सुप्रीम कोर्ट का फैसला: चीफ जस्टिस भी होंगे आरटीआई के दायरे में

देश के चीफ जस्टिस  का दफ्तर अब सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून के दायरे में आएगा।उच्चतम न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में बुधवार को कहा कि चीफ जस्टिस का दफ्तर सार्वजनिक प्राधिकरण है, इसलिए यह सूचना के अधिकार (आरटीआई) के दायरे में आएगा। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुआई वाली 5 जजों की पीठ ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने आदेश में चीफ जस्टिस के पद को आरटीआई कानून की धारा 2(एच) के तहत ‘पब्लिक अथॉरिटी’ करार दिया था। इसे सूचना के अधिकार कानून की मजबूती के लिहाज से बड़ा फैसला माना जा रहा है। उच्चतम न्यायालय  ने कहा कि सभी जज आरटीआई के दायरे में आएंगे। इससे न्यायिक स्वायत्तता, पारदर्शिता मजबूत होगी। इससे ये भाव भी मजबूत होगा कि कानून से ऊपर कोई नहीं है, उच्चतम न्यायालय के जज भी नहीं हैं।

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब हम पारदर्शिता की बात करें तो न्यायिक स्वतंत्रता को ध्यान में रखना चाहिए। चीफ जस्टिस ने यह भी कहा कि कॉलेजियम ने जिन जजों के नामों की अनुशंसा की है, उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। लेकिन इसके कारणों को बताया जा सकता है। जजों को नियुक्ति की प्रक्रिया न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर असर डालती है। आरटीआई को निगरानी के उपकरण के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

उच्चतम न्यायालय  ने कहा कि कालेजियम के द्वारा सुझाए गए जजों के नाम ही सार्वजनिक किए जा सकते हैं। ये अपीलें उच्चतम न्यायालय के सेक्रेटरी जनरल और उच्चतम न्यायालय के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी द्वारा दिल्ली हाई कोर्ट के साल 2009 के उस आदेश के खिलाफ दायर की गई थी, जिसमें कहा गया है कि चीफ जस्टिस  का पद भी सूचना का अधिकार कानून के दायरे में आता है।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने इस पर फैसला सुनाया है। इसमें चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना शामिल हैं। उच्चतम न्यायालय  ने मामले की सुनवाई पूरी कर 4 अप्रैल को ही अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। उच्चतम न्यायालय  ने कहा था कि कोई भी अपारदर्शी प्रणाली नहीं चाहता है लेकिन पारदर्शिता के नाम पर न्यायपालिका को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता।

दरअसल मुख्य सुचना आयुक्त (सीआईसी) ने अपने आदेश में कहा था कि उच्चतम न्यायालय के चीफ जस्टिस का दफ्तर आरटीआई के दायरे में होगा। इस फैसले को दिल्ली  हाईकोर्ट ने सही ठहराया था। हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री ने 2010 में चुनौती दी थी। तब उच्चतम न्यायालय ने हाईकोर्ट के आदेश पर स्टे कर दिया था और मामले को संविधान बेंच को रेफर कर दिया था।

उच्चतम न्यायालय  के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी का प्रतिनिधित्व कर रहे अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा था कि चीफ जस्टिस के कार्यालय के अधीन आने वाले कालेजियम से जुड़ी जानकारी को साझा करना न्यायिक स्वतंत्रता को नष्ट कर देगा। अदालत से जुड़ी आरटीआई का जवाब देने का कार्य केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी का होता है।

