमें ‘भारत माता’ के नाम का इस्तेमाल असहमति रखने वाले अपने ही नागरिकों को प्रताड़ित करने के लिए किया जा रहा है। आखिर कौन हैं ये भारत माता? यह सवाल देश की जनता से साल 1936 में एक सभा में जवाहरलाल नेहरू ने किया था। तो जाहिर है, नेहरू के जरिए ही इस बात को समझा जा सकता है और नेहरू को समझने के लिए उनके लेखों या उनके बारे में लिखे गए लेखों के जरिए ही समझा जा सकता है। राजकमल प्रकाशन से आई किताब ‘कौन हैं भारत माता?

इतिहास, संस्कृति और भारत की संकल्पना’ यह समझाने के लिए एक बेहद जरूरी किताब है जिसका संपादन प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने किया है। यह किताब अंग्रेजी में दो साल पहले आई ‘हू इज भारत माता?’ का हिंदी अनुवाद है, जिसे पूजा श्रीवास्तव ने किया है। यह किताब भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विचारों का संकलन है और साथ ही इसमें देश के निर्माण में नेहरू की भूमिका और योगदान पर लिखे गए कई विभूतियों के लेख भी शामिल हैं। इस किताब के कवर पर इतिहासकार रामचंद्र गुहा की यह टिप्पणी भी बहुत महत्वपूर्ण है कि नेहरू और उनकी बौधिक विरासत को समझने के लिए यह एक जरूरी किताब है। इस टिप्पणी से जाहिर है कि यह किताब नेहरू की बौद्धिक विरासत को संभालने वाली महत्वपूर्ण किताबों में शुमार है।

इस किताब में नेहरू की क्लासिक किताबों- ‘मेरी कहानी’, ‘विश्व इतिहास की झलक’ और ‘हिंदुस्तान की कहानी’ से लिए गए लेख और कुछ महत्वपूर्ण अंश भी शामिल हैं। नेहरू के भाषण अंश, उनके लिखे निबंध और पत्रों के साथ ही उनके साक्षात्कार भी इसमें शामिल हैं, जो आज हर हाल में प्रासंगिक हैं। दो खंडों में विभक्त इस एक ही किताब में पहला खंड- ‘नेहरू: देश और दुनिया’ है तो वहीं दूसरा खंड- ‘नेहरू के बारे में’ है। प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल द्वारा लिखी गई भूमिका इस किताब की जान है।

हालांकि प्रोफेसर अग्रवाल अपनी भूमिका में यह भी लिखते हैं कि यह किताब नेहरू का समग्र तो क्या आंशिक आकलन करने का भी दावा नहीं करती और इसका उद्देश्य संस्कृति, धर्म, भारतीय तथा विश्व इतिहास के बारे में नेहरू के विचारों की झलक दिखाने और उनकी भारत-संकल्पना की बुनावट को रेखांकित करने तक ही सीमित है। प्रोफेसर अग्रवाल की इस बात की तह में जाएं तो समझ में आता है कि नेहरू के विचारों का फलक कितना बड़ा है। एक राजनेता के रूप में अपनी तमाम राजनीतिक मजबूरियों के बावजूद नेहरू अगर हमेशा लोकतंत्रवादी बने रहे तो यह उनके मजबूत विचारों की बदौलत ही संभव हो सका।

ऐसे अन्यत्र उदाहरण भी कम ही मिलते हैं और यही वजह है कि हमारे इतिहास के किसी भी दौर से ज्यादा नेहरू की बौद्धिक एवं लोकतांत्रिक विरासत आज के वर्तमान भारत में सबसे ज्यादा प्रासंगिक है। यह किताब हर उस व्यक्ति को जरूर पढ़नी चाहिए जिसे लोकतांत्रिक अधिकारों से परिपूर्ण एक नागरिक होने के गहरे अर्थ को समझना हो।

सत्रहवीं शताब्दी में ही एक उभरते हुए राजनीतिक समाज के लिए ‘विचार और अभिव्यक्ति की आजादी’ को बेहद जरूरी माना जाने लगा था। आज यही ‘आजादी’ मनुष्यता की सबसे जरूरी शर्त है। इस ‘आजादी’ को अगर मनुष्यता की सबसे जरूरी शर्त के रूप में देखा जाता है, तो इसलिए क्योंकि यह ‘आजादी’ ही लोकतंत्र के मूल में है। लोकतंत्र के इसी मूल को जवाहरलाल नेहरू भी जरूरी मानते थे। इसलिए जाहिर है, ऐसे लोकतंत्र की कल्पना जवाहरलाल नेहरू के बगैर तो मुमकिन ही नहीं है।

मगर विडंबना तो यह है कि खुद को राष्ट्रवादी कहने वाले नेता आज नेहरू को बदनाम करने का अभियान चला रहे हैं और अपने हर सार्वजनिक मंचों से ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाते हुए देश की वर्तमान समस्याओं के लिए नेहरू को जिम्मेदार मान रहे हैं। वो यह भूल जाते हैं कि भारतीय राष्ट्र के निर्माण की नींव जिन खास मूल्यों पर रखी गई थी, उन मूल्यों में अभिव्यक्ति की आजादी बेहद महत्वपूर्ण मूल्य है। एक लोकतांत्रिक भारत की संकल्पना तो इस मूल्य के बगैर अधूरी ही मानी जाएगी।

अब सवाल उठता है कि जिस ‘भारत माता की जय’ के नारे का दुरुपयोग करते हुए देश की अखंडता से खिलवाड़ किया जा रहा है, आखिर उस नारे का मतलब क्या है?

