लोकतंत्र की आंख में पानी बचाने और तालाब में ‎नया पानी ‎भरने के लिए ‎चुनाव

सामने 2024 का आम चुनाव है। केंद्रीय चुनाव आयोग मन-प्राण और प्राण-पण से स्वतंत्र, निष्पक्ष, निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न करवाने के लिए संघर्ष का समान अवसर (Level Playing Field)‎ बनाने में कोई कोताही नहीं छोड़ रही है। भ्रष्टाचार के मामले में शून्य-सहिष्णुता के सिद्धांत पर चल रही है। शून्य-सहिष्णुता के और भी कई प्रसंग हैं। उन प्रसंगों के क्रमवार अध्ययन की जरूरत है। माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश और आघात के बाद चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎के सारे विवरण भारतीय स्टेट बैंक को सार्वजनिक रूप से उगलने पड़े। अभी इस पर चर्चा ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि स्वयं प्रभु ने विपक्ष में खड़े रहने पर अड़े अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार कर आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) की मान्य सीमाओं का असाधारण अतिक्रमण ‎ करते हुए ऐसा मास्टर-स्ट्रोक लगाया कि सूचना का संसार थरथराकर भहरा गया।

असल में शराब घोटाला में धनशोधन के आरोपी हैदराबाद के कारोबारी पी. शरतचंद्र रेड्डी ‎माननीय अदालत की अनुमति से सरकारी गवाह बन गये थे। किसी-किसी सरकारी गवाह को अपना रुतबा किसी सरकारी अधिकारी से कम नहीं लगता है, आखिर वह भी तो सरकार की ही सेवा करता है। सरकारी गवाह महोदय ने प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) को बता दिया कि अरविंद केजरीवाल किंगपिन है। किसी चाइनिज नाम से कनफ्यूज करने की जरूरत नहीं है, किंगपिन का मतलब खुराफात की जड़। सरकारी गवाह की बात प्रवर्तन निदेशालय के लिए, महत्व की थी। इस तरह अरविंद केजरीवाल गिरफ्तार कर लिये गये।

फिलहाल माननीय अदालत ने उन्हें 28 मार्च 2024 तक रिमांड पर भेज दिया है। कोई आधिकारिक जांच तो अभी हुई नहीं है, लेकिन मिलानेवाले ने पी. शरतचंद्र रेड्डी के चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎में उनके कुल जमा उनसठ करोड़ दान का बहाव (ट्रेल) भ्रष्टाचार के महासागर भारतीय जनता पार्टी की ओर निकाल लिया। अब गुत्थी यह है कि भ्रष्टाचार किया अरविंद केजरीवाल ने और पैसा मिला भारतीय जनता पार्टी को! हो-हल्ला मचानेवाले, हो-हल्ला मचाते रहें, कोई बुरा नहीं मानेगा क्यों! क्योंकि महीना ही नहीं माहौल भी फागुन है। अभी इसकी कोई आधिकारिक जांच तो हुई नहीं है। सब होगा। वक्त लगेगा। सरकारी काम में वक्त तो लगता ही है।

हालांकि, अभी ‘पी एम केअर्स’ का डब्बा जस-का-तस है। फिर भी भारतीय जनता पार्टी को भ्रष्टाचार के महासागर होने का गौरव प्राप्त हो गया है। भारतीय जनता पार्टी को भ्रष्टाचार का महासागर होने का गौरव यों ही नहीं प्राप्त हुआ है। चुनावी चंदा (Electoral Bonds)‎ की ऐसी अभेद्य संरचना बनाना तो भारतीय जनता पार्टी ‎के भगीरथ पुरुषार्थ और पराक्रम के प्रताप से ही संभव हुआ। बाकी ने तो बहती गंगा में हाथ ‎धोने का ही काम किया है।

