गौतम भाटिया का लेख:राजनीतिक लड़ाई का हथियार बन रही है, कानूनी जंग

लॉफेयर(Lawfare) शब्द दो शब्दों को मिलाकर बना है। लॉ और वॉरफेयर। इसके मायने हैं अपने विपक्षी को डराने, नुकसान पहुंचाने और कानूनी रूप से अक्षम बनाने के लिए कानून या लीगल सिस्टम का सशस्त्रीकरण। संवैधानिक रूप से चल रहे सिस्टम में न्यायपालिका अलर्ट होती हैं,जिससे कि राजनेताओं को विपक्ष के खिलाफ वॉरफेयर का इस्तेमाल करने से रोका जा सके । 

राहुल गांधी को जिस तरह से सूरत की कोर्ट ने सजा सुनाई और बाद में संसद सदस्यता रद्द की गई, ये भारत में Lawfare का एक बढ़िया उदाहरण है।

पहले मानहानि के केस की बात करते है। साल 2019 में कर्नाटक के कोलार में दी गई एक पॉलिटिकल स्पीच के आधार पर  राहुल गांधी के खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई शुरू की गई। कानून के जानकारों ने इस प्रक्रिया के बारे में कई हैरानी पैदा करने वाले तथ्य सामने उठाए हैं। इसमें वो बात भी शामिल है कि किस तरह याचिकाकर्ता ने अपनी शिकायत पर एक साल का स्टे लिया। एक दूसरे जज का इन परिस्थितियों में सामने आना और फिर एक दम से मामले में कार्रवाई और फिर फैसला का आना ।

अगर इस सब को छोड़ भी दिया जाए, तो भी ये साफ है कि कानूनी पैमाने पर ये फैसला ठहरेगा नहीं। राहुल गांधी को ये कहने पर सजा का हकदार पाया गया कि, ‘ऐसा क्यों है कि सारे चोरों के नाम मोदी..मोदी…मोदी है। नीरव मोदी, ललित मोदी, नरेंद्र मोदी।’ ये भारतीय जनता पार्टी के नेता पूर्णेश मोदी की शिकायत पर हुआ। उनका कहना था कि अपने सरनेम की वजह, दूसरे लोगों समेत उनकी मानहानि हुई।

अगर ये पूरा तर्क बेकार लगता है तो, इसलिए कि ये बेकार तर्क है है। लोगों को बिना मतलब के मुद्दे में कोर्ट में घसीटने से बचाने के लिए, मानहानि का कानून एकदम साफ है, अगर इसका संदर्भ किसी क्लास के लोगों से जुड़ा है, तो एक शख्स इस बात का दावा नहीं कर सकता कि क्योंकि वो उस ‘क्लास’ के हैं इसलिए उनकी मानहानि हुई है। जैसे कि अगर मैं कहता हूं कि ”सारे वकील चोर हैं”। कोई वकील कोर्ट में ये नहीं कह सकता कि उनकी मानहानि हुई है ।

इसमें मोदी नाम के सारे लोगों का वर्ग बहुत ही अनिश्चित सिद्धांत की तरह सामने आता है। राहुल गांधी के बयान से ये भी जाहिर नहीं होता है कि मोदी नाम का हर शख्स अपने सरनेम की वजह से चोर है। हालांकि इस तर्क का सहारा लेकर कोई शख्स ये दावा कर सकता है कि उनकी निजी तौर पर मानहानि हुई है, ये अविश्वसनीय है, और कोर्ट ने इस शिकायत को जगह दी, ये और ज्यादा अजीब है।

सजा के तथ्य की बात अलग है और सज़ा की मात्रा अलग। क्रिमिनल मानहानि की सज़ा ज्यादा से ज्यादा दो साल तक होती है। हालांकि ये अधिकतम सज़ा कभी कभार ही दी जाती है। मोटे तौर पर मानहानि सिर्फ भाषण का अपराध है। और इस लिहाज़ से लोगों को लंबे समय के लिए सजा नहीं देना चाहिए वो भी इस आधार पर कि उन्होंने कुछ कहा है।

एक तरह से देखें तो क्रिमिनल डिफेमेशेन के संदर्भ में 2 साल की सजा देने के मामले ना के बराबर रहे हैं। जबकि सजा देना विवेकाधीन है, और सजा के लिए दिशा-निर्देश दुर्लभ हैं। ऐसे में कोर्ट का इस तरह अधिकतम सज़ा और ज्यादा अजीब है।

