जोर पकड़ने लगा देहरादून का वन बचाओ आंदोलन

देहरादून। देहरादून का आशारोड़ी के जंगल बचाने का काम अब जोर पकड़ने लगा है। सिटीजन फाॅर ग्रीन दून के आह्वान पर कुछ लोगों द्वारा शुरू किये गये इस आंदोलन में दर्जनों संस्थाएं और कई नामी पर्यावरणविद भी जुड़ गये हैं। 10 अप्रैल को एक बार फिर से आशारोड़ी में विरोध-प्रदर्शन करने का ऐलान किया गया है। जिस तरह से विभिन्न संस्थाएं अपनी-अपनी तरफ से लोगों को प्रदर्शन में आने का निमंत्रण दे रही हैं, उससे अब साफ हो गया है कि 10 अप्रैल का प्रदर्शन न सिर्फ पहले से बड़ा होगा, बल्कि यह नये तेवर और नये कलेवर के साथ सामने आएगा।

इस बीच प्रसिद्ध पर्यावरणविद रवि चोपड़ा भी इस आंदोलन से जुड़ गये हैं। एक तरह से देखा जाए तो यह आंदोलन अब रवि चोपड़ा के नेतृत्व में आगे बढ़ने जा रहा है। दो दिन पहले रवि चोपड़ा खुद आशारोड़ी पहुंचे थे और उन्होंने लोगों से ज्यादा से ज्यादा संख्या में इस आंदोलन में हिस्सा लेने की अपील की थी। इसके अलावा उत्तराखंड में महिलाओं की प्रतिनिधि संस्था उत्तराखंड महिला मंच भी अब आंदोलन में पूरी सक्रियता के साथ जुड़ गयी है। महिला मंच की अध्यक्ष कमला पंत भी आशारोड़ी के विरोध प्रदर्शन में शामिल हो चुकी हैं और शनिवार दोपहर होने वाली प्रेस काॅन्फ्रेंस में वे भी रवि चोपड़ा के साथ मौजूद रहेंगी। दून में युवाओं की संस्था प्राउड पहाड़ी ने भी आंदोलन में जोर-शोर से शिरकत करने का ऐलान किया है। इसके अलावा जनरंग संस्था ने आंदोलन में पहले से सक्रिय एसएफआई के साथ मिलकर 10 अप्रैल को प्रदर्शन स्थल पर प्रतिरोध दर्ज करने के लिए नुक्कड़ नाटक का मंचन करने का ऐलान किया है। एसएफआई के हिमांशु चौहान के अनुसार नाटक के माध्यम से लोगों को प्रकृति और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील रहने के लिए अवेयर किया जाएगा। 

अब तक इस आंदोलन से जो संस्थाएं जुड़ी हैं, उनमें सिटीजन फाॅर ग्रीन दून और द अर्थ एंड क्लाइमेट चेंज इनिशिएटिव के अलावा एसएफआई, उत्तराखंड महिला मंच, हिन्द स्वराज, खुशियों की उड़ान, पराशक्ति, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, जनरंग, प्राउड पहाड़ी सोसायटी, फ्रेंड्स ऑफ दून, निरोगी मिशन, आगास, मिट्टी फाउंडेशन, बीटीडीटी, न्यू स्वच्छ परिवेश, तितली ट्रस्ट, प्रमुख, आइडियल फाउंडेशन, ईको ग्रुप, एमएडी, डू नो ट्रैश, सिटीजन फाॅर क्लीन एंड ग्रीन आमबियंस, दून नेचर एसोसिएशन आदि शामिल हैं।

काटे गए पेड़ों की उठाई जा रही हैं लकड़ियां

फिलहाल पिछले रविवार के हुए प्रदर्शन के बाद आशारोड़ी में कोई नया पेड़ नहीं काटा गया है। हालांकि पहले से काटे गये पेड़ों की लकड़ी उठाने का काम चल रहा है। कुछ संस्थाओं से जुड़े लोग हर दिन दो शिफ्ट में जंगल की पहरेदारी कर रहे हैं। 5 से 10 लोग सुबह 10 बजे से दोपहर 2 बजे तक और इतने ही लोग 2 बजे से शाम 6 बजे तक आशारोड़ी में निगरानी कर रहे हैं। शनिवार को हो रही प्रेस काॅन्फ्रेंस में 10 अप्रैल के प्रदर्शन के बारे में ही मुख्य रूप से बात की जाने की संभावना है। इसके अलावा इन जंगलों के पर्यावरणीय और जंगल काटे जाने के कानूनी पहलुओं पर भी बात की जाएगी। 

सिटीजन फाॅर ग्रीन दून के हिमांशु अरोड़ा के अनुसार फिलहाल पूरी रणनीति 10 अप्रैल के प्रदर्शन को सफल बनाने की है। वे कहते हैं कि यदि यह प्रदर्शन सफल रहा तो प्रदर्शन स्थल पर ही विभिन्न संस्थाओं के प्रतिनिधियों से बातचीत करके आगे की रणनीति के बारे में विचार किया जाएगा। हिमांशु अरोड़ा के अनुसार यदि सभी संस्थाएं सहमत हो जाती हैं तो दिन भर निगरानी के लिए अलग-अलग टीमेंबनाई जा सकती हैं। इन टीमों में पिछले हफ्ते की तरह ही 5 से 10 लोग शामिल किये जा सकते हैं। लेकिन, वे यह तभी संभव है, यदि सभी संस्थाएं इसमें शामिल हों, क्योंकि कुछ लोग लगातार इस मुहिम को जारी नहीं रख सकेंगे। 

