उप-चुनाव नतीजे भाजपा के लिए बड़े खतरे की घण्टी

देश के 6 राज्यों में हुए 7 विधानसभा उपचुनावों के नतीजों ने साफ संकेत दे दिया है कि देश में हवा का रुख तेजी से बदल रहा है। गौरतलब है कि ये चुनाव देश के बिल्कुल अलग इलाकों में हुए हैं जिनसे एक राष्ट्रीय ट्रेंड का संकेत मिलता है। जाहिर है, लोकसभा और 5 महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों के ठीक पहले आये इन नतीजों के गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं।

पूर्वोत्तर के त्रिपुरा की 2 सीटों के अपवाद को छोड़ दिया जाए तो उत्तराखंड में भी भाजपा सहानुभूति लहर के बावजूद 2 हजार के छोटे अंतर से बमुश्किल जीत पाई। बाकी सब जगह उसे हार का मुंह देखना पड़ा।

अपने शासन वाले इन दो छोटे राज्यों त्रिपुरा और उत्तराखंड की अपनी ही सीटों को फिर से जीतने में भाजपा भले कामयाब रही, पर पश्चिम बंगाल, केरल, झारखंड और सर्वोपरि अपने सबसे मजबूत गढ़ उत्तर प्रदेश में उसे जैसी हार का सामना करना पड़ा है, वह आगामी लोकसभा चुनावों के लिए उसके लिए बड़े खतरे की घण्टी है।

कर्नाटक चुनाव से बनी इस धारणा को केरल के नतीजों ने पुष्ट किया है कि दक्षिण भारत से भाजपा का पूरी तरह “खदेड़ा” होने जा रहा है। कांग्रेस के दिग्गज ओमन चांडी की मृत्यु से खाली हुई केरल की सीट पर उनके बेटे चांडी ओमन ने सीपीएम प्रत्याशी को हराकर जीत दर्ज की।

बहरहाल वहां असली खबर यह है कि इस ईसाई बहुल सीट पर अपने outreach प्रोग्राम और भारी कोशिशों के बावजूद भाजपा का 2011 के बाद का सबसे खराब प्रदर्शन इस चुनाव में हुआ है। उसे मात्र 6558 वोट मिला है जो 2021 के 11694 से भी आधा है। बताया जा रहा है कि इसमें एक तात्कालिक फैक्टर मणिपुर में कुकी ईसाई समुदाय का बर्बर दमन भी बना है, जहां भाजपा सरकार की संलिप्तता से हत्या, बलात्कार के साथ ही सैकड़ों चर्च जलाने की घटनाएं भी हुई हैं।

बहरहाल, मूल सन्देश यही है कि दक्षिण की जनता ने संघ-भाजपा की नफरती, विभाजनकारी, हिंदी-हिन्दू-हिंदुस्तान की राजनीति को अस्वीकार कर दिया है और दक्षिण 2024 के लिए इंडिया गठबंधन का अभेद्य दुर्ग बनता जा रहा है।

झारखंड की डुमरी सीट पर पूर्व मंत्री स्व. जगरनाथ महतो की पत्नी बेबी देवी ने भाजपा समर्थित आजसू प्रत्याशी यशोदा देवी को 17000 मतों के अंतर से हरा दिया। यह जीत बेहद महत्वपूर्ण है, झारखंड में भाजपा पूर्व मुख्यमंत्रियों एवं प्रभावशाली आदिवासी नेताओं बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा को एक साथ लाकर ताल ठोंकती रही है और एजेंसियों की मदद से हेमंत सोरेन सरकार को गिराने तथा अपनी सरकार बनाने की कवायद में लगी रहती है। बहरहाल अब तक की उसकी उसकी सारी कोशिशें नाकाम हुई हैं और वहां गठबंधन की सरकार बदस्तूर कायम है।

दरअसल यह जीत INDIA गठबंधन की जीत है, जहां कांग्रेस और भाकपा माले समेत तमाम दलों ने जीत के लिए जीतोड़ कोशिश की थी और जोरदार प्रचार अभियान चलाया था। ज्ञातव्य है कि गिरिडीह-कोडरमा क्षेत्र भाकपा माले के आंदोलन का लंबे समय से गढ़ रहा है, यहां की बगोदर सीट पर भाकपा माले के चर्चित जननेता स्व. महेन्द्र सिंह कई बार विधायक रहे थे और अब उनके पुत्र विनोद सिंह वहां के लोकप्रिय विधायक हैं। झारखंड में यह जीत संकेत है कि लोकसभा चुनाव में जहां अब गठबंधन में झामुमो, कांग्रेस, राजद, माले व अन्य वाम दलों के साथ ही नई भूमिका में उभरते नीतीश कुमार का जदयू भी शामिल है, भाजपा की राह मुश्किल होती जा रही है।

