जीने के अधिकार के खिलाफ है दिल्ली में झुग्गियों को उजाड़ने का फैसला: सीपीआई-एमएल

दिल्ली में रेलवे लाइन के पास बसी सभी झुग्गी बस्तियों को तीन महीने के भीतर उजाड़ने के आदेश से सीपीआई एमएल लिब्रेशन ने असहमति जताई है। CPI-ML का मानना है कि जस्टिस मिश्रा की बेंच द्वारा पारित ये आदेश भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंर्तगत मिले जीवन के अधिकार का खुलेआम उल्लंघन है। पार्टी ने जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच के इस फैसले को असंवेदनशील फैसला बताया है।

पार्टी ने कहा कि डराने वाली बात यह है कि 31 अगस्त को पारित इस आदेश में ये निर्देश भी दिया गया है कि किसी भी कोर्ट को ‘इस अतिक्रमण को हटाने के आदेश पर स्टे नहीं देना चाहिए।’ ये वही बेंच है, जिसने प्रशांत भूषण को न्यायलय की अवमानना का दोषी माना था।

पार्टी की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि इसमें चौंकाने वाली बात है कि ये आदेश राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण के मामले की सुनवाई के दौरान पास किया गया है, जिसका इन झुग्गी-बस्तियों से कोई लेना-देना ही नहीं है। बेंच ने ये आदेश पारित करते समय इस बात का भी संज्ञान नहीं लिया कि सुप्रीम कोर्ट ने ही आश्रय के अधिकार को मूलभूत अधिकार माना है और इसीलिए ये आदेश इस बात की एक और मिसाल बन जाता है कि किस तरह हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने में असफल साबित हुआ है।

बयान में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों में ये स्थापित किया जा चुका है कि आश्रय का अधिकार अनुच्छेद 19 (1) (ई) के अंर्तगत आवास के अधिकार और अनुच्छेद 21 के अंर्तगत जीवन के अधिकार के तहत दिया गया है, लेकिन जस्टिस मिश्रा की बेंच द्वारा पारित इस आदेश में इन पूर्ववर्ती मिसालों को पूरी तरह अनदेखा कर दिया गया  है। इसके अलावा ये प्राकृतिक न्याय के सिद्धातों का भी पूरी तरह उल्लंघन करता है कि सुप्रीम कोर्ट देश के अन्य न्यायालयों को इस मामले में किसी भी तरह के अंतरिम आदेश को पारित करने तक से रोक दे।

पार्टी ने कहा कि प्रदूषण पर किसी मामले की सुनवाई करते हुए इस आदेश को पारित करते हुए बेंच ने, रेलवे लाइन के आसपास रहने वाले झुग्गी बस्ती निवासियों को ही शहर में होने वाले प्रदूषण के लिए जिम्मेदार मानने जैसे अजीबोगरीब दावे भी किए। ये साफ है कि ये बेंच अपने अधिकार क्षेत्र से भी बाहर चला गया और उसने एक ऐसे मामले में आदेश पारित कर दिया, जिसका उस मामले से कोई संबंध ही नहीं था जिसकी वो सुनवाई कर रहा था।

पार्टी ने कहा कि ये आदेश रेल मंत्रालय के उस दावे के आधार पर पारित किया गया है, जिसमें उसने कहा है कि वो रेलवे लाइन के आस-पास की सफाई नहीं कर पा रहे हैं, जिनके पास ये झुग्गी-बस्तियां बसी हैं। उन्होंने कोर्ट के सामने वो पुराने आदेश भी पेश नहीं किए जिसमें ये साफ कहा गया था कि बिना समुचित पुर्नवास के किसी भी तरह का विस्थापन नहीं किया जा सकता। रेल मंत्रालय ने इस आदेश को पारित करवाने में एक कुटिल चाल चली है और उन्हें इस आदेश का जिम्मदार ठहराया जाना चाहिए।

पार्टी ने बयान में कहा कि वे लोग जो झुग्गी-बस्तियों में रहते हैं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने उजाड़ने का आदेश दिया है ये मेहनतकश-ग़रीब लोग हैं, और उनके भी मूलभूत अधिकार हैं, जिनका संरक्षण किया जाना ज़रूरी है। इस शहर पर उनका भी उतना ही हक़ है जितना किसी और का है। साल 2018 में दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने एक आदेश में भीख मांगने को अपराध की श्रेणी से हटाने का आदेश पारित करते हुए ये कहा था कि शहर पर हर नागरिक का हक़ है और इस अधिकार का संरक्षण किया जाना ज़रूरी है। शहर के इन मेहनतकश ग़रीबों को सुप्रीम कोर्ट के इस तरह के मनमाने फैसलों के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता।

सीपीआई एमएल ने मांग की है,
◆ झुग्गी-बस्तियों को किसी भी तरह का नुकसान पहुंचाए जाने या उजाड़े जाने से पहले समुचित पुर्नवास सुनिश्चित किया जाए।
◆ रेल मंत्रालय को पुराने आदेश के अनुसार काम करना होगा और रेलवे लाइन के पास रहने वाले झुग्गी-बस्ती वासियों के पुर्नवास की गारंटी करनी होगी।
◆ रेलवे लाइन के पास रहने वालों का एक ताजा सर्वे किया जाना चाहिए ताकि वहां रह रहे परिवारों की सही संख्या सुनिश्चित की जा सके और सभी के पुनर्वास की गारंटी हो सके।  इसमें किन्ही खास दस्तावेजों, जैसे राशन कार्ड/आधार आदि पर जोर नहीं देना चाहिए, क्योंकि कई परिवारों के पास ये दस्तावेज़ नहीं होते, बल्कि किसी भी सरकारी पहचान पत्र को स्वीकृति देनी चाहिए।
◆ दिल्ली सरकार को फौरन भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिख कर इस आदेश को वापस लेने की मांग करनी चाहिए, क्योंकि ये संविधान के मूलभूत अधिकारों और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। दिल्ली सरकार को ये भी सुनिश्चित करना चाहिए कि बिना पुर्नवास कोई बेदखली न हो।

पार्टी ने दिल्ली के सभी नागरिकों से ये अपील भी की है कि वे सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ आवाज उठाएं और दिल्ली के शहरी ग़रीबों के हक़ और सम्मान की रक्षा करने के लिए एकजुट हों।

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