नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए मोदी के पास ‘तबलीग’ है तो अमेरिका के पास ‘चीनी वायरस’ का मंत्र

बड़े-बड़े रणनीतिकार सिर्फ भारत में ही अपनी जनता को Covid-19 से जुड़े खतरे को लेकर मूर्ख नहीं बना रहे हैं। बल्कि जिस प्रकार भारत ने करोड़ों नागरिकों की जान माल और पुलिसिया कार्रवाई और भूख का अन्तिम हल निजामुद्दीन दरगाह से खोज निकाला है,  उसी राह पर अमेरिका भी है। पिछले दो महीने से ट्रम्प प्रशासन ने इसे ‘चायनीज वायरस’ बताकर अपनी पूरी पब्लिक को मूर्ख बनाने की कोशिश की है। उनका कहना है कि अंत में हम फायदे में ही रहने वाले हैं।

आज जैसे ही उसके यहां चीन के 82000 केस की तुलना में 225000 केस और मारे जाने वाले लोगों की संख्या 4000+ पहुंच गई है। अमेरिका का सारा मीडिया अब एक सुर में कोरस गा रहा है कि चीन में इससे कई गुना मारे गए हैं। चीन झूठ बोल रहा था, इसीलिए हम इतना गम्भीर नहीं रहे।। मरवा दिया हमें। वरना हम सोचते।

जबकि परसों ही वहाँ के लोग इस बात को लेकर ट्रम्प को गालियाँ दे रहे थे कि ये शख्स न्यूयॉर्क से लोगों को दूसरे राज्यों में आने जाने  की छूट देकर हम सबको मरवा रहा है, और इसका क्या भरोसा? कल को कह देगा ये तो न्यूयॉर्क वायरस है मित्रों!

लेकिन चीन ने एक बात जो उल्लेखनीय तौर पर की उस पर सारी दुनिया ने कोई ध्यान अभी भी नहीं दिया है, और शायद पूंजीवाद की यह सबसे बड़ी समस्या है। चीन को जैसे ही जनवरी में यह कन्फर्म हो गया कि हुबेई प्रान्त और खासकर वुहान इस महामारी का  एपिक सेन्टर है, उसने सिर्फ उस प्रान्त को सीलबंद कर डाला। हजारों डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ देश के बाकी हिस्से से मंगा लिए।

दो महीने की ताबड़तोड़ मेहनत ने एक तरफ उसे फोकस बनाये रखने में मदद की वहीं शेष चीन को अलर्ट लेकिन वहाँ उत्पादन कार्य होते रहे। अब इसकी तुलना भारत, अमेरिका और ब्राजील से करके देखिए कि वहाँ क्या-क्या किया गया, या किया जा रहा है? सारी दुनिया में एक तरफ ये अमीर देश सिर्फ टेस्टिंग, टेस्टिंग, टेस्टिंग पर जोर दे रहे हैं। पैसा फूंको और बक बक करो। हर हर कोरोना, घर घर कोरोना फैलाते रहो।

भारत ने ठीक उल्टा किया। न रहेगा बाँस, और फिर न बजेगी बाँसुरी।

खुद बच जाओ, चंद खास मित्रों टाइप लोग, बाकी मध्य वर्ग अगर लॉक डाउन में बच गया तो बोनस है। बाकी 80% का क्या है? राम भरोसे । तेरा राम ही करेंगे बेड़ा पार, उदासी मन काहे को करे……

लेकिन इन सबसे महान आत्मा कोई है तो वह ब्राजील के राष्ट्रपति बोलसनारो हैं।

आपका कहना है की लॉक डाउन की जरूरत ही क्या है ? हमें अपने उत्पादन को बनाए रखना चाहिए नहीं तो हम सब मारे जाएंगे। हमें वैसे भी यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि सिर्फ 60 से ऊपर की उम्र के लोग ही इस कोरोना वायरस से मारे जा रहे हैं। और हमारे देश में यह आबादी 10% है ।