एक समय भाजपा का मजबूत गढ़ माने जाने वाले उत्तरी बंगाल/ जलपाईगुड़ी अंचल की धूपगुरी सीट पर भाजपा जिस तरह अपनी पुरानी जीती हुई सीट हार गई है, उसका सन्देश बिल्कुल स्पष्ट है, उससे फिर इसी निष्कर्ष की पुष्टि हुई है कि विधानसभा चुनाव से भाजपा के जिस ” खदेड़ा होबे” की शुरुआत हुई थी वह परिघटना/ प्रक्रिया अंजाम तक पहुंचने वाली है और 2024 में भाजपा प. बंगाल में एक बड़ी पराजय की ओर बढ़ रही है।

यहां भाजपा ने चुनाव को भावनात्मक रंग देने के लिए जम्मू कश्मीर में आतंकी हमले में मारे गए सीआरपीएफ (CRPF) जवान की पत्नी को टिकट दिया था, लेकिन बंगाल में पिछले दिनों की अपनी दूसरी पराजयों की श्रृंखला में भाजपा इस उपचुनाव में अपनी सीट नहीं बचा सकी जबकि इंडिया गठबंधन के दल अभी एक साथ मिलकर लड़े ही नहीं, बल्कि आमने-सामने थे। 2024 में जब वे एक कॉमन रणनीतिक अंडरस्टैंडिंग के साथ लड़ेंगे तो परिणाम का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। बंगाल में जहां भाजपा को 2019 में 18 सीटें मिल गयी थीं, वहां सीटों में बड़ी गिरावट उसके लिए 2024 में भारी मुसीबत का सबब बन सकती है।

बहरहाल भाजपा की दृष्टि से सबसे विध्वंसक नतीजा देश में उनके सबसे मजबूत गढ़ यूपी से आया है। देश का सबसे बड़ा राज्य यूपी, जहां पहले ही भाजपा गठबंधन की 80 में से 64 सीटें हैं, वह इकलौता राज्य है जहां मोदी-योगी के ‘संयुक्त करिश्मे’ के बल पर भाजपा सीटों के घटने की बजाय बढ़ने की चर्चा होती है! गोदी मीडिया में उनके समर्थक विश्लेषक और चुनावी सर्वे इस बार भाजपा की सीटें बढ़कर 2014 की 73 सीटों या उसके भी ऊपर पहुंचने की भविष्य वाणी करते हैं!

पिछले दिनों अमित शाह ने अतिपिछड़े समुदाय के प्रभावशाली नेताओं ओम प्रकाश राजभर और दारा सिंह चौहान को, जो विधानसभा चुनाव के समय विपक्ष के साथ चले गए थे, पुनः अपने साथ जोड़कर और पुनर्गठित एनडीए की बैठक में शामिल कराकर एक तरह से इन भविष्यवाणियों पर मुहर लगा दी थी।

बहरहाल, इन अतिपिछड़े नेताओं के गढ़ पूर्वांचल की घोसी सीट पर जहां स्वयं दारा चौहान अपनी ही खाली की हुई सीट चुनाव लड़ रहे थे और ओम प्रकाश राजभर ने उनके सारथी के बतौर जिसे अपनी प्रतिष्ठा की लड़ाई बना लिया था, वहां भाजपा को 43 हजार से अधिक अंतर से बड़ी हार का सामना करना पड़ा है। ज्ञातव्य है कि यही पूर्वांचल स्वयं योगी आदित्यनाथ की कर्मभूमि और उनकी ताकत का सबसे बड़ा आधार है।

जाहिर है इस चुनाव को जीतने के लिए भाजपा ने पूरी ताकत झोंक दी थी, सरकार के दर्जनों मंत्री, दोनों उपमुख्यमंत्री, उनके सभी सहयोगी दलों के नेता, राज्य के तमाम इलाकों से संघ-भाजपा के सैकड़ों कार्यकर्ता वहां कैम्प किये रहे, स्वयं योगी ने रैली की। सरकारी मशीनरी का जमकर दुरुपयोग किया गया। यहां तक कि चुनाव के दिन विपक्ष के कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को विशेषकर अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में डराने/धमकाने और मतदान से रोकने की कोशिश की गई। लेकिन प्रबल जनभावना और एकजुट विपक्ष के प्रतिरोध के आगे यह सारी कवायद धरी रह गयी और भाजपा बड़े अंतर से चुनाव हार गई। जाहिर है ऐसी सर्वांगीण और निर्णायक पराजय का मूल कारण महज कुछ स्थानीय या तात्कालिक कारक नहीं ही सकते।

