निर्वाचित निरंकुश हुक्मरानों को पसंद नहीं आती अभिव्यक्ति की आजादी

न्यायपालिका, विशेषकर, उच्चतम न्यायालय हमेशा ही अनुच्छेद 19 और 21 में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार और वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा का प्रबल समर्थक रहा है लेकिन हुक्मरानों को यह माफिक नहीं बैठता।लोकतंत्र में जनता के वोटों पर चुनकर आये निर्वाचित जनप्रतिनिधि कब निरंकुश व्यवहार करने लगेंगे यह उनके सत्ता सम्भालने पर ही सामने आता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को संविधान दिवस कार्यक्रम को संबोधित किया। प्रधानमंत्री ने खेद व्यक्त किया कि कुछ लोग राष्ट्र की आकांक्षाओं को समझे बिना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्र के विकास को रोकते हैं।ऐसे सोच के लोग कभी बोलने की आजादी के नाम पर तो कभी किसी अन्य चीज का सहारा लेकर देश के विकास में रोड़ा अटका रहे हैं।

दूसरी ओर इसी समारोह में  चीफ जस्टिस एन. वी. रमना ने कहा कि अदालतें कभी-कभी कार्यपालिका के काम में दखल देने के लिए मजबूर होती हैं। इस न्यायिक हस्तक्षेप को कार्यपालिका के कामकाज में दखल के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि न्यायिक हस्तक्षेप को इस रूप में नहीं पेश किया जाना चाहिए कि न्यायपालिका दूसरी संस्था को टारगेट कर रही है।

अब प्रधानमन्त्री मोदी शायद तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में सरकार और न्यायपालिका के टकराव से कोई सबक नहीं लिया है और भूल गये हैं कि केशवानंद भारती और गोलकनाथ केस में उच्चतम न्यायालय ने फ़ैसला कर दिया है कि संसद को संविधान ने बनाया है, न की संविधान को संसद ने।इसलिए सरकार पर न्यायपालिका की सर्वोच्चता है।इन निर्णयों ने   भारत के उच्चतम न्यायालय को दुनिया की सबसे शक्तिशाली संस्थाओं में से एक के तौर पर प्रतिष्ठित करने का काम किया है।

पीएम मोदी ने कहा कि ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास’ संविधान की भावना की सशक्त अभिव्यक्ति है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि केंद्र सरकार संविधान के लिए समर्पित है और विकास में भेदभाव नहीं करती है। उन्होंने कहा कि सरकार और न्यायपालिका, दोनों का ही जन्म संविधान की कोख से हुआ है ।इसलिए, दोनों ही जुड़वां संतानें हैं । संविधान की वजह से ही ये दोनों अस्तित्व में आए हैं । इसलिए, व्यापक दृष्टिकोण से देखें तो अलग-अलग होने के बाद भी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।मोदी जी तीसरी सन्तान को आप भूल गये कार्यपालिका  भी तो संविधान की सन्तान है ।

प्रकारांतर से पीएम मोदी राष्ट्रहित में सरकार द्वारा किये जा रहे कार्यों पर उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप पर बिना साफ़ साफ कहे आपत्ति दर्ज़ करा रहे थे।क़ानूनी हलकों में इसे प्रतिबद्ध न्यायपालिका की चाहत से जोड़कर देखा जा रहा है।   

उन्होंने कहा कि सरदार पटेल ने मां नर्मदा पर सरदार सरोवर डैम जैसे एक डैम का सपना देखा था, पंडित नेहरू ने इसका शिलान्यास किया था। लेकिन ये परियोजना दर्शकों तक अप-प्रचार में फंसी रही। पर्यावरण के नाम पर चले आंदोलन में फंसी रही।न्यायालय तक इसमें निर्णय लेने से हिचकते रहे।पीएम ने कहा कि दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश में भी ऐसी ही मानसिकता के चलते अपने ही देश के विकास में रोड़े अटकाए जाते हैं। कभी अभिव्‍यक्‍ति की स्वतंत्रता के नाम पर तो कभी किसी और चीज़ का सहारा लेकर।

दूसरी और इसी समारोह में चीफ जस्टिस एन. वी. रमना ने कहा कि अदालतें कभी-कभी कार्यपालिका के काम में दखल देने के लिए मजबूर होती हैं। इस न्यायिक हस्तक्षेप को कार्यपालिका के कामकाज में दखल के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि न्यायिक हस्तक्षेप को इस रूप में नहीं पेश किया जाना चाहिए कि न्यायपालिका दूसरी संस्था को टारगेट कर रही है।चीफ जस्टिस ने कहा कि अधिकारों के बंटवारे की लक्ष्मण रेखा को ‘पवित्र’ माना जाता है और कभी-कभी अदालतें न्याय के हित में हस्तक्षेप करने के लिए मजबूरी होती हैं। इसका इरादा कार्यपालिका को चेताने के लिए होता है, न कि उसकी भूमिका को हथियाने के लिए। उन्होंने चेताया कि न्यायिक हस्तक्षेप को इस तरह पेश नहीं किया जाना चाहिए कि न्यायपालिका दूसरी संस्था को निशाना बना रही है।

चीफ जस्टिस ने न्यायिक हस्तक्षेप को कार्यपालिका को निशाना बनाने के रूप में पेश करने के किसी भी प्रयास को लेकर आगाह किया। उन्होंने कहा कि यह पूरी तरह से गलत  है और अगर इसे प्रोत्साहित किया गया तो यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होगा।

उच्चतम न्यायालय कई मामलों में कह चूका है कि देश में किसी भी नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी को आपराधिक मामले थोपकर या अन्य उत्पीडनात्मक कार्रवाई से  नहीं दबा सकते। अभिव्‍यक्‍ति की स्वतंत्रता अपने भावों और विचारों को व्‍यक्‍त करने का एक राजनीतिक अधिकार है। इसके तहत कोई भी व्‍यक्ति न सिर्फ विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता है, बल्कि किसी भी तरह की सूचना का आदान-प्रदान करने का अधिकार रखता है। हालांकि, यह अधिकार सार्वभौमिक नहीं है और इस पर समय-समय पर युक्तियुक्‍त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं।

राष्‍ट्र-राज्‍य के पास यह अधिकार सुरक्षित होता है कि वह संविधान और कानूनों के तहत अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता को किस हद तक जाकर बाधित करने का अधिकार रखता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में, जैसे- वाह्य या आंतरिक आपातकाल या राष्‍ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर अभिव्‍यक्ति की स्‍वंतत्रता सीमित हो जाती है। संयुक्‍त राष्‍ट्र की सार्वभौमिक मानवाधिकारों के घोषणा पत्र में मानवाधिकारों को परिभाषित किया गया है। इसके अनुच्‍छेद 19 में कहा गया है कि किसी भी व्‍यक्ति के पास अभिव्‍यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा, जिसके तहत वह किसी भी तरह के विचारों और सूचनाओं के आदान-प्रदान को स्‍वतंत्र है।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

जेपी सिंह
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