नई दिल्ली। अयोध्या राम मंदिर के उद्घाटन के सिलसिले में सरकार ने सारे नियमों और परंपराओं की धज्जियां उड़ा दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके मुख्य उद्घटानकर्ता हैं। और धर्म के इस कार्यक्रम को धर्माधिकारियों से ही दूर कर दिया गया है। जिसका नतीजा है कि चारों शंकराचार्यों ने इस उद्घाटन में आने से मना कर दिया है। अब हिंदुओं के किसी कार्यक्रम में शंकराचार्य न हों तो भला उस कार्यक्रम की क्या हैसियत रह जाएगी।
लेकिन सरकार उसे सबसे बड़े धार्मिक कार्यक्रम के तौर पर पेश कर रही है। और धर्म से इतर राजनेताओं के नेतृत्व में एक नई धार्मिक सत्ता खड़ी की जा रही है। अब यह कितनी धार्मिक है और कितनी राजनीतिक और राजनीतिक होने के चलते कितनी अधार्मिक इसके बारे में आप ही फैसला करिए। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सरकारी मशीनरी का जो दुरुपयोग हो रहा है उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। और इस कड़ी में पूरे संविधान और उसकी विरासत को तार-तार कर दिया जा रहा है।
मसलन यह कार्यक्रम कैसे पूरे देश के स्तर पर फैलाया जाए इसके लिए देश के अलग-अलग सूबों में कार्यरत बीजेपी सरकारों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। राम मंदिर का उद्घाटन न हुआ जैसे आज़ादी का जश्न हो गया। सभी बीजेपी शासित राज्यों ने 22 जनवरी को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया है। और सूबे में इस दिन को अपने-अपने तरीके से मनाने के लिए निर्देश जारी किए जा रहे हैं। और सबसे बड़ा निर्देश तो आयोजक सूबे यूपी में जारी किया गया है। इसके मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्र की ओर से जारी इस निर्देश में तकरीबन सभी विभागों को ताकीद की गयी है। इसमें स्वास्थ्य से लेकर यातायात और सफाई से लेकर अतिथियों और श्रद्धालुओं के रुकने तक की व्यवस्था के बारे में निर्देश जारी किए गए हैं।
शासन की ओर से जारी मुख्य निर्देश में सूबे के सभी स्कूलों, कॉलेजों को बंद करने की बात शामिल है। हालांकि इसकी कोई जरूरत नहीं थी। इसके साथ ही दूसरे नंबर पर शराब बंदी घोषित की गयी है। लेकिन तीसरे नंबर पर वह निर्देश दिया गया है जो कभी शासन के स्तर पर नहीं दिया जा सकता है। यह कार्यक्रम चूंकि धार्मिक है और उसको संयोजित और आयोजित करने का काम एक ट्रस्ट कर रहा है। लिहाजा उसके आधिकारिक दायरे तक ही चीजों को समन्वित किया जा सकता है। सरकार की इसमें भूमिका महज सहयोगी की होती है। जिसमें कानून और व्यवस्था को देखने के साथ ही पूरा आयोजन कैसे शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हो जाए यह उसकी प्राथमिकता में शामिल होता है।
लेकिन अगर सरकार इसके आयोजक की भूमिका में खड़ी हो जाती है जैसा कि दिख रहा है तो वह अपने कर्तव्य पथ से विचलित हो रही है। क्योंकि किसी एक सेकुलर राज्य में सरकार को किसी धार्मिक आयोजन को संचालित और संपादित करने का अधिकार नहीं है। और यूपी की योगी सरकार तो बिल्कुल नंगी हो गयी है। प्रमुख निर्देशों में तीसरे नंबर पर 16 जनवरी से 22 जनवरी, 2024 एक सप्ताह तक हर देव मंदिर में राम संकीर्तन आदि का आयोजन करने का निर्देश दिया गया है। अब अगर सरकारें संकीर्तन और जगराता कराने लगेंगी तो फिर उनका अपना काम कौन करेगा?
और अगर कोई सरकार किसी एक धर्म के लिए यह काम कर रही है तो क्या किसी दूसरे धर्म के लिए भी उसी तरह से और उसी उत्साह के साथ वह काम करेगी? शायद इसका जवाब नहीं में है। और अगर ऐसा है तो फिर किसी खास धर्म के साथ कोई सरकार कैसे खुद को जोड़ सकती है? उसके अगले ही निर्देश में कहा गया है कि 22 जनवरी को सायंकाल हर घर, घाट/मंदिर में दीपोत्सव का कार्यक्रम किया जाए। अयोध्या में सरयू घाट पर दीपोत्सव का आयोजन एवं दीपोपरांत हरी आतिशबाजी की व्यवस्था की जाए। अब कोई पूछ सकता है कि अगर इस पूरे आयोजन का काम संघ और बीजेपी देख रहे हैं तो उसमें किसी सरकार की क्या भूमिका? और अगर सब कुछ सरकार को ही देखना था तो फिर अलग से ट्रस्ट बनाने की क्या जरूरत थी?
इसी तरह के एक और निर्देश में कहा गया है कि पूरे प्रदेश के देव मंदिरों में स्क्रीन लगाकर कार्यक्रम का सजीव प्रसारण किया जाए। आज तक आपने किसी सरकार को यह करते हुए देखा है? यह पहली सरकार है जो धर्म के उन्माद में डूबी है और संविधान की खुलेआम धज्जियां उड़ा रही है।