‘धोरां री धरती’ ने भी भरी हुंकार

कल दौसा (राजस्थान) में किसान महापंचायत हुई और दिल्ली कूच का फैसला किया। इस आंदोलन में राजस्थान शुरू से सुस्त सा नजर आ रहा है, मगर अब राजस्थान भी करवट बदलने लगा है। आजादी से पहले राजस्थान में कई लंबे किसान आंदोलन चले। 1897 में सीताराम दास और रामनारायण के नेतृत्व में मेवाड़ रियासत में बिजौलिया किसान आंदोलन शुरू हुआ, जिसका 1916 में नेतृत्व भूपसिंह गुर्जर ने संभाला, जो विजयसिंह पथिक नाम से प्रसिद्ध हुए। यह किसान आंदोलन 1940 में आजादी के आंदोलन में बदल गया।

1921 में चित्तौड़गढ़ रियासत के बेगू में किसान आंदोलन हुआ। इसके बाद अलवर, बूंदी, मेवात, मारवाड़, सीकर/शेखावटी आदि आंदोलनों की श्रृंखला खड़ी हो गई। ताज्जुब की बात यह है कि इन आंदोलनों में कई मांगे मान ली जाती थीं, लेकिन आंदोलन आगे बढ़ता जाता था। ये सारे आंदोलन आगे जाकर आजादी के आंदोलन में परिवर्तित हुए और आजादी मिलने के बाद ही खत्म हुए।

आजादी के बाद किसान आंदोलन सरकार से कुछ मांगों को लेकर सीकर, गंगानगर, हनुमानगढ़ और बीकानेर इलाके में सीमित रूप से होते रहे हैं, लेकिन ऐसा कोई आंदोलन नहीं हुआ जिसने पूरे राजस्थान को व्यापक रूप से प्रभावित किया हो। जाति बाहुल्य इलाकों के रूप में किसानों के आंदोलन को यह कहकर सीमित कर दिया जाता था कि यह जाटों का आंदोलन, यह गुर्जरों का आंदोलन, यह मीणाओं आदि का आंदोलन है।

राजस्थान को वीरों की भूमि कहा जाता है, रणबांकुरों की भूमि कहा जाता है तो अनायास ही हमारा ध्यान राजा-रुजों की लड़ाइयों की तरफ सीमित हो जाता है। सीकर के खुड़ी-कुंदन, नागौर के डाबड़ा, चित्तौड़ के गोविंदपुरा, अलवर के नीमूचना आदि में सत्ता द्वारा किसानों पर गोलियां चलाई गईं और नरसंहार हुए, मगर किसान डटकर लड़े। न केवल तत्कालीन अंग्रेजों के गुलाम रजवाड़ों को झुकाया, बल्कि उनके हाथों से सत्ता छीनकर आजादी की उन्मुक्त फिजाओं को स्थापित किया।

देर से ही सही, लेकिन अब राजस्थान का किसान उठ रहा है। जगह-जगह किसान महापंचायत की जा रही है और करने की तैयारी चल रही है। ऐसी ही कल महापंचायत दौसा में हुई और हजारों लोग जुटे। देश के अलग-अलग हिस्सों में किसानों की अलग-अलग समस्याएं हैं, लेकिन अब महसूस किया जा रहा है कि लड़ना सामूहिक रूप से ही पड़ेगा।

  • प्रेम सिंह सियाग और मदन कोथुनियां
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