सिविल नेचर के विवाद को आपराधिक केस का रंग दिया जाना अस्वीकार्य: सुप्रीमकोर्ट

उच्चतम न्यायालय की जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस जेके माहेश्वरी की पीठ ने कहा है कि हाईकोर्ट को इस बात की जांच करनी चाहिए कि जिस अपराध के बारे में शिकायत की गई है उसमें आपराधिक तत्व मौजूद हैं या नहीं। पीठ ने याचिकाकर्ता के खिलाफ दर्ज आपराधिक कार्रवाई को रद्द करते हुए कहा कि मौजूदा केस में क्रिमिनल केस याचिकाकर्ता को प्रताड़ित करने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया। पीठ ने कहा कि सिविल नेचर के विवाद को आपराधिक केस का रंग दिया गया या नहीं यह हाईकोर्ट को देखना होगा।

गौरतलब है कि इसके पहले जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हेमंत गुप्ता की पीठ ने प्रो आर के विजय सारथी बनाम सुधा सीताराम एवं अन्य, विशेष अनुमति याचिका (क्रिमिनल) 1434 / 2018,मामले में फरवरी 2019 में व्यवस्था दिया था कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए हाईकोर्ट इस बात की पड़ताल कर सकता है कि जो मामला दीवानी प्रकृति का है उसे आपराधिक मामला तो नहीं बनाया जा रहा है। पीठ ने कहा था कि अगर किसी दीवानी मामले को यदि आपराधिक मामला बनाया गया है तो इस मामले का जारी रहना न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग है और इस मामले को निरस्त किया जा सकता है।

वर्तमान मामले में याची रंधीर सिंह ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 15 दिसंबर 2020 के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने याची की अर्जी खारिज कर दी थी। याचिकाकर्ता एक संपत्ति का खरीददार था और उसकी पावर ऑफ एटर्नी के खिलाफ आपराधिक केस दर्ज किया गया था जिसके खिलाफ याचिकाकर्ता ने अर्जी दाखिल की थी। याची के खिलाफ गोरखपुर स्थित एक थाने में धोखाधड़ी सहित अन्य धाराओं के तहत केस दर्ज किया गया था और वहां की निचली अदालत में केस पेंडिंग था। याची ने क्रिमिनल केस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की थी। उच्चतम न्यायालय ने याची के खिलाफ शुरू की गई क्रिमिनल कार्रवाई को रद्द कर दिया। पीठ ने कहा कि इस मामले में हाईकोर्ट को देखना चाहिए था कि क्या सिविल नेचर के मामले को आपराधिक रंग दिया गया है? हाईकोर्ट को ऐसे मामले में क्रिमिनल केस रद्द करने को लेकर संकोच नहीं करना चाहिए था।

पीठ ने कहा कि ऐसे मामले में जब हाईकोर्ट के सामने सीआरपीसी की धारा-482 के तहत केस अपील में आता है तो यह प्रावधान इसलिए बनाया गया है कि हाईकोर्ट इस बात का परीक्षण करे कि क्या आपराधिक कार्यवाही का इस्तेमाल हथियार के तौर पर किसी को प्रताड़ित करने के लिए तो नहीं किया गया है? देखा जाए तो सीआरपीसी का यह प्रावधान यह कहता है कि हाई कोर्ट अपने ज्यूरिडिक्शन का इस्तेमाल कर इस बात की जांच करे कि आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के लिए तो शिकायत में आपराधिक आरोप नहीं लगाए गए हैं? साथ ही न्याय पाने का जो सिद्धांत है उसको सुनिश्चित करना ध्येय होना चाहिए।

पीठ ने कहा कि शिकायत में क्रिमिनल नेचर का अपराध हुआ है या नहीं यह देखना जरूरी है साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि अपराध का तत्व मौजूद है या नहीं है। यह सब आरोप के नेचर पर निर्भर करता है। मौजूदा मामले में याचिकाकर्ता के खिलाफ जो एफआईआर दर्ज किया गया है वह मामला चार्जशीट में नहीं बनता है और ऐसे में याचिकाकर्ता की अपील स्वीकार की जाती है और क्रिमिनल केस खारिज किया जाता है।

