सत्ता पोषित पाखंड के दौर में एक नयी ज़मीन तोड़ने का वक्त़

बंद दिमाग़ी की गर्त में समाज

एक कठिन वक्त में जबकि अपनी आंखें खुली रखना, तर्कशीलता के रास्ते पर डटे रहना, समाज में वैज्ञानिक चिंतन की बातें कहने में संकोच न करना अपने आप में जोखिम भरा काम हो गया है। विगत छह सालों में हमने इसी के चलते पांच बेशकीमती योद्धाओं को खोया है। कई अन्यों के नाम सनातनियों, रूढ़िवादियों, अतिवादियों की हिट लिस्ट में शामिल रहने की बात भी उजागर हुई हो। उस वक्त़ विज्ञान के हक़ में आवाज़ बुलंद करते रहना निश्चित ही जोखिम का काम है।

हम सभी इन योद्धाओं के नाम से वाकिफ हैं, लेकिन फिर भी उनके नाम को दोहराना मौजूं होगा। वर्ष 2013 में पुणे की सड़कों पर दाभोलकर को। वर्ष 2015 में कोल्हापुर में कामरेड गोविंद पानसरे को। उसी साल धारवाड में प्रो. कलबुर्गी को। वर्ष 2016 में गौरी लंकेश को तो उसके कुछ माह बाद तमिलनाडु में फारूक को खोया है।

पहले के चार नामों से हम सभी वाकीफ हैं, लेकिन फारूक हमीद का नाम अधिकतर लोग नहीं जानते हैं।

फारूक हमीद पेशे से लोहे के कबाड़ के व्यापारी थे, मगर सूबा तमिलनाडु में पेरियार रामस्वामी नायकर के विचारों के वाहक एक संगठन द्रविडार विदुथलाई कझगम के कार्यकर्ता भी थे। समाज में तर्कशीलता का प्रचार करते थे। वह एक वाट्सऐप ग्रुप का संचालन करते थे, तमिल में जिसका शीर्षक था ‘खुदा नहीं है’। इसमें तमिलनाडु के अलग-अलग इलाकों में फैले 400 से अधिक लोग सम्बद्ध थे। इनमें अधिकांश मुस्लिम थे, और अधिकतर युवा थे। इसके जरिए वह तर्कशीलता की बातों को लोगों तक पहुंचाते थे। यही उनकी मौत का सबब बना।

विडंबना यही थी कि उनके साथ उठने-बैठने वाले दोस्तों ने ही उन्हें मार डाला। धर्म के चलते अंधे हुए अपने दोस्तों के हाथों ही वह मारे गए थे।

इन हमलों को आप महज तार्किकता पर हमले के रूप में नहीं देख सकते। हालांकि वह हैं। इन हमलों को आप धर्म की वैकल्पिक व्याख्या करने की कोशिश तक सीमित नहीं कर सकते, हालांकि वह हैं। दरअसल यह हमले इस बात पर हैं कि आप असहमत होने तथा उसे प्रकट करने का साहस करते हैं। विरोध में बोलने की हिमाकत करते हैं।

एक तरह से यह हमले समूचे समाज को बंद दिमागी के गर्त में ढकेले रखने के लिए हैं। एक राष्ट्र, एक जन, एक संस्कृति का भारत गढ़ा जा रहा है, उसके पालतू नागरिक बन कर रहें।

अंधेरे की आदत के वक्त़ में

इस दौर ए तरक्की के अंदाज़ निराले हैं

जहनों में अंधेरे हैं, सड़कों पे उजाले हैं

मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्य ऐसा प्राणी है जिसे सभी चीज़ों की आदत हो जाती है।

प्राचीन रोमन साम्राज्य के गुलामों के बारे में यह बात चर्चित है कि वह रफ्ता-रफ्ता ऐसी स्थिति में पहुंच जाते थे कि अपनी बेड़ियों को चमकाने में लग जाते थे। अंधेरे के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि लोग अंधेरे के आदी हो जाते हैं। काम भर की चीज़ें उसी अंधेरे में पहचान कर अपना काम चलाते रहते हैं, लेकिन यही बात भूल जाते हैं कि वह ‘अंधेरे समयों में रह रहे हैं।’

