सारे अधिकार स्थगित हो सकते हैं, लेकिन जीवन का नहीं

नोवेल कोरोना वायरस कोविड-19 महामारी, जहां देश में स्वस्थ लोगों के लिये परेशानी का सबब बनी हुई है, तो वहीं जो लोग दीगर बीमारियों से पीड़ित हैं, उन्हें भी इस बीमारी ने दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर दिया है। अस्पतालों में सारी सुविधाएं होने के बावजूद, उन्हें इलाज नहीं मिल पा रहा है। या उन्हें कहीं इलाज मिला भी है, तो उसमें बहुत देर हो गई। देश में रोज-ब-रोज ऐसे अनेक मामले सामने आ रहे हैं, जिनमें मरीजों को कोविड-19 बीमारी की वजह से कई परेशानियों का सामना करना पड़ा है। 

जब ऐसे लोग हर जगह से निराश हो गए, तो उन्होंने अदालत में अपनी गुहार लगाई। तब जाकर उन्हें इंसाफ मिला। उनकी बीमारी का इलाज मुमकिन हो सका। ऐसा ही एक संवेदनशील और चौंकाने वाला मामला, हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट के सामने आया। जिसमें अदालत ने सहानुभूतिपूर्ण आधार पर यह माना कि ‘‘पीड़ित, समाज के सबसे गरीब तबके से आता है और उसके पास इलाज के लिए वित्तीय संसाधन नहीं है। लिहाजा दिल्ली सरकार और संबंधित अस्पताल का उत्तरदायित्व बनता है कि पीड़ित को उचित इलाज मिले। क्योंकि यह उसका संवैधानिक अधिकार है। अस्पताल, मरीज को इलाज देने से इंकार नहीं कर सकता।’’ 

पूरा मामला इस तरह से है, पचपन साल के पटना निवासी नगीना शर्मा को 10 मार्च को दिल्ली में ब्रेन स्ट्रोक हुआ।12 मार्च को परिवार वाले उन्हें सरकारी अस्पताल, ‘लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल’ में इलाज के लिए ले गए। डॉक्टरों ने मरीज की गंभीर हालत को देखते हुए, 18 मार्च को उसकी सर्जरी करने और इसके साथ ही परिवार से चार यूनिट ब्लड का इंतजाम करने को कहा। लेकिन सर्जरी तय समय पर नहीं हुई। इस दरम्यान 24 मार्च को देश भर में लॉकडाउन लग गया।

लॉकडाउन के बाद, अचानक अस्पताल प्रबंधन ने 3 अप्रैल को मरीज को यह कहकर डिस्चार्ज कर दिया कि नोवेल कोरोना वायरस कोविड-19 की वजह से दिल्ली सरकार ने इस अस्पताल को अब कोविड-19 अस्पताल घोषित कर दिया है और इसमें अब कोरोना संक्रमित मरीजों का ही इलाज होगा। सिर्फ नगीना शर्मा ही नहीं, अस्पताल में उनके अलावा न्यूरो के और भी पांच मरीज थे, उन्हें भी यही वजह बतलाकर अस्पताल से जबर्दस्ती डिस्चार्ज कर दिया गया। नगीना शर्मा के परिवार वालों का इसके बाद असल संघर्ष शुरू हुआ। 

लोकनायक अस्पताल ने नगीना शर्मा को जीबी पंत अस्पताल में इलाज के लिए रेफर किया, लेकिन वहां उन्हें भर्ती करने से इंकार कर दिया गया। एक के बाद एक उनके परिवार वाले दिल्ली के कई अस्पतालों में इलाज के लिए ले गए, लेकिन उन्हें कहीं भी इलाज नहीं मिला। सभी जगह कोविड-19 महामारी का बहाना बनाकर, मरीज को लेने से इंकार कर दिया गया। नगीना शर्मा का परिवार जब हर तरफ से हार गया, तब उन लोगों ने दिल्ली हाई कोर्ट में मानवाधिकार कार्यकर्ता एडवोकेट श्वेता सांड के जरिए इंसाफ के लिए गुहार लगाई।

बहरहाल दिल्ली हाई कोर्ट में 21 मई को जब मामले की सुनवाई शुरू हुई, तो एडवोकेट श्वेता सांड ने अदालत के सामने पीड़ित का पक्ष रखते हुए कहा, ’’पीड़ित समाज का कमजोर तबके का व्यक्ति है। अस्पताल से पीड़ित को इलाज मिले, यह उसका संवैधानिक अधिकार है। संविधान का अनुच्छेद 21 भी उसे जीवन का अधिकार प्रदान करता है।’’ इस दलील के जवाब में प्रतिवादी की ओर से दलील दी गई कि ’’चूंकि पीड़ित व्यक्ति दिल्ली राज्य का मूल निवासी नहीं है, बिहार का रहने वाला है। लिहाजा यह दिल्ली सरकार का उत्तरदायित्व नहीं है।’’ दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद जस्टिस आशा मेनन ने दिल्ली सरकार और अस्पताल प्रबंधन को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा, ‘‘जब मरीज इतनी सीरियस हालत में था और उसे सर्जरी की जरूरत थी, तो उसे अस्पताल से डिस्चार्ज क्यों किया गया।

अस्पताल प्रबंधन, मरीज को जरूरत के मुताबिक इलाज से इंकार नहीं कर सकता।’’ इसके साथ ही अदालत ने अपने निर्देश में स्पष्ट तौर पर कहा, ‘‘जीवन का अधिकार, हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। सारे अधिकार स्थगित हो सकते हैं, लेकिन यह अधिकार स्थगित नहीं हो सकता। राज्य सरकार और अस्पताल की यह प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है कि जब किसी मरीज के सामने आपात स्थिति बनती है, तो वह इलाज से इंकार नहीं कर सकते। आपात स्थिति में अस्पताल प्रबंधन को सहानुभूति के आधार पर मरीज का इलाज करना चाहिए। यह इलाज उसे सही समय पर और मुफ्त मिलना चाहिए। अस्पताल मरीज से किसी भी तरह की कोई फीस या खर्चा न ले। अगर किसी तरह का कोई खर्च होता है, तो उसे दिल्ली सरकार वहन करे।’’ अदालत के इस महत्वपूर्ण निर्देश के बाद, पीड़ित नगीना शर्मा के परिवार को राहत मिली।

वरना, वे दो महीने से ज्यादा समय से दिल्ली में इलाज के लिए एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटक रहे थे। इतना संवेदनशील मामला होने के बाद भी, राष्ट्रीय राजधानी स्थित तमाम बड़े अस्पताल और डॉॅक्टर संवेदनहीन बने हुए थे। समझा जा सकता है कि जब राष्ट्रीय राजधानी में गंभीर मरीजों के साथ अस्पताल और डॉक्टरों का यह गैर जिम्मेदाराना बर्ताव है, तो देश के दूर-दराज क्षेत्रों में मरीजों का क्या हाल होगा ? उन्हें कैसे इलाज मिल पा रहा होगा? जबकि स्वास्थ्य देश के हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। भारतीय संविधान ने अनुच्छेद-21 के तहत जीने के अधिकार में ‘स्वास्थ्य के अधिकार’ को वर्णित किया है। जिसके तहत देश के प्रति व्यक्ति की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करना सरकार की जिम्मेदारी है। हर मरीज़ को बिना किसी भेदभाव के स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराना, सरकार की जिम्मेदारी है और कोई भी सरकार अपनी इस जिम्मेदारी से मुंह नहीं चुरा सकती। 

(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

ज़ाहिद खान
Published by
ज़ाहिद खान