पीठ ने कहा कि जहां तक अपीलकर्ता का संबंध है, एफआईआर किसी अपराध का खुलासा नहीं करती है। इस बात की कोई चर्चा नहीं है कि यह अपीलकर्ता किसी आपराधिक अपराध में कैसे और किस तरह से शामिल है और आरोप पत्र बिल्कुल अस्पष्ट है, जिसका प्रासंगिक हिस्सा ऊपर निकाला गया है। आरोप पत्र पूरी तरह से अस्पष्ट है।

अपील की अनुमति देते हुए और, पीठ ने कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अधिकार क्षेत्र किसी भी अदालत की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के उद्देश्य से या न्याय के लक्ष्य को सुरक्षित करने के लिए संयम से इस्तेमाल किया जाना चाहिए। शिकायत अपराध का खुलासा करती है या नहीं, यह आरोप की प्रकृति पर निर्भर करता है और यह देखा जाना चाहिए कि आपराधिक शिकायत में अपराध के आवश्यक तत्व मौजूद हैं या नहीं, इसका निर्णय हाईकोर्ट द्वारा किया जाना है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सिविल लेनदेन का खुलासा करने वाली शिकायत में आपराधिक बनावट भी हो सकती है। हालांकि, हाईकोर्ट को यह देखना है कि क्या दीवानी प्रकृति के विवाद को आपराधिक अपराध का रंग दिया गया है। ऐसी स्थिति में हाईकोर्ट को आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने में संकोच नहीं करना चाहिए, जैसा कि परमजीत बत्रा (सुप्रा) 34 मामले में इस न्यायालय द्वारा आयोजित किया गया है।

दरअसल न्याय में अतिशय विलम्ब के कारण आजकल दीवानी मामलों को आपराधिक रंग देने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है, ताकि मन मुताबिक समझौते की संभावना बन सके । यही नहीं सुविधा शुल्क वसूली के लिए दीवानी मामलों को अपराधिक रंग देने की प्रवृत्ति में पुलिस की भी मिलीभगत बढ़ती जा रही है । दीवानी मामलों को अदालत के बाहर निपटने में जहाँ अपराधिओं/दबंगों की कंगारू अदालतें बनती जा रही है वहीं पुलिस भी सुविधा शुल्क वसूली के लिए इसमें कूद पड़ी है ।

प्रो आर के विजय सारथी बनाम सुधा सीताराम एवं अन्य, विशेष अनुमति याचिका (क्रिमिनल) 1434 / 2018,मामले में फरवरी 2019 में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हेमंत गुप्ता की पीठ ने इस बात की जानकारी दी कि कैसे हाईकोर्ट सीआरपीसी की धारा 482 के तहत इस मामले की जाँच कर सकता है। पीठ ने कहा कि इस शिकायत में वो सारी बातें होनी चाहिए जो इसे आईपीसी के तहत एक अपराध बनाता है। पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट सीरपीसी की धारा 482 के तहत अपने अधिकारों का जब प्रयोग करता है तो उसे यह देखना चाहिए कि शिकायत में जिन बातों का ज़िक्र किया गया है वे पीनल कोड के तहत उसे मामला बनाने के लिए पर्याप्त है या नहीं।अगर आरोप ऐसे नहीं हैं तो आपराधिक मामले को धारा 482 के तहत निरस्त किया जासकता है। पूरी शिकायत पर आरोपों के सही या ग़लत होने के बारे नहीं सोचते हुए उस पर उसकी समग्रता में विचार किया जाना चाहिए. यह ज़रूरी है कि पीनल कोड के तहत शिकायत लायक़ सारे आवश्यक तथ्य उसमें हों।

जेपी सिंह
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