मजदूर दिवस से पहले सरकारी सौगात, मजदूरों की बस्ती पर चला बुलडोजर

नई दिल्ली। सत्ता का प्रतीक और राजनीतिक हथियार से इतर बुलडोज़र आतंक का पर्याय बन चुका है। विकास की अवधारणा लेकर बनाये गये प्राधिकरण विनाश की पटकथा लिख रहे हैं। मज़दूर दिवस के ठीक एक दिन पहले यानि 30 अप्रैल को दिल्ली विकास प्राधिकरण और दिल्ली पुलिस प्रशासन पूरे दल-बल के साथ 18 बुलडोज़र लेकर दिल्ली के तुगलकाबाद पहुंचा और लगभग 1000 घरों को तोड़ दिया।

सिर्फ़ इतना ही नहीं मौके पर भारी संख्या में तैनात पुलिस बल ने महिलाओं और युवाओं को हिरासत में ले लिया। डीडीए और ‘आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ ने मिलकर ग़रीब मज़दूरों के आवास को गिराने जो योजना बनायी है उसके मुताबिक यह ‘डिमोलिशन ड्राइव’ अगले तीन से चार दिनों तक चलेगी। क्योंकि इनका सभी घरों को तोड़ने की योजना है।

तुगलकाबाद के रहने वाले लक्ष्मण कुमार का कहना है कि “इस बारिश में हम लोग अपने छोटे-छोटे बच्चों और बीमार बूढ़े मां बाप को लेकर कहां जाएं।” वो केंद्र सरकार को क़सूरवार ठहराते हुए कहते हैं कि “भारत सरकार चाहती तो जल्दी ही तुग़लकाबाद के गरीब लोगों के लिए नई पॉलिसी बनाकर उनका पुनर्वास करती। किंतु राजनीति के चलते ग़रीबों को बेदख़ली का शिकार होना पड़ रहा है।”

बुलडोज़र के विध्वंसकारी अभियानों का बच्चों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव को उजागर करते हुए सुमन देवी बताती हैं कि “तुग़लकाबाद में हुई विनाश लीला को देखकर उनके बच्चे बेहद डरे हुए और सदमें में हैं।” वो बताती हैं कि “लगभग 20,000 घर ख़तरे में है। इन 20 हजार घरों को तोड़ दिए जाने से एक लाख से ज्यादा लोगों को बेघर होना पड़ेगा। लेकिन सभी लोग अचानक और एक साथ विरोध में न उतर आयें इसलिए सभी को बताया नहीं जा रहा है।”

सुमन बताती हैं कि “अभी केवल 1248 घरों को नोटिस दिया गया है। लेकिन बिना पर्याप्त समय दिए डीडीए मनमर्जी से दिहाड़ी मजदूरों के घरों को तोड़ रहा है।” वो अपनी बेबसी और गुस्से का इज़हार कर कहती हैं कि “ग़रीबों का पुनर्वास इस जन्म में अब सरकार नहीं करेगी।” अब उनकी नज़र देश की न्यायपालिका की ओर है। वो कहती हैं कि “इस मसले पर कोर्ट को ‘सुओ-मोटो’ लेकर संज्ञान लेना चाहिए।”

दिल्ली के तुग़लकाबाद गांव में पिछले कई सालों से मज़दूर और मज़लूम लोगों पर बेदख़ली की गाज़ गिरती आ रही है। यहां कई दशक पहले ग़रीबी और भूख लिए देश के तमाम राज्यों के गांवों से निकलकर हज़ारों मज़दूर राजधानी दिल्ली अपनी रोटी कमाने आये। यहां शोषण की हद पर मिलने वाली दिहाड़ी में जब किराये के कमरे लेकर रहने की कूव्वत नहीं रही तो तुगलक़ाबाद में झुग्गी डालकर परिवार संग रहने लगे। लेकिन बिना इन लोगों का पुनर्वास किए डीडीए ने सैकड़ों घरों को तोड़ दिया।

मज़दूर आवास संघर्ष समिति के संयोजक निर्मल गोराना डीडीए के इस क़दम की निंदा करते हैं। वो कहते हैं कि “कोर्ट के एक आदेश को लागू करने के लिए दूसरे आदेश को अपने पांव से रौंद डालना अपराध है। जो डीडीए ने किया है।”

गोराना इस मसले पर जनचौक को विस्तार से बताते हैं। “एस.एन.भारद्वाज बनाम ‘आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने दिनांक 24 अप्रैल 2023 को तुग़लकाबाद के घरों को चार सप्ताह में हटाने का आदेश दिया है। लेकिन कोर्ट ने यह नहीं बोला है कि सरकार बिना पुनर्वास के क्रूरतम रूप से मज़दूर और ग़रीब लोगों की बेदख़ली कर दे।”

‘मज़दूर आवास संघर्ष समिति’ के संयोजक आगे कहते हैं कि “सरकार की ड्युटी है कि वो माननीय उच्चतम न्यायायलय द्वारा पूर्व में दिए गए पुनर्वास के फैसलों का उल्लंघन न होने दे। लेकिन सरकार पुराने आदेशों का उल्लंघन करके नए आदेश को लागू कर रही है। ये मानवाधिकारों का सरासर उल्लंघन है।” वो आगे कहते हैं कि “सरकार ने एक आदेश को लागू कर दूसरे आदेश की हत्या की है। और यह अपराध है। ‘मज़दूर आवास संघर्ष समिति’ इसका पुरज़ोर विरोध करती है।”

इस समिति’ के प्रतिनिधि बताते हैं कि “दिल्ली की सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट में मजदूर आवास समिति के मामले में यह सबमिशन लिखित रूप से दिया है कि जल्द ही चयनित परिवारों को पुनर्वास प्रदान किया जाएगा। लेकिन डीडीए ने दिल्ली सरकार को पुनर्वास का वक्त भी नहीं दिया और जबरन बेदख़ली कर डाली।” वे लोग सवाल उठाते हैं कि “आखिर डीडीए आदेश को लागू करने में इतनी उतावली क्यों हो रही है? बारिश में हजारों घरों को तोड़कर 5000 लोगों को बेदख़ल करना मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं तो और क्या है।”

आवास संघर्ष समिति ने कहा कि दिल्ली में खाली पड़े 28000 घरों में तुग़लकाबाद से बेदख़ल किये जा रहे तमाम परिवारों को पुनर्वासित क्यों नहीं किया जा सकता है। लेकिन उनकी मांग पर न तो केंद्र की सरकार जवाब दे रही है और न ही राज्य की सरकार। ‘मजदूर आवास संघर्ष समिति’ मांग करती है कि पहले इन सभी परिवारों को घर दिया जाए फिर विस्थापन की बात हो।

‘मजदूर आवास संघर्ष समिति’ की प्रतिनिधि और तुग़लकाबाद गांव की रहने वाली रेणु देवी बताती हैं कि वो लोग सुप्रीम कोर्ट में ‘एसएलपी’ फाइल करेंगी। वो दावा करती हैं कि सुप्रीम कोर्ट ज़रूर उन लोगों के पुनर्वास के मुद्दे को समझेगा। मज़दूर दिवस की पूर्व संध्या पर डीडीए एवं ‘आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ ने जो निर्णय लिया और जो क़दम उठाया वो निंदनीय है।

निर्मल गोराना कोर्ट के रुख पर सवाल खड़े करते हुए कहते हैं कि सरकार तो असंवेदनशील है ही किंतु कोर्ट ने भी बेदख़ल परिवारों के प्रति अपनी कोई जवाबदेही नहीं समझी। वो दलील देते हैं कि न्यायालय में अंतिम व्यक्ति के हितों और कोर्ट द्वारा दिए गए पूर्व आदेशों को ध्यान में रखकर फैसले लिए जाते है।

किंतु कोर्ट का यह फैसला दिहाड़ी मजदूरों के परिवारों के मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है। दिल्ली हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला सुदामा सिंह और अजय माकन जैसे फैसलों की हत्या है। डीडीए की कार्रवाई भी न्यायोचित नहीं है।

ऐक्टू की टीम ने इलाके का किया दौरा

‘ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस’ (ऐक्टू) की एक टीम ने जिसमें आकाश भट्टाचार्य, नेहा तिवारी और फरहान अकील शामिल थे, इस क्षेत्र का दौरा किया और घरों की तबाही अपने सामने होते हुए देखी। बुलडोजर चलने से पहले लोग अपना फर्नीचर, पानी की टंकियां और घर का सारा सामान ले जाने के लिए दौड़भाग कर रहे थे। वे उन्हें एक गंदे मैदान में, बारिश में फेंक रहे थे, यह ना जानते हुए कि आगे क्या करना है।

ऐक्टू ने कहा कि यह साफ तौर पर मजदूर वर्ग पर हमला है। यह शर्मनाक है कि 1 मई, अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर सरकार मज़दूरों के घरों पर बुलडोज़र चला रही है और अदालतें मज़दूरों के साथ खड़े होने में विफल हो रही हैं। ऐक्टू ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि दीर्घकालीन पुनर्वास योजना बनने तक डिमोलिशन पर तत्काल रोक लगाई जाए और विस्थापितों का पुनर्वास किया जाए।

क्या है पूरा मामला?

11 जनवरी 2023 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने ऐतिहासिक तुगलकाबाद किले के 100 मीटर के क्षेत्र के भीतर सभी “अनाधिकृत” घरों को खाली करने का नोटिस जारी किया। निवासियों को 15 दिनों के भीतर अपनी लागत पर परिसर खाली करने के लिए कहा गया था।

इसके बाद, लोगों ने डिमोलिशन से पहले पुनर्वास के लिए अदालतों से गुहार लगाई। हाईकोर्ट ने डीयूएसआईबी, डीडीए और एएसआई को एक साथ बैठकर समाधान निकालने को कहा था। डीयूएसआईबी (DUSIB) ने प्रस्तुत किया कि उनके आश्रय गृह विस्थापित लोगों को समायोजित करने के लिए तैयार हैं। आश्रय गृह अस्थायी घर हैं और किसी भी तरह से स्थायी समाधान नहीं हैं।

अस्थायी पुनर्वास प्रदान करने में भी DUSIB की भूमिका अब तक खराब रही है। विस्थापित लोगों को बहुत दूर स्थित आश्रय घरों में भेजा गया है जो उनके कार्यस्थलों और उन स्कूलों से बहुत दूर हैं, जहां उनके बच्चे पढ़ते हैं। जाहिर है, कोई समाधान नहीं मिला है और फिर भी डिमोलिशन शुरू हो गया है।

तुगलकाबाद के रहने वाले मजदूर हैं जो पूरे शहर को चलाते हैं। ये मज़दूर पिछले तीन दशकों में बिहार, बंगाल और नेपाल से आए और उन्होंने आवास की बुनियादी आवश्यकता को पूरा करने के लिए स्थानीय जमींदारों से जमीन खरीदी। वे ज्यादातर घरेलू कामगार, निर्माण मज़दूर, दिहाड़ी मजदूर हैं, जो न केवल शहर में अपना जीवन यापन करते हैं बल्कि शहरी अर्थव्यवस्था को भी चलाते हैं।

यदