बिहार में क्वारंटाइन सेंटर बंद होने के बाद कोरोना संक्रमण का खतरा और बढ़ा

बिहार में कोरोना संक्रमण की रोकथाम के लिए बने एकांतवास शिविर 15 जून से बंद हो गए। इसके पहले दूसरे राज्यों से लौट रहे श्रमिकों का पंजीकरण एक जून से ही बंद कर दिया गया था। इधर कोरोना संक्रमित मरीजों की तादाद लगातार बढ़ रही है। रोजाना दो-ढाई सौ नए मरीजों की पहचान हो रही है। लेकिन बाजार-दुकान खुल गए हैं। केवल आवागमन खासकर सार्वजनिक परिवहन पर थोड़ी पाबंदी है। इस तरह अभी न तो लॉकडाउन की स्थिति है, न सामान्य जनजीवन पटरी पर है। कुल मिलाकर केवल उन्हीं इलाकों में लॉकडाउन की स्थिति है जिन्हें कंटेनमेन क्षेत्र घोषित किया गया है। 

दूसरे राज्यों में फंसे लोगों को वापस लाने और उनके एकांतवास के बारे में बिहार सरकार की नीति कभी स्पष्ट नहीं रही, बल्कि उस नीति में बार बार परिवर्तन किया जाता रहा। इससे उन लोगों को कदम-कदम पर परेशानियों का सामना करना पड़ा है। नई-नई सरकारी घोषणाएं हर रोज होती रहीं, पर जमीनी स्तर पर परेशानियां कम नहीं हो रहीं। सरकार पहले तो किसी को आने ही देना नहीं चाहती थी। केन्द्र द्वारा घोषित देशबंदी का हवाला देकर सबको वहीं रहने के लिए कह रही थी। उन्हें सहायता करने के लिए दिल्ली में सहायाता केन्द्र खोला गया और उसके फोन नंबर जारी किए गए। पर एक तो वह फोन नंबर लगता नहीं था, दूसरे केवल दिल्ली से विभिन्न राज्यों में फंसे लोगों को सहायता पहुंचाना संभव भी नहीं था।

सबसे दुखद यह था कि कोटा(राजस्थान) में फंसे छात्रों को लाने की व्यवस्था भी नहीं की गई। वह तो भाजपा विधायक अरुण यादव के अपने साधन से अपनी बेटी को ले आने पर हंगामा हो गया। विभिन्न राज्यों से श्रमिकों का पैदल और रास्ते में मिले साधन से वापस लौटने का सिलसिला आरंभ हो गया। फिर उत्तर-प्रदेश समेत कई राज्यों ने अपनी बसें भेजकर कोटा से अपने यहां के बच्चों के लाना शुरु कर दिया। फिर झारखंड सरकार के अनुरोध पर श्रमिकों को लाने के लिए विशेष ट्रेन चली, तब दूसरी राज्य सरकारों ने भी इस दिशा में पहल की।

उस समय तक बिहार सरकार पूरी तरह केन्द्र के फैसले पर निर्भर रही और लॉकडाउन की वजह से किसी के आने का विरोध करती रही। पैदल और दूसरे साधनों से आने वाले श्रमिकों को राज्य में और गांव में प्रवेश नहीं करने देने का फरमान जारी किया गया। बाद में पंचायत स्तर पर एकांतवास शिविर बनाने का ऐलान हुआ। हालत ऐसी हो गई कि मुख्यमंत्री को घोषणा करनी पड़ी कि कोई चोरी-छिपे नहीं आए। सबको लाने की व्यवस्था की जाएगी। पड़ोसी राज्यों से बसों से भी श्रमिकों को लाया गया।

जब श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलने लगीं तो उनके भाड़ा को लेकर विवाद हो गया। केन्द्र सरकार, राज्य सरकार और विपक्षी पार्टियों के बीच हुए विवाद के बाद भी मजदूरों को भाड़ा चुकाना पड़ा। राज्य सरकार ने बाद में उसे वापस करने और साथ में 500 रुपए देने की घोषणा की। दूसरे साधनों से आने वाले लोगों को भी राह खर्च देने की बात हुई। श्रमिक ट्रेनों से आने वाले श्रमिकों को रास्ते में भोजन पानी की कठिनाई झेलनी पड़ी। इसके अभाव में कई यात्रियों की मौत भी हो गई, मृत यात्रियों के बारे में आंकड़ा भी उपलब्ध नहीं है। 

हालत यह रही कि केरल से आई एक ट्रेन कटिहार पहुंच गई जबकि उसमें जहानाबाद और छपरा के श्रमिक थे। उन लोगों को अपने जिलों तक पहुंचाने के लिए वाहन वहां उपलब्ध नहीं थे जबकि सरकार बार-बार स्टेशन से संबंधित प्रखंड तक पहुंचाने के लिए वाहन की व्यवस्था सरकार की ओर से करने की घोषणा की है। भूखे-प्यासे लोगों ने हंगामा किया तो उनपर पुलिस ने लाठियां बरसाई। दो दिन के सफर में उन्हें कहीं भोजन-पानी नहीं मिला था। अपने घर तक जाने के लिए बसों ने एक हजार रुपए से अधिक भाड़ा मांगा। 

बड़ी संख्या में मजदूरों के आने के साथ-साथ प्रखंड स्तर पर शिविर बनाने की व्यवस्था हुई। लेकिन इन शिविरों में स्कूलों के मध्याह्न भोजन के अनाज से भोजन की व्यवस्था करने का फैसला करने में दो सप्ताह लग गए। यह फैसला होते समय 22 मई को राज्य के साढ़े छह हजार स्कूलों में शिविर बन गए थे, इस बीच सरकार ने श्रमिकों के आने का भाड़ा और 500 रुपए अतिरिक्त देने की घोषणा की। हालांकि यह रकम कितने लोगों को मिल पाई, इस बारे में कोई स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन गांव-गांव में कोरोना का डर जिस तरह से फैला है, और बड़े-बड़े नेता जिस तरह कोरोना संक्रमण बढ़ने का अंदेशा जता रहे थे, उन बहिरागत श्रमिकों के अपने गांव में भी अपनत्व नहीं मिल पा रहा। एक तरफ कानून-व्यवस्था खराब होने और चोरी-छिनताई बढ़ने का अंदेशा जताते हुए पुलिस व्यवस्था दुरुस्त करने के निर्देश दिए गए हैं। जिस पर बड़ा विवाद खड़ा हो गया। आखिरकार सरकार को वह आदेश वापस लेना पड़ा।

इधर एकांतवास शिविरों की संख्या लगातार घटती-बढ़ती रही है। इन शिविरों को संभालना लगातार कठिन होता गया। एक तो आगंतुक श्रमिकों की बड़ी संख्या, उनके लिए पर्याप्त जगह की व्यवस्था और जरूरी सुविधाएं जुटाना कठिन होता गया। इस पर बड़ी रकम का खर्च और उसमें भ्रष्टाचार को नियंत्रित करना सरकार के लिए कठिन था। इस दौरान हर घर शौचालय की घोषणाओं की पोल खुली। विद्यालयों में भी शौचालयों का अभाव है। पेयजल के लिए चापाकल कई जगह थे ही नहीं, कहीं थे तो बेकार पड़े थे। यह तो पहले हुए भ्रष्टाचार के मामले हैं, शिविर में भोजन की आपूर्ति में लगातार भ्रष्टाचार होता रहा। जगह-जगह हंगामा होने लगा। इससे तंग आकर सरकार ने पहले प्रखंड एकांतवास शिविरों को बंद करने का फैसला किया।

विशेष ट्रेनों से तीन मई के बाद आए श्रमिकों को चौदह दिन एकांतवास में रखने के लिए प्रखंड स्तर पर एकांतवास शिविर बनाए गए थे। एक जून को फैसला हुआ कि प्रखंड एकांतवास शिविरों को 15 जून से बंद किया जाएगा तब राज्य में प्रखंड स्तर पर 12291 शिविर चल रहे थे। उस दिन उन शिविरों में करीब छह लाख लोग रह रहे थे और करीब आठ लाख लोग 14 दिन का एकांतवास बिताकर अपने घर जा चुके थे। उन्हें घर में ही सात दिन एकांतवास करने के लिए कहा गया था। हालांकि श्रमिकों की संख्या बढ़ने पर 22 मई को ही तय हुआ था कि केवल 11 बड़े शहरों से आने वाले श्रमिकों को ही प्रखंड एकांतवास शिविर में रखा जाएगा। इन शहरों में कोरोना का फैलाव ज्यादा था। बाकी जगहों से आने वाले प्रवासियों को प्रखंड मुख्यालय पर पंजीकरण कर के घर भेज देने की व्यवस्था हुई।  

अभी तक करीब डेढ़ हजार विशेष ट्रेनों से करीब 21 लाख प्रवासी श्रमिक बिहार आ चुके हैं। श्रमिकों के आने का सिलसिला अभी थमा नहीं है। श्रमिक विशेष ट्रेनें जरूर बंद हो गई हैं। लेकिन एकांतवास शिविरों को बंद करने के फैसला को स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने खतरनाक बताया है। बाहर से आए लोगों के आम जनजीवन के साथ घुलने-मिलने से कोरोना का संक्रमण काफी बढ़ सकता है। सामाजिक कार्यकर्ता महेन्द्र यादव कहते हैं कि सरकार का यह फैसला संक्रमण को रोकने के लिहाज से बेहद विपरीत है। मई के पहले सप्ताह से ही सरकार कह रही है कि प्रवासियों के आगमन से कोरोना संक्रमण फैल सकता है, इसलिए एकांतवास शिविरों की व्यवस्था की गई। अब इसे समाप्त करने का क्या मतलब। क्या वह घोषणा गलत थी। 

(अमरनाथ वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल पटना में रहते हैं।)

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अमरनाथ झा
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