पिछले दिनों एक विद्वान मित्र ने सभा की शुरुआत अंधेरे को एक रूपक के तौर पर प्रस्तुत करते हुए इसी अंदाज़ में की। यह अंधेरा, हमारी युवा पीढ़ी के सामने खड़े अंधकारमय भविष्य का हो सकता है, जहां ख़बर आ रही है कि विगत छह सालों में नब्बे लाख नौकरियां कम हुईं।

यह अंधेरा, स्त्री विरोधी हिंसा के अधिकाधिक आम होते जाने का हो सकता है, जहां नये-नये बेहतर कानून भी बेअसर साबित होते दिखते हैं। यह अंधेरा, उस ‘स्वास्थ्य के आपातकाल’ हेल्थ इमर्जेंसी की मौजूदा स्थिति का माना जा सकता है, जो अब हम सभी के लिए नार्मल हो गया है, जब हमने तय किया है कि हम मास्क पहन कर निकला करेंगे और फिर यह संकट काफूर हो जाएगा।

यह अंधेरा, राक्षसी ताकतों के सामने विकल्पहीनता की स्थिति पैदा होते जाने का हो सकता है, जब वह डंके की चोट पर कह रहे हैं कि अब हम ही सभी के किस्मत के नियंता हैं और ताउम्र रहेंगे। फिलवक्त़ हम इस व्यापक अंधेरे की बात नहीं कर रहे हैं।

ऐसा नहीं कि इस पर बात करना जरूरी नहीं है बल्कि ज्यादा जरूरी है, मगर अभी हमारा फोकस थोड़ा सीमित है। समाज में बढ़ते विज्ञान विरोध से है, जब अतार्किकता, अंधश्रद्धा की तूती बोलती दिख रही है। आलम यहां तक आ पहुंचा है कि विज्ञान की उपलब्धियों को सिरे से नकारा जा रहा है।

विज्ञान को जिस तरह नकारा जा रहा है, उसे मददेनज़र रखते हुए मुझे आज से 130 साल पहले गुजरे राबर्ट ग्रीन इंगरसोल (1833-1899), जो तर्कशास्त्रिायों की पंक्तियों में अगली कतारों में मुब्तिला थे और जिन्होंने अंधश्रद्धा के खिलाफ ताउम्र अपनी जंग जारी रखी, द्वारा विज्ञान की अहमियत बताते हुए कही गई एक दिलचस्प बात याद आ गई…

‘हम जानते हैं कि जो कुछ हमारे पास मूल्यवान है वह सब हमें विज्ञान ने प्रदान किया है। विज्ञान ही एक मात्र सभ्य बनाने वाला है। इसने गुलामों को मुक्त कराया। नंगों को कपड़े पहनाए। भूखों को भोजन दिया। आयु में बढ़ोतरी की। हमें घर-परिवार-चूल्हा दिया। चित्र और किताबें, जलयान, रेलें, टेलिग्राफ, तार और इंजन जो असंख्य पहियों को बिना थके घुमाते हैं, और इसने भूत पिशाचों-शैतानों, पंखों वाले दैत्यों जो असभ्य जंगली लोगों के दिमाग पर छाए रहते थे, का नामोनिशान मिटा दिया।’

इसी लम्बे आलेख में उन्होंने यह भी लिखा था…

‘हम किसी स्वामी की रचना नहीं करते और खुशी-खुशी कृतज्ञतापूर्वक उसकी बेड़ियां नहीं पहनते। हम स्वयं को गुलामी में नहीं झोंकते। हमें न तो नेता चाहिए और न ही अनुयायी। हमारी इच्छा है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रति, अपने आदर्शों के प्रति सच्चा एवं सही रहे, वायदों के लालच में न आए, धमकियों की परवाह न करे। हमो धरती पर या आकाश में अत्याचारी की उपस्थिति नहीं चाहते।’

कोई यह पूछ सकता है कि विज्ञान की इतनी सारी बातें हो रही हैं, आखिर विज्ञान को, वैज्ञानिक नज़रिये को किस तरह समझा जा सकता है? हम इस संबंध में अंधश्रद्धा के खिलाफ संघर्ष में शहीद हुए डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के एक लंबे साक्षात्कार पर गौर कर सकते हैं। आठ अप्रैल 2013, जिसमें उन्होंने तमाम पाठकों के सवालों के जवाब दिए। पहला प्रश्न ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर केंद्रित था, जिसमें उन्हें पूछा गया कि ‘आखिर इस शब्द के क्या मायने हैं?’