असल में चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎के भ्रष्टाचार का लाभ तो सभी राजनीतिक दलों को मिला है। इसके लिए उन्हें भारतीय जनता पार्टी का एहसानमंद होना चाहिए लेकिन ऐसे कृतघ्न हैं कि हाथ धोने के बाद भारतीय जनता पार्टी के पीछे हाथ धो के पड़ गये हैं। चुनावी चंदा (Electoral Bonds) जिसे अब माननीय सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक होने का खिताब दिया है, उसके खिलाफ राजनीतिक बयानबाजी चाहे जितनी हुई हो, लेकिन यह तो मुख्य रूप से एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR)‎ जैसी संस्था ने ही मोर्चा लगाया था। बाकी तो ‘खाते भी रहो, गोंगुआते भी रहो’ की नीति पर चल रहे थे। किसी को कम मिला, किसी को ज्यादा मिला, लेकिन मिला जरूर।

अब इस कम-ज्यादा में एक पेच है। पेच समझने और डालने में भारतीय जनता पार्टी का कोई जवाब नहीं है। उसे पेच गुरु कहा जा सकता है। सिद्धांत और हिसाब लगाने के लिए फार्मूला बनाने में भी पेच गुरु को महारत हासिल है। एक दिन देखा वे भक्ति-विह्वल पत्रकार को हिसाब समझा रहे थे। हिसाब यह कि प्रति सांसद के हिसाब से प्रतिशत में देखा जाये तो भारतीय जनता पार्टी की तुलना में अन्य दलों को ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं मिला है। अन्य दलों को करना ही क्या पड़ा है!

भारतीय जनता पार्टी के नेता 18-18 घंटे की साधना में लगे रहते हैं। ऐसे भ्रष्ट-योगी अन्य दलों में कहां! संसद से निकाल दिया! निकाल नहीं देते तो क्या करते! मंदिर में घुसकर नास्तिकता का प्रवचन कैसे करने दिया जा सकता है? एक समय, संसद में नोट लहराने का दिन और उसे न्यायिक विचार से परे माने जाने का दिन तो भारत ने देखा ही था। हिसाब लगाने का मकसद ऐसा लग रहा था कि चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎के मामले में सर्वदलीय और राष्ट्रवादी किस्म की सहमति और स्वीकृति बननी चाहिए।

कांग्रेस के बड़े प्रवक्ता और मीडिया प्रभारी या सिद्धांतकार जो भी कह लें, जयराम रमेश ने जोर दे कर कई बार दुहराया कि उनका दल कॉरपोरेट के खिलाफ नहीं है। इतनी बार और इस तरह से दुहराया कि समझने में कॉरपोरेट और करप्शन का अंतर ही मिट जा रहा था, वैसे भी अंतर बचा कहां है। फिर इशारा वही विकास का होना, जीडीपी का बढ़ना! ओफ् फिर वही विकास! कुछ लोगों के लिए इस विकास में दूसरों को लूटने और अपने निर्द्वंद्व विलास के अवसर से कुछ अधिक नहीं है! नैतिकता, कर्तव्य, धर्म और समाज कि चिंताओं को पास फटकने देने से रोकने की निष्ठुर अनैतिकता का समावेश इस विकास के चरित्र में है।

यह भ्रष्टाचार ही है, जिसके कारण यह देश अंग्रेजों के चंगुल में जा फंसा। 1757, पलासी का ‘युद्ध में भ्रष्टाचार’ की कथा का तो सब को विदित ही है। बिहार में विनोदानंद झा मुख्यमंत्री थे। श्रीधर वासुदेव सोनी मुख्य सचिव थे। विधान सभा में तब के विपक्षी नेताओं ने कोशी परियोजना के मुतल्लिक भ्रष्टाचार के आरोपों की झड़ी लगा दी। विनोदानंद झा की सरकार की छवि ईमानदार किस्म की थी। तब सूचना के अधिकार का जमाना नहीं था। सरकार ने जवाब देने के लिए सात दिन का समय मांग लिया। सात दिन में कैसे होगा?