उच्चतम न्यायालय  ने संविधान के आर्टिकल 124 के तहत ये फैसला दिया है। इस फैसले के बाद अब कालेजियम के फैसलों को उच्चतम न्यायालय  की वेबसाइट पर डाला जाएगा। जस्टिस संजीव खन्ना के द्वारा लिखे फैसले पर चीफ जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस दीपक गुप्ता ने सहमति जताई। हालांकि, जस्टिस रमना और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड ने कुछ मुद्दों पर अपनी अलग राय व्यक्त की। फैसले में कहा गया है कि पारदर्शिता न्यायिक स्वतंत्रता को कम नहीं करती है। न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही एक हाथ से दूसरे हाथ जाती है। प्रकटीकरण सार्वजनिक हित का एक पहलू है। न्यायमूर्ति रमना ने कहा कि न्यायपालिका को निगरानी से बचाना चाहिए। आरटीआई का इस्तेमाल न्यायपालिका पर नजर रखने के लिए एक उपकरण के रूप में किया जा सकता है। जस्टिस चंद्रचूड ने कहा कि न्यायाधीशों की संपत्ति की जानकारी व्यक्तिगत जानकारी का गठन नहीं करती है और उन्हें आरटीआई से छूट नहीं दी जा सकती। न्यायपालिका कुल अलगाव में काम नहीं कर सकती, क्योंकि न्यायाधीश संवैधानिक पद का आनंद लेते हैं और सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वहन करते हैं।

इसके पहले चीफ जस्टिस के नेतृत्व वाली पीठ ने इस मामले पर सुनवाई पूरी करते हुए कहा था कि कोई भी अपारदर्शिता की व्यवस्था नहीं चाहता, लेकिन पारदर्शिता के नाम पर न्यायपालिका को नष्ट नहीं किया जा सकता। पीठ ने कहा था, ‘कोई भी अंधेरे की स्थिति में नहीं रहना चाहता या किसी को अंधेरे की स्थिति में नहीं रखना चाहता।आप पारदर्शिता के नाम पर संस्था को नष्ट नहीं कर सकते।

दिल्ली हाईकोर्ट ने 10 जनवरी 2010 को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि चीफ जस्टिस  का कार्यालय आरटीआई कानून के दायरे में आता है। हाईकोर्ट ने कहा था कि न्यायिक स्वतंत्रता न्यायाधीश का विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि उस पर एक जिम्मेदारी है।88 पन्नों के फैसले को तब तत्कालीन चीफ जस्टिस  के जी बालाकृष्णन के लिए निजी झटके के रूप में देखा गया था, जो आरटीआई कानून के तहत न्यायाधीशों से संबंधित सूचना का खुलासा किए जाने के विरोध में थे। हाईकोर्ट ने उच्चतम न्यायालय  की इस दलील को खारिज कर दिया था कि चीफ जस्टिस  कार्यालय को आरटीआई के दायरे में लाए जाने से न्यायिक स्वतंत्रता ‘बाधित’ होगी।

वर्ष 2007 में एक्टिविस्ट सुभाष चंद्र अग्रवाल ने जजों की संपत्ति जानने के लिए एक आरटीआई दाखिल की थी। जब इस मामले पर सूचना देने से इनकार कर दिया गया तो ये मामला केंद्रीय सूचना आयुक्त के पास पहुंचा। सीआईसी ने सूचना देने के लिए कहा। इसके बाद इस मामले को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। उन्होंने इस आदेश को बरकरार रखा। वर्ष 2010 में उच्चतम न्यायालय  के जनरल सेक्रेटरी और उच्चतम न्यायालय  के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी हाईकोर्ट के इस आदेश के खिलाफ उच्चतम न्यायालय चले गए।

सुभाष चंद्र अग्रवाल का पक्ष रखने वाले वकील प्रशांत भूषण ने कहा था कि अदालत में सही लोगों की नियुक्ति के लिए जानकारियां सार्वजनिक करना सबसे अच्छा तरीक़ा है। उच्चतम न्यायालय  में नियुक्ति और ट्रांसफ़र की प्रक्रिया रहस्यमय होती है। इसके बारे सिर्फ़ मुट्ठी भर लोगों को ही पता होता है। उच्चतम न्यायालय  ने अपने कई फ़ैसलों में पारदर्शिता की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है लेकिन जब अपने यहां पारदर्शिता की बात आती है तो अदालत का रवैया बहुत सकारात्मक नहीं रहता।उच्चतम न्यायालय  में जजों की नियुक्ति से लेकर तबादले जैसे कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें पारदर्शिता की सख़्त ज़रूरत है और इसके लिए सीजेआई कार्यालय को आरटीआई एक्ट के दायरे में आना होगा।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ ही कानूनी मामलों के जानकार भी हैं।)

जेपी सिंह
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