दाभोलकर का जवाब था:

‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मायने दुनिया की तरफ एक अलग नज़र से देखना। कोपर्निकस जैसे महान वैज्ञानिक के पहले लोग समझते थे कि सूर्य पृथ्वी के इर्द-गिर्द घुमता है, जबकि उसने अपने गणितीय ज्ञान के आधार पर बताया कि दरअसल पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द घूमती है। कोपर्निकस की इस खोज के चलते दुनिया का केंद्र बिंदु बदल गया। इसके बाद विज्ञान के क्षेत्र में अलग-अलग खोजें हुईं, आविष्कार हुए। बीती सदी में यह नज़रिया इतना अहम बना कि भारत के संविधान में नागरिकों के कर्तव्य में भी इसे शामिल किया गया।

वैज्ञानिक द्रष्टिकोण को लेकर चार बातें कहीं जा सकती हैं…

1. ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ कार्यकारण संबंध। हर कार्य के पीछे कोई कारण होता है, उसके पीछे भगवान, नसीब, ऐसी कोई भी बात नहीं होती।
2. इस कारण को हम अपनी बुद्धि से समझ सकते हैं।
3. दुनिया के हर कार्यों के कारण समझना संभव नहीं होता। मिसाल के तौर पर, कैंसर क्यों होता है, इसकी वजह हमें आज मालूम नहीं। वैज्ञानिक नज़रिया इस मामले में हमेशा ही नम्र होता है, जो कहता है कि हम सत्य की अपनी खोज जारी रखेंगे।
4. वैज्ञानिक नज़रिया यह वास्तविक ज्ञान प्राप्ति का सबसे गारंटीशुदा रास्ता है और इसलिए वह मानवीय जीवन का सबसे अहम पहलू है।”

‘The greatest enemy of knowledge is not ignorance, but the illusion of knowledge’.

-Stephen Hawkings

विज्ञान विरोधी बातें कहना, अतार्किकता को बढ़ावा देना, सभी चीज़ों का हल अतीत की धर्मशास्त्र की किताबों में होने का दावा करना अब सम्मानित हो गया है। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसे लोगों में गोया कोई होड़ मची है, प्रतियोगिता चल रही है। अधिकाधिक बेतुकी बातें कहने की। कोई महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्य के युद्ध प्रसंगों का हवाला देते हुए इसमें इंटरनेट होने की बात कर रहा है। कोई डार्विन के सिद्धांत को यह कह कर प्रश्नांकित कर रहा है कि बंदर से आदमी बनते हमने तो देखा नहीं तो कैसे मानें।

तो कोई प्राचीन वक्त में विमान उड़ाने की टेक्नालॉजी हमारे पास होने की बात कर रहा है। तो कोई कैबिनेट पद पर बैठा शख्स झाड़-फूंक करने वालों को सम्मानित करने के समारोह की अध्यक्षता कर रहा है। तो कोई किसी सूबे में पूजा पाठ से बारिश की उम्मीद लगाए बैठा है। सूबे में हजारों मंदिरों में यज्ञों के आयोजन के लिए सरकारी खजाना लुटाता दिख रहा है। विज्ञान विरोध की बात, वैज्ञानिक नज़रिये से तौबा करने की बात महज सियासतदानों तक सीमित नहीं है।

विज्ञान कांग्रेसों का माहौल भी कई बार मिथकीय माहौल में रंगता दिख रहा है। हालत यहां तक आ पहुंची है कि विज्ञान कांग्रेस के बारे में भारतीय मूल के अमरीकी वैज्ञानिक नोबल पुरस्कार विजेता वेंकटरमन रामाकृष्णन ने कहा कि ‘वह एक सर्कस बन गया है, जहां विज्ञान की चर्चा नहीं होती।’