प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरु सहित सारी नौकरशाही परेशान। सोनी साहब कड़क मिजाज अफसर थे, मुख्यमंत्री से आत्मीयता भी थी, उन्होंने मुख्यमंत्री से बताया कि सात दिनों में जवाब तैयार करने का काम असंभव है। मुख्यमंत्री ने कठोरता से कहा कि सात दिन बहुत होते हैं। सरकार जनता और विपक्ष के प्रति जवाबदेह होती है। कहते हैं कड़क मिजाज सोनी साहब के सारे अफसरों ने रात-दिन एक कर दिया। जिस दिन विधान सभा में जवाब देना था। उस दिन सोनी साहब का मुंह लटका हुआ था। मुख्यमंत्री सोनी साहब को सचिवालय में ही रहने को कहा। निजी सचिव उनके साथ थे। उनसे वे फाइल मांगते रहे। विधान सभा में जवाब देते रहे। थोड़ी-सी राशि के हिसाब के बारे में कहा गया कि अभी उसकी तलाश हो रही है। विपक्ष संतुष्ट हुआ। बाद में लज्जित सोनी साहब ने इन जवाबों का रहस्य जानना चाहा, वे फाइलें देखनी चाही जिसे देखकर मुख्यमंत्री ने विधान सभा में जवाब दिया था। तो, मुख्यमंत्री ने उनके मरने के बाद ही इसे जाहिर करने की शर्त पर बताया, उन फाइलों में रद्दी कागज थे। मुख्यमंत्री ने कहा जिन दस्तावेजों को सोनी साहब जैसा अफसर और दक्ष नौकरशाही की इतनी बड़ी टीम सात दिन में नहीं खोज पाई उसे विपक्ष के नेता कपिलदेव मिश्रा और कर्पूरी ठाकुर सात जन्म में भी नहीं खंगाल पायेंगे। सवाल राजनीतिक और काल्पनिक था, जवाब भी राजनीतिक और काल्पनिक था। यह तो तब कि बात है, जब “हम रहौं अचेत”!

इधर, बोफर्स का मामला भी लिया जा सकता है। मिस्टर क्लीन, राजीव गांधी के सामने नैतिकता के प्रतीक उनके मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जेब में भ्रष्टाचार के सबूत लेकर खड़े थे। भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का ऐसा उफान कि मिस्टर क्लीन की सरकार जाती रही। पीछे से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और सामने से अण्णा हजारे और अरविंद केजरीवाल का जो तूफान खड़ा हो गया कि लोग ‘मैं भी अण्णा, मैं भी अण्णा’ चिल्लाने लगे। भ्रष्टाचार के आरोप पर प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह सरकार के कई मंत्री जेल तक गये। बाद में डॉ मनमोहन सिंह की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार भी चली गई।

2014 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री के पद पर प्राण-प्रतिष्ठा के साथ शुरू हुई जो अभी अमृत-काल, 2024 में चल रही है। इन दस सालों में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) पर लगे भ्रष्टाचार का मामला माननीय अदालत में नहीं टिका। भ्रष्टाचार के आरोपी या तो भारतीय जनता पार्टी में शक्ति और सम्मान के साथ समायोजित होते गये, या विभिन्न सरकारी विभागों की कार्रवाइयों का नित्य सामना करते रहे! चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎के महासागर में पानी भरता रहा है।

चाणक्य ने कहा था कि जिस प्रकार से मछली के पानी पीने की चोरी का पता लगाना या ‎रोकना संभव नहीं है उसी प्रकार सरकारी कर्मचारियों के पैसा खाने को पकड़ पाना बहुत ‎मुश्किल है। ये तो उस जमाने की बात है। तब आज की तरह का लोकतंत्र नहीं था। मछलियों के ‎पानी पीने से तालाब नहीं सूखते हैं। अब तो तालाब का मालिक ही ‘पंप’ लगाकर सारा पानी ‎सोख लेता है। कोई भले ही “न ‎खाऊंगा, न खाने दूंगा” कहते फिरे, मस्त रहे लोकतंत्र के खुले गगन में!