सन् 1936 का वो समय था, जब स्वतंत्रता आंदोलन अपनी कामयाबी के आखिरी मरहले पर पहुंच चुका था, जिसने ग्यारह साल बाद सन 1947 में भारत को आजादी दिलाई। जैसे हर आंदोलन में कोई-न-कोई एक नारा होता ही है, उसी तरह स्वतंत्रता आंदोलन में भी ‘भारत माता की जय’ का यह नारा महत्वपूर्ण था। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े नायकों में एक रहे जवाहरलाल नेहरू देश भर में सभाएं कर रहे थे।

कई सभाओं में नेहरू का स्वागत ‘भारत माता की जय’ के नारे की गूंज से होता था। नेहरू इस बात को महसूस रहे थे कि आखिर लोग उनके पहुंचने पर भारत माता की जय के नारे क्यों लगाते हैं। अपनी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में नेहरू खुद लिखते हैं, “एक सभा में मैंने पूछा कि यह भारत माता कौन हैं, जिसकी आप लोग जय चाहते हैं? तब मेरे इस सवाल से उन्हें बड़ा ताज्जुब हुआ। उन्हें कोई जवाब नहीं समझ में आया और सब एक-दूसरे की ओर देखने लगे। कुछ देर बाद एक किसान ने जवाब दिया कि भारत माता से मतलब धरती से है। तब मैंने पूछा कि कौन-सी धरती? उसके गांव की, जिले की या राज्य की या सारे देश की धरती?

इस तरह के मेरे सवालों से वो लोग परेशान हो उठे तो कहने लगे कि आप ही बताइए। तब मैंने कहा, “बेशक ये पहाड़ और नदियां, जंगल और मैदान सबको बहुत प्यारे हैं, लेकिन जो बात जानना सबसे ज्यादा जरूरी है वह यह है कि इस विशाल भारत भूमि में फैले सारे भारतवासी ही सबसे ज्यादा मायने रखते हैं। भारत माता यही करोड़ों-करोड़ जनता है और भारत माता की जय उसकी भूमि पर रहने वाले इन सबकी जय है। आप सब लोग इस भारत माता के अंश हो, इसका अर्थ यह हुआ कि आप सब ही भारत माता हो।”

नेहरू बताते हैं कि जैसे-जैसे मेरी यह बात उस सभा में मौजूद लोगों के मन में बैठती चली गई, उन सबकी आंखों में एक चमक आती गई और ऐसा लगने लगा जैसे उन्होंने कोई बड़ी खोज कर ली हो, लेकिन बीते कुछ सालों से देश भर में राजनीतिक मंचों से राष्ट्रवाद की अवधारणा और भारत माता की जय के नारे का दुरुपयोग देखने को मिल रहा है और ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि देश में अतिवादी विचार बढ़े और सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाले लोग वोट की छद्म राजनीति कर सकें। इनके भारत माता की संकल्पना में भारत के ही नागरिकों के लिए कोई जगह नहीं है, इनके लिए भारत माता सिर्फ वही लोग हैं जो इन्हें वोट देते हैं या इनका समर्थन करते हैं।

एक मजबूत लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है कि उसका प्रधान नेता अपनी जनता का सम्मान करने वाला हो, क्योंकि छद्म रूप धारण किए हुए एक मजबूत नेता के निरंकुश होने की संभावना सबसे ज्यादा रहती है। इसकी मिसाल हिटलर है जो खुद को सबसे मजबूत नेता मानता था और उसने देखते ही देखते जर्मनी को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया। किसी भी नेता द्वारा अपनी ही जनता को देशद्रोही बताने का अर्थ है कि खुद वह नेता ही देश के लिए खतरा है, क्योंकि भारत की करोड़ों जनता ही भारत माता है और भारत माता की जय बोल कर अपने ही देश की जनता को इसलिए देशद्रोही मान लेना, क्योंकि वह वैचारिक स्तर पर उसका समर्थन नहीं करती, लोकतंत्र को ध्वस्त करने वाला विचार है।

इस ध्वस्त होते लोकतंत्र को नेहरू की बौद्धिक विरासत ही बचा सकती है, इसमें कोई शक नहीं है, क्योंकि भारत माता की जय बोलकर आप से सहमति रखने वाले नागरिकों के अधिकारों पर आप कुठाराघात नहीं कर सकते। यह राष्ट्रवाद नहीं है। असली राष्ट्रवाद है देश के नागरिकों से प्रेम करना और हर हाल में उनके बीच सौहार्द को बढ़ावा देना। इसलिए नागरिकों के अधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों को समझने के लिए इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए।

  • वसीम अकरम

(वसीम अकरम युवा लेखक हैं।)

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