अभी आखरी विज्ञान कांग्रेस को देखें, जिसका जनवरी 2019 में जालंधर में आयोजन हुआ था। दो वैज्ञानिकों के वक्तव्यों ने हंगामा मचा दिया था। आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति जी नागेश्वर राव ने कहा कि प्राचीन भारत में टेस्ट टयूब बेबी थे। स्टेम सेल रिसर्च भी होता था। कन्नन कृष्णन ने बिना किसी सुबूत के यह दावा किया कि अल्बर्ट आईंस्टाइन, न्यूटन और स्टीफेन हॉकिंग के सिद्धांत गलत हैं। निश्चित ही न नागेश्वर राव और न ही कन्नन कृष्णन आज के समय में अपवाद कहे जा सकते हैं।

बिना बुनियाद ऐसी बातें स्थापित मंचों से कही जा रही हैं जिन्हें सुन कर मात्र ही दुनिया भर में भारत की तथा वहां जारी विज्ञान अध्ययन एवं अनुसंधान की हास्यास्पद छवि बनती दिख रही है। हकीकत यही है कि जब आस्था आप के चिंतन पर हावी होने लगती है तो आप आसानी से संदेह को त्याग कर, जिसे ज्ञान की पहली सीढ़ी कहा गया है, धर्म ग्रंथों की वरीयता के सामने सजदा करते जाते हैं, आप किसी भी बात पर यकीन करने लगते हैं।

इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गनाइजेशन के पूर्व प्रमुख माधवन नायर ने कुछ समय पहले एक सिद्धांत पेश किया था कि वेदों के कुछ श्लोकों में चंद्रमा पर पानी होने की बात स्पष्ट होती है। या किस तरह केंद्रीय विज्ञान और टेक्नोलॉजी मंत्री हर्ष वर्द्धन ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस के बीते अधिवेशन में यह कह कर सभी को चौंका दिया कि उसके कुछ वक्त पहले गुजरे महान कॉस्मोलोजिस्ट प्रोफेसर स्टीफन हॉकिंस ने कहा था कि वेदों में आईंस्टाइन से बेहतर समीकरण उपलब्ध हैं। बाद में जब उन्हें अपने ज्ञान के स्त्रोत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने इस सवाल को ही टाल दिया।

मशहूर विज्ञान लेखक साइमन सिंह, जिन्होंने खुद उसी संस्थान से अध्ययन किया है, जहां प्रोफेसर स्टीफन हॉकिंस कार्यरत थे, इस बात पर अफसोस प्रकट किया कि विज्ञान मंत्री को विज्ञान की इतनी कम जानकारी है। ‘यह बेहद दुखद है कि विज्ञान मंत्री एक महान वैज्ञानिक के इंतक़ाल के मौके पर अपना धार्मिक एजेंडा आगे बढ़ाते दिख रहे हैं।’

लगभग तीन साल पहले जनवरी 2017 में तिरूपति में आयोजित ‘भारत विज्ञान कांग्रेस’ के अधिवेशन को लेकर जानेमाने वैज्ञानिक और सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलेक्युलर बायोलॉजी के पूर्व निदेशक पीएम भार्गव, जिनका निधन हुआ, द्वारा इस संबंध में जारी बयान काफी चर्चित भी हुआ था, जब उन्होंने विज्ञान कांग्रेस में विज्ञान एवं आध्यात्मिकता जैसे मसलों पर सत्र आयोजित करने के लिए केंद्र सरकार तथा विज्ञान कांग्रेस के आयोजकों की तीखी भर्त्सना की थी।

उनका कहना था कि ‘मैं अभी तक चालीस से अधिक बार भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशनों को 1948 के बाद से उपस्थित रहा हूं मगर विज्ञान को अंधश्रद्धा के समकक्ष रखना एक तरह से भारतीय विज्ञान के दिवालियेपन का सुबूत हैं।’ उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि यह महज सरकार का दोष नहीं है, वैज्ञानिक समुदाय का भी है, जिन्हें ऐसे सम्मेलन में शामिल होने से इनकार करना चाहिए था। 

छदम विज्ञान को विज्ञान के आवरण में पेश किए जाने का असर वैज्ञानिक संस्थानों द्वारा मिलने वाली राशि की कटौती में हुआ है।