भाजपा के लिए यह सचमुच बड़े खतरे की घण्टी है और उनके नेताओं की नींद उड़ा देने के लिए पर्याप्त है कि जिस सवर्ण समुदाय को वह अपना मूल मतदाता मानती है, उसमें विपक्ष ने भारी सेंधमारी कर दी और जो अतिपिछड़े समुदाय 2014-17 से आज तक यूपी में उनके अभूतपूर्व उभार के सबसे मजबूत स्तम्भ बने हुए थे, उनके बीच विभाजन पैदा कर, उनके एक हिस्से को जीतने में विपक्ष कामयाब रहा। बसपा चुनाव मैदान में नहीं थी और अंतिम क्षणों में बसपा सुप्रीमो ने नोटा बटन दबाने या मतदान से अलग रहने की अपील की। बहरहाल नतीजों से साफ है कि अधिसंख्य दलित समुदाय के मतदाताओं ने नोटा दबाने, घर बैठ जाने अथवा भाजपा के लिए मतदान करने की बजाय विपक्षी उम्मीदवार को पसंद किया।

पहचान की राजनीति करने वाले अवसरवादी नेताओं की साख खत्म हो रही है। चुनाव नतीजों से यह भी संकेत मिलता है कि जनता आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की सीमाओं और पाखंड को समझने लगी है और जनता पर उसकी पकड़ ढीली हो रही है।

योगी सरकार घोसी को रामपुर के नए मॉडल के रास्ते पर ले जाने, उसी तर्ज़ पर सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर मुसलमानों को मतदान से रोकने में सफल नहीं हो पाई। यह मुस्लिम अवाम के प्रतिरोध, विपक्ष के जुझारू तेवर और प्रतिरोध तथा बदले सामाजिक संतुलन के कारण सम्भव हुआ। चुनाव में कोई साम्प्रदायिक पहलू उभारकर भाजपा मुसलमानों को अलग-थलग नहीं कर पाई।

घोसी चुनाव के नतीजे बसपा सुप्रीमो तथा अतिपिछड़े समुदाय के नेताओं को एक बार फिर 2024 की अपने रणनीति पर पुनर्विचार के लिए मजबूर कर सकते हैं, आने वाले दिनों में प्रदेश में एक नया राजनीतिक ध्रुवीकरण आकार ले सकता है। यूपी में नीतीश कुमार और मल्लिकार्जुन खड़गे की सक्रियता बढ़ती है तो इस प्रक्रिया को बल मिल सकता है।

सटीक रणनीति द्वारा विपक्ष घोसी मॉडल को लोकसभा चुनाव में प्रदेश के अन्य इलाकों में दोहरा सका तो भाजपा के लिए बड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है और यूपी का उसका अभेद्य लगने वाला किला दरक सकता है। यदि ऐसा हुआ तो दिल्ली से मोदी जी की विदाई तय हो जाएगी।

घोसी तथा अन्य चुनाव नतीजों का सन्देश बिल्कुल साफ है। मोदी-योगी, हिंदुत्व का तिलस्म टूट रहा है। महंगाई, बेरोजगारी, आर्थिक बदहाली से पैदा जिंदगी के असल सवाल भारी पड़ रहे हैं। जनता के अंदर गहरी बेचैनी है। जमीन पर भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ जबर्दस्त मौन आक्रोश खदबदा रहा है, सटीक रणनीति द्वारा एकताबद्ध विपक्ष ने उसे राजनीतिक स्वर दिया, तो वह आने वाले दिनों में सुनामी का रूप ले सकता है जो मोदी-शाह की अपराजेय लगने वाली सत्ता को बहाकर ले जाएगा।

लगता है मोदी-शाह को इसका पूर्वाभास हो गया है। “एक राष्ट्र, एक चुनाव” की कवायद के माध्यम से संविधान से छेड़छाड़ और चुनाव टालकर अपने मनोनुकूल समय पर करवाने जैसी आशंकाएं गहराती जा रही हैं। बहरहाल, भाजपा को सत्ता से हटाने का मन बनाती जा रही जनता ऐसे किसी अधिनायकवादी दुस्साहस को स्वीकार नहीं करेगी।

(लाल बहादुर सिंह, पूर्व अध्यक्ष, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ।)

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