और अगर इतना हिस्सा  चला भी जाता है तो क्या फर्क पड़ता है। यह महाशय सचमुच महान हैं। इन्होंने इस सम्बंध में  एक धेला भी खर्च नहीं किया है। भारत की तरह और ना ही अमेरिका की तरह बिना लॉक डाउन के  खरबों डॉलर का आर्थिक पैकेज ही घोषित किया है। इनका सिद्धांत है हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा होय।

एक आखरी बात तबलीगी जमात के बारे में कहनी है। पिछले 3 दिनों से ही पता चला कि यह कौन सी धार्मिक बीमारी है, अब चूंकि मुस्लिम समुदाय के नाम कुछ अलग से होते हैं वह हमारी तरह करतारपुर साहिब, अमरनाथ, शिव नगरी से कांवड़ यात्रा जैसे सैकड़ों पर्व या करोड़ों लोगों के कुंभ स्नान की तरह होते हुए भी उच्चारण से अरबी भाषा वाले होते हैं, इसलिए मन में बसे खौफ से उसके उच्चारण से ही कई गुना भय की उत्पत्ति होती है।

  खैर सवाल मेरा यह है के कि इन लोगों को लॉक डाउन की घोषणा होते ही अपने अपने घरों जो कि भारत में या दुनिया के किसी कोने में हो निकल लेना चाहिए था? पैदल ही क्योंकि ना तो बस थी, न ट्रेन, न बैलगाड़ी और ना ही हवाई यात्रा की सुविधा थी।

क्या करना चाहिए था इनको? या जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी जी ने कहा था जो जहां है वहीं रुक जाए 21 दिनों के लिए। चेन तभी टूटेगी, वरना अंजाम बहुत बुरा होगा। क्योंकि आपके दरवाजे के बाहर कोरोना झांक रहा है। क्या करना चाहिए था जो लोग इसके बावजूद 1000 की संख्या में देश के विभिन्न कोनों में गए हैं।

आज तमाम राज्य सरकारें उनकी तलाश में जुटी हैं। उनसे निवेदन कर रही हैं कि अपना पता बताओ तुम्हें क्वॉरेंटाइन करना है तुम्हारी जांच करनी है। पॉजिटिव पाए गए तो तत्काल इलाज करता है वरना यह लाखों-करोड़ों में फैल सकता है। साथ में तुम्हें अपराधी भी घोषित करने का पुण्य कमाना है।

अगर कोई समझदार हो तो इन दोनों ही स्थितियों में सोच सकता है। लेकिन एक जगह बने रहे तब भी  परेशानी, और चले गए तब भी परेशानी लेकिन क्या यह तो परेशानी 130 करोड़ लोगों के लिए है। क्योंकि आपको हमको सबको एक झुनझुना थमा दिया गया है तबलीगी जमात नाम का इसको बजाते रहिए। और चिंता छोड़ दीजिए कि आप बचेंगे या नहीं बचेंगे।

 अगर नहीं बचने की स्थिति होती है तो सारा इल्जाम लगाने के लिए लोग हैं ही। और अगर बच गए तो फिर तो सरकार की वाह वाह करने के लिए आप जिंदा रहेंगे। कुल मिलाकर अमेरिका, ब्राजील, भारत और चीन के पास अभी भी समय है तो हमें वुहान के प्रयोग से सीखना चाहिए। महानगरों में यह समस्या है लेकिन उस समस्या को अमीर से लेकर करीब तक को बिना भेदभाव के सारी सुविधा प्रदान करनी चाहिए। 

खाने-पीने की वस्तुएं मुहैया करानी चाहिए । जो काम हम 10 करोड़ को लॉक करके कर सकते हैं उसको हम 135 करोड़ को बंद कर कभी नहीं कर पाएंगे। लोग अपने-अपने बिलों से निकलने के लिए मजबूर हैं नहीं तो हम वैसे ही आर्थिक रूप से 1905 से भी खराब हालत में पहुंच गए हैं। 13 करोड़ से अधिक नए बेरोजगार बता रहे हैं विशेषज्ञ। फिलहाल हमारे पास कोई चारा नही सिवाय  रामायण महाभारत और शक्तिमान देखने के?

(रविंद्र सिंह पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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