विज्ञान की नयी शाखा के तौर पर काउपैथी का आगमन या गोविज्ञान का इस क्लब में नया प्रवेश हुआ है। राष्ट्रीय स्तर के तमाम विज्ञान विभागों और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं ने इस संबंध में एक नए साझे कदम का ऐलान किया है। डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी द्वारा ‘पंचगव्य’ की वैज्ञानिक पुष्टि और इस सिलसिले में अनुसंधान को आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय संचालन समिति का गठन किया गया है। इस 19 सदस्यीय कमेटी का कार्यकाल तीन साल का होगा।   

वहीं दूसरी तरफ आलम यह है कि आईआईटी, एनआईटी और आईआईएसईआर जैसे प्रमुख विज्ञान-टेक्नोलॉजी संस्थानों की वित्तीय सहायता को घटाया जा रहा है। वैज्ञानिक शोध में सहायता के लिए विश्वविद्यालयों को फंड की कमी झेलनी पड़ रही है। डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, सेंटर फार साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च जैसे संस्थानों के पास अपने कर्मचारियों, वैज्ञानिकों की तनखाह देने के लिए पैसे के लाले पड़ रहे हैं।

उन सभी को कहा जा रहा है कि वह अपने आविष्कार और अन्य स्त्रोतों से अपने वेतन का एक हिस्सा जुटाया करें। एक अहम फरक यह भी आया है कि मौजूदा हुकूमत का जोर टेक्नोलॉजी के विकास पर है, उसके लिए संसाधन जरूर उपलब्ध किए जा रहे हैं, मगर बुनियादी विज्ञान पर खर्चा घटाया जा रहा है।

आध्यात्मिक सुपरमार्केट- जहां कभी मंदी नहीं आती

जाहिर है कि विज्ञान के ‘समझने-जानने’ के पहलू के बजाये उससे उपजी तकनीक से ‘काम करने’ पर जो जोर रहता आया है, उसी का यह प्रतिबिंब है। यह कहीं नहीं दिखता कि समाज वाकई वैज्ञानिक चिंतन को आत्मसात किए हुए है, वैज्ञानिक मूल्य समाज में स्वीकृत हो गए हैं। प्रयोगशाला में भौतिकी के प्रयोग करने वाला रिसर्चर या कक्षा में विद्यार्थियों को बेहद रुचि के साथ विज्ञान सिखाने वाला शिक्षक उतने ही समर्पित भाव से कक्षा के बाहर जाकर अपने परिवार में तमाम अवैज्ञानिक बातों को ओढ़े रखने में संकोच नहीं करता है।

अब अगर चंद्रयान भेजे जाने के पहले इसरो के कर्णधार चंद्रयान की एक छोटी अनुकृति बना कर तिरूपति मंदिर चढ़ाने पहुंच जाते हों, तो आम लोगों की क्या बिसात? यह नज़र नहीं आता कि मनुष्य अंधश्रद्धा के चंगुल से बाहर निकला है। वह अपना भविष्य बेहतर बनाने के नाम पर तरह-तरह के फ्रॉड लोगों, जिन्हें बाबा कहा जाता है, के चक्कर में नहीं पड़ रहा है।

अगर ऐसा होता तो क्या यह मुमकिन था कि ऐसे बाबाओं, साध्वियों की ऐसी बाढ़ आती, जिनके लिए लोग तमाम चीज़े न्यौछावर करने को हमेशा तत्पर रहते।

पिछले दिनों दक्षिण में अधिक लोकप्रिय एक स्वयंभू भगवान जिन्हें जनता ‘कल्की भगवान’ के नाम से जानती है, जिनके अनुयायी विदेश में भी फैले हैं, के तमाम आश्रमों पर इनकम टैक्स की तरफ से छापेमारी की गई और कई सौ करोड़ रुपयों की अघोषित आमदनी का पता चला।