ये भी जनता के निगाह से बचा नहीं है कि सजा की मात्रा उतनी ही थी जितनी कि सांसद की अयोग्यता के लिए चाहिए थी। सजा मिलने के एकदम बाद संसद के सचिवालय ने सदस्यता खारिज करने का आदेश जारी कर दिया। उस वक्त तक तो जजमेंट का अनुवाद तक नहीं हुआ था  और जैसे कि लीगल एक्सपर्ट्स कह रहे हैं कि इस बात पर भी संशय है कि लोकसभा सचिवालय को फैसले की एक सर्टिफाइड कॉपी मिली भी थी कि नहीं।

रिप्रजेंटेशन ऑफ द पीपुल्स एक्ट के मुताबिक अगर किसी शख्स को न्यूनतम 2 साल की सजा मिली है, तो उसे उसकी सज़ा के पीरियड के लिए अयोग्य ठहराया जाएगा, और सजा खत्म होने के 6 महीने तक ये अयोग्यता जारी रहेगी। साल  2013 तक जन प्रतिनिधित्व कानून ये भी कहता था कि सजा मिलने के 3 महीने तक जन प्रतिनिधि को अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।

ऐसा तब भी होगा अगर इस मसले में कोई रिवीज़न पिटिशन दाखिल की गई है। इस प्रावधान के पीछे मकसद साफ था। संसदीय लोकतंत्र में किसी भी कानून बनाने वाली संस्था के जनप्रतिनिधि को अयोग्य ठहराया जाना एक बेहद गंभीर मामला है।

इससे ना सिर्फ लोगों के प्रतिनिधि के चुनाव के विकल्प सीमित होते हैं बल्कि जब तक उपचुनाव नहीं होते तब तक वो बिना किसी प्रतिनिधि के रहते हैं। और कोर्ट की वरिष्ठता क्रम में ये बात ध्यान रखते हुए कि जज भी इंसान हैं और गलतियां करते हैं। प्रतिनिधित्व कानून जनप्रतिनिधियों की अयोग्यता को तब तक ठहराव में ही रखते थे जब तक ऊपरी अदालत कोर्ट की ओर से दिए गए फैसले की समीक्षा ना कर ले, जांच ना ले।

हालांकि 2013 में लिली थॉमस की एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस सेक्शन को असंवैधानिक करार दे दिया। वकील पारस नाथ सिंह कहते हैं कि लिली थॉमस के केस में इस बात पर वाद विवाद हुआ था कि जनप्रतिनिधियों को मिलने वाले इस ग्रेस पीरियड को हटाने से राजनेता कोर्ट के फैसले की दया पर निर्भर हो जाएंगे।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सजायाफ्ता राजनेता हमेशा ऊपरी अदालत में जा सकता है। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि राजनीतिक प्रक्रिया के मसले में कोर्ट के हाथ में ज्यादा शक्ति आ जाती है, बल्कि राहुल गांधी के हालिया मामले से ही पता चलता है कि किस तरह फैसले के अनुवाद की कॉपी हासिल करने से पहले ही लोकसभा सचिवालय ने अयोग्यता का आदेश जारी कर दिया। राहुल गांधी के वकील को स्टे करने का भी मौका नहीं मिला। इससे कानून के समक्ष जिस प्रोटेक्शन की बात सुप्रीम कोर्ट ने उस वक्त की थी, वो कोरी कल्पना ही साबित हुई।

लिली थॉमस का जजमेंट ऐसे कई उदाहरणों में से जहां तथाकथित जनहित याचिका के जरिए सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया है। ऐसा सिस्टम को स्वच्छ और शुद्ध करने के मकसद से किया गया है। लेकिन इसने क्या किया है। इसने लॉफेयर को और आसान कर दिया है। राहुल गांधी के केस में तो ये एकदम साफ़ हो गया ।

इन्हीं वजहों से  राहुल गांधी के केस में सज़ा और अयोग्यता ठहराया जाना दरअसल राजनीतिक उठापटक के मद्देनज़र लॉ फेयर का सामान्यीकरण कर देना ही है। ये इसलिए चिंता का कारण है क्योंकि कोर्ट की मान्यता का एक पैमाना राजनीतिक पक्षों को लेकर उनकी निष्पक्षता होती है। हंगरी और पोलैंड के उदाहरण दिखाने के लिए काफी हैं कि कैसे ये प्रतिष्ठा एकदम से जा सकती है। ये न्यायपालिका को तय करना है कि जो यहां हो सकता है, उसे होने से कैसे रोका जाए ।

(गौतम भाटिया दिल्ली बेस्ड वकील हैं। ये लेख द हिंदू अखबार से लिया गया है। यह लेख ‘ए डिस्टर्बिंग एक्ज़ाम्पल ऑफ द नॉर्मलाइज़ेशन ऑफ लॉफेयर’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। अनुवाद- अल्पयू सिंह)

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