असल में भ्रष्टाचार का ‎स्रोत पूंजीवाद और लोकतंत्र के तालमेल और सहमेल से फूटता है। विकास के लिए कॉरपोरेट ‎जरूरी है। जनता के लिए लोकतंत्र जरूरी है। चुनाव के लिए धन जरूरी है। कॉरपोरेट और ‎करप्शन का साथ रहना जरूरी है। करप्शन का विरोध अंततः कॉरपोरेट का विरोध हो जाता है। ‎ऐसी है, भयानक परिस्थिति! मन करे तो करे क्या? कितना करे मन की बात, छटांक भर का ‎मन नहीं और जमाने भर की बात कितने दिन, कितने दिन! यह ड्रामा और नहीं चल सकता! ‎

मजे की बात यह है कि यह सब चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎ का पर्दाफाश हो जाने के बाद भी सरकारी विभागों की कार्रवाइयां आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) के दिनों में भी शान से जारी है। जिस रामलीला मैदान में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार के अंत की पटकथा लिखी गई थी, उसी रामलीला मैदान में इं.ड.इ.आ (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) अपनी विजय गाथा लिखने की तैयारी में 31 मार्च 2024 को रैली करने जा रही है। एक तरफ अयोध्या के भव्य और दिव्य मंदिर में राम लला की प्राण-प्रतिष्ठा की राजनीतिक ताकत और दूसरी और विपक्षी गठबंधन की भ्रष्टाचार विरोधी रैली! नतीजा तो 4 जून 2024 को जैसा आयेगा या आने दिया जायेगा देखना दिलचस्प होगा। इस बार नई बात यह है कि सरकार ही मीडिया को कांख में दबाये विपक्षी गठबंधन पर अधिक जमकर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रही है। नतीजा तो 4 जून 2024 को आयेगा। ‎फिलहाल यह कि महान देश का महान दृश्य सामने है।

अर्थात, भारत एक महान देश है। यहां भ्रष्टाचार की एक-से-एक बढ़कर कहानियां सामने आती हैं और अपनी अमर कथा लिख जाती हैं। इन दिनों प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में तन्मय हो कर लगी है। इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में भ्रष्टाचारियों के पौ बारह हैं। ऐसी-ऐसी कहानियां अपने तेवर फटकार रही है कि भ्रष्टाचारियों के पराक्रम के ऐतिहासिक कीर्तिमान के पहाड़ बन रहे हैं। इतिहास में ‘महान भ्रष्टाचार युग’ की कथा और पुराण में भ्रष्टावतार के सहस्त्रनाम की छटाएं हतभागों के पुण्य के लिए प्रकट होंगी। बड़े-बड़े बौड़म कह उठेंगे, को बड़प्पन छोट कहत अपराघू!

भारत के चुनाव में मानव मेधा को मशीन मेधा की चुनौती की कथा भी कभी-न-कभी तो खुलेगी ही, जैसे चुनावी चंदा की कथा धीरे-धीरे खुल रही है। पानी के लिए पूरी दुनिया में एक अलग किस्म का हाहाकार मचा है। लोकतंत्र की आंख में पानी बचाने और तालाब में ‎‎नया पानी ‎भरने के लिए ‎मालिकाना का सवाल ‎सामने है। लोकतंत्र के तालाब का ही नहीं, आंख का भी पानी सूख रहा है। लोकतंत्र की आंख में पानी बचाने और तालाब में ‎नया पानी ‎भरने के लिए तालाब का मालिकाना बदलना जरूरी है। ‎मतदाताओं को अपनी नजर ‎और अपना नजरिया दोनों ही बदलना होगा। जो काम हाथ की अंगुली से हो सकता है, उसके लिए पूरा हाथ लगाना क्यों जरूरी हो जाता है! ‎अंततः लोकतंत्र में सब कुछ लोक अर्थात, ‘जनता जनार्दन’ की बटन दबाती अंगुली ही तय करती है। ‎

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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