इस ‘स्वयंभू भगवान’ के बारे में पता चला कि 70 के दशक में कहीं मामूली क्लर्क था और आज अरबों रुपयों की संपत्ति का मालिक है, उसके आध्यात्मिक समूह ने रियल एस्टेट और निर्माण जैसे क्षेत्रों में, भारत और बाहर विस्तार किया है और अब इस कारोबार को मुख्यतः उसका बेटा संभालता है। इन स्वयंभू गॉडमैन पर जमीनों पर कब्जा करने या नशीली दवाओं के तथा यौन अत्याचार के भी आरोप लगे हैं।

हम जानते हैं कि यह ‘स्वयंभू भगवान’ अकेले नहीं है। आज की तारीख में कई बड़े-बड़े ऐसे ही बाबा, जिनके समागमों में हजारों, लाखों लोग इकटठा होते रहते थे, जेल की सलाखों के पीछे हैं। किसी पर आरोप है कि उसने युवतियों से अत्याचार किया तो किसी पर आरोप है कि उन्हें उसने नपुंसक बनाया तो किसी पर लोगों की हत्या के आरोप लगे हैं।

विडंबना है कि इससे आध्यात्मिक सुपर मार्केट में कोई मंदी नहीं आई है। नये-नये बाबा और उनके नये-नये अनुयायी आते ही जा रहे हैं। दस साल पहले एक अग्रणी पत्रिका ने एक सर्वेक्षण करके बताया था कि कितने लाख लोग इस अलग किस्म के सुपर मार्केट में सेवा प्रदाता बने हैं। कोई ‘तुरंत निर्वाण’ की बात करता है। तो कोई ‘जीने का सलीका’ सिखाने की बात करता है। तो कोई किसी अन्य मार्केटिंग स्ट्रैटजी के साथ हाजिर होता है।

एशिया के इस हिस्से में बाबाओं की इस कारस्तानियों को लेकर ‘जो चमत्कार, योग-शक्ति, काले इलम, जादू टोना, भूत-प्रेत, टेलिपैथी एवं धार्मिक पाखंडों से भोले-भाले लोगों को लूटते हैं’ जिनमें ‘वे अध्यापक, प्रचारक, पादरी, संत, महंत, सिद्ध, गुरु, ऋषि, स्वामी, योगी और पंडे इत्यादि शामिल हैं’। प्रोफेसर अब्राहम कोवूर का नाम कई दशकों से चर्चित रहा है। उन्होंने ऐसे तमाम फ्रॉड बाबाओं को बेपर्द करने में जिंदगी का अच्छा खासा हिस्सा अर्पित किया।

आप ने ‘अलौकिक शक्तियों का दावा करने वाले लोगों को बेपर्दा करने के लिए, अपने चमत्कार साबित करने के लिए, अच्छी खासी रकम इनाम के तौर पर प्रस्तावित की, जिनकी कहानियां सनसनी फैलाने वाली पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती थीं। यह अलग बात है कि उनकी इस चुनौती को स्वीकार करके चमत्कार साबित करने वाला कोई भी व्यक्ति सामने नहीं आया। उनकी बहुचर्चित किताब रही है ‘बीगोन गॉडमेन’ और देव पुरुष हार गए। इसमें उनके ऐसे कई प्रयासों पर नज़र डाली गई है।

मालूम हो कि केरल में जन्मे कोवूर को इस बात की तकलीफ थी कि इन दिनों अपने आप को देवताओं के अवतार के रूप में घोषित करने का सिलसिला जोर पकड़ रहा है और जो साफ मानते थे कि ‘‘इन पाखंडियों के कार्य मुजरिम, डाकू, ठग, स्मगलर, जेब कतरे और काला धंधा करने वालों जैसे ही हैं, लेकिन फिर भी सरकार इन पर मुकदमा चलाने में बेबस होती है। लोकतांत्रिक ढांचे में, जहां बहुसंख्या धर्म के श्रद्धालुओं की हो, तो ऐसे में पाखंडी अपने इस ‘व्यापार’ को दंड के बिना चला सकते हैं।

यह एक बेहद सकारात्मक था कि उनके अभियान ने दक्षिण एशिया के इस हिस्से में कई प्रयासों, कोशिशों को आगे बढ़ाया।

(लेखक वामपंथी विचारक हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

जारी है…

सुभाष गाताडे
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सुभाष गाताडे