इस बीच संयुक्त नागरिक संगठन ने आशारोड़ी आंदोलन को समर्थन देने की घोषणा की है। संगठन की ओर से राज्य के शहरी विकास मंत्री को एक पत्र भी भेजा गया है। इस पत्र में संगठन ने मोहंड और आशारोड़ी में एलीवेटेड हाईवे बनाने की सलाह दी है, ताकि कम से कम पेड़ों को काटना पड़े और वन्य जीवों को भी उनका गलियारा मिल सके। सिटीजन फाॅर ग्रीन दून की ईरा चौहान कहती हैं कि इस सड़क के चौड़ीकरण से सबसे ज्यादा परेशानी वन्य जीवों को ही होने वाली है। अभी तक कम चौड़ी सड़क का वन्य जीव किसी तरह पार कर दूसरी तरफ जा सकते हैं लेकिन जब चार लेन वाला एक्सप्रेस वे बनेगा तो हिरन, हाथी, टाइगर और चीते जैसे वन्य जीव सड़क पार नहीं कर पाएंगे। वे सड़क के एक तरफ ही रह जाएंगे। इस तरह से उनका पारंपरिक गलियारा तो खत्म होगा ही, उनकी संख्या आगे बढ़ने पर भी असर पड़ेगा और एक दिन राजाजी का एक बड़ा क्षेत्र वन्यजीव विहीन हो जाएगा।

इस आंदोलन में अब उत्तराखंड महिला मंच के आ जाने से आंदोलन के जोर पकड़ने की संभावनाएं बढ़ गई हैं। उत्तराखंड महिला मंच अलग राज्य आंदोलन के समय से ही जन आंदोलनों की एक बड़ी ताकत रहा है। देहरादून में होने वाले ज्यादातर आंदोलन में महिला मंच की भागीदारी रही है। महिला मंच के सदस्यों से संख्या हजारों में है। यह मंच उत्तराखंड में महिला शक्ति का प्रतिनिधि संगठन माना जाता है और किसी भी आंदोलन में महिला मंच की भागीदारी आंदोलन की सफलता का पर्याय मानी जाती हैं। मंच की अध्यक्ष कमला पंत का कहना है कि उनका संगठन आशारोड़ी के जंगलों को बचाने के लिए पूरी ताकत के साथ उतर रहा है। वे कहती हैं कि आशारोड़ी के साल के जंगल काटने का सीधा अर्थ देहरादून को हवा और पानी से वंचित करना है। अभी तक यहां जो सड़क है वह आने-जाने के लिए पर्याप्त है, इससे ज्यादा चौड़ी सड़क जंगलों को काटकर बनाने का किसी भी हालत में समर्थन नहीं किया जा सकता।

सिटीजन फाॅर ग्रीन दून की ईरा चैहान कहती हैं कि जो लोग इस जंगल को काटने का समर्थन कर रहे हैं, वे वास्तव में एक छोटे से लालच से बंधे हैं और वह लालच है, जल्दी से जल्दी दिल्ली पहुंचने का। वे कहती हैं कि आशारोड़ी के जंगल के साल के पेड़ 80 फीट से ज्यादा ऊंचे हैं। इनमें से ज्यादातर पेड़ 100 साल से ज्यादा पुराने हैं। ये पेड़ सिर्फ ऑक्सीजन ही नहीं देते, बल्कि इनकी सूखी पत्तियां गर्मी के दिनों में जमीन पर गिरकर जमीन को ढक लेती हैं और जमीन की नमी को बनाए रखती हैं। बरसात आते ही ये पत्तियां गल जाती हैं और नई वनस्पतियों के लिए खाद का काम करती हैं। वे कहती हैं शिवालिक के भुरभुरे जंगल तेजी बारिश में भी कटते नहीं, इसकी वजह साल के यही पेड़ हैं, जिनकी जड़ें जमीन के अंदर मिट्टी को मजबूती से पकड़े रखती हैं। इसके अलावा भूजल स्तर बढ़ाने में भी साल की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। 

फिलहाल यह आंदोलन आगे क्या रूप लेगा, यह तो रविवार को होने जा रहे प्रदर्शन के बाद ही साबित हो सकेगा। अब असली सवाल यही है कि क्या देहरादून के लोग सरकार की इस बड़ी परियोजना को रोकने में सफल हो पाएंगे। दरअसल यह पूरा मामला स्पष्ट रूप से विकास बनाय विनाश का हो चला है। एक तरफ जंगल काटे जाने का विरोध कर रहे लोग हैं, जो कहते हैं कि जीवन की बलि देकर विकास नहीं किया जा सकता और ऐसे विकास का हर हालत में विरोध किया जाएगा। लेकिन, दूसरी तरफ ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जो चौड़ी सड़कों को विकास की धुरी मानते हुए सरकार के निर्णय के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। किसकी हार होगी और कौन जीतेगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। हालांकि हाल के वर्षों में सरकारें जिस तरह से जिद करती रही हैं और जनभावनाओं को दरकिनार करती रही हैं, उससे देहरादून के आंदोलनकारियों की राह काफी कठिन लग रही है।

(देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट की रिपोर्ट।)

त्रिलोचन भट्ट
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