इलाज के पैसे न होने पर किसी का मर जाना कितना उचित?

चंद रोज पहले जब मैं अपने मरीज को लेकर कुछ साल पहले खुले कैंसर अस्पताल पहुंचा तो मुझसे पूछा गया कि आप किस कैटेगरी यानी (वर्ग) में दिखाना चाहेंगे तो मुझे ये सवाल बड़ा अजीब लगा मेरे समझ में तो मरीज बस मरीज होता और उसको देखना डाक्टर का फर्ज इसमें काहे की कैटेगरी लेकिन अगले ही पल मुझे पता चला कि कैटेगरी तो है एक पैसे वालों की और दूसरी आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की। ये वो विभाजन रेखा है जिसे खींचने की इजाजत मुल्क के हुक्मरानों ने दे रखी है जो आगे चलकर मुनाफे की लूट में तब्दील होती है और लोग अपना घर, खेत बेचकर भी अपनों का इलाज नहीं करवा पाते है।

खैर अस्पताल के स्वागत कक्ष में ही मुझे बताया गया कि अगर आप 10 हजार रुपए जमा करेंगे तो आप (प्राइवेट कैटिगरी) में होंगे आप को लाइन नहीं लगानी होगी आप को जल्दी देख लिया जाएगा। नहीं तो आप जनरल कैटेगरी में जाइए वहां भी आपको पैसे देने होंगे लेकिन कम। पर देखने-दिखाने में टाइम यानी समय लगेगा। सारी बातें सुनने के बाद मुझसे पूछा गया कि आप किसमें जाना चाहते हैं? किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पहले मुझे वहां दोनों कैटेगरी के बीच लोक कल्याणकारी राज्य (Public Welfare state) की  मृत्यु होते दिखी। साथ ही समझ में आया कि सेवा के नाम पर खुले अस्पताल अब मुनाफे की मंडी बन चुके हैं जहां बीमार मरीज और उसके लाचार घर वाले मुनाफा छोड़ और कुछ नहीं है बड़े करीने और सिलसिलेवार तरीके से यहां लूट का खेल खेला जाता है जिस पर कोई सवाल नहीं खड़ा होता। 

आखिरकार जिन सरकारों को हम अपनी बेहतर जिंदगी के लिए चुन कर लाते हैं वही सरकार हमें एक बदहाल जिंदगी क्यों देती है ?

लाचार और बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं का दर्दनाक मंजर हाल ही में कोरोना की दूसरी लहर में देखा। लोग आक्सीजन के लिए तड़प-तड़प कर मरते रहे मौत को बेचने का खेल चलता रहा। सरकार और जनप्रतिनिधि लापता रहे। मृत्यु की विभीषिका के आगे जिंदगी बौनी दिखी। जन सामान्य की मौतों के लिए कोई जवाबदेही किसी की नहीं दिखती लचर चिकित्सा सुविधा, चिकित्सा बजट और उसमें भी घोटाले और कमीशन का घुन जिंदगी को चाट रहा है और लोग अपनों के मौत की टीस लिए सिवाय रोने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे हैं। आखिर इस बात का जवाब सरकार का कौन सा हिस्सा देगा कि क्या किसी को इसलिए मर जाने देना चाहिए कि उसके पास इलाज के लिए पैसे नहीं हैं?

संविधान में हम लोक कल्याणकारी राज्य हैं यानी राज्य की जिम्मेदारी है कि वो अपने आवाम को बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा मुहैया करवाएं लेकिन आम आदमी के जीवन से जुड़े इन संवेदनशील मुद्दों पर राज्य अपना पल्ला झाड़ता दिख रहा है। अंधाधुंध निजीकरण कर चंद लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए अधिकांश लोगों के गला रेतने का नाम लोकतंत्र बनता जा रहा है आखिरकार हम-आप इसलिए सरकार नहीं चुनते की वो हमें वोट के बदले मौत दे!

बाकी मुद्दों की तरह स्वास्थ्य का मुद्दा भी हमारा मौलिक अधिकार है। हर आदमी को अत्याधुनिक स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है। आदमी की जान की कीमत पर स्वास्थ्य सेवाओं को मुनाफा कमाने की इजाजत देना अमानवीय व्यवस्था को मजबूत करना है जो सरकार कर रही है। विकास का कोई भी माडल श्रम के बिना बेमानी है। आखिरकार हम-आप इसलिए सरकार नहीं चुनते की वो हमें वोट के बदले मौत दे! 

         (वाराणसी से पत्रकार भास्कर गुहा नियोगी की रिपोर्ट।)

भास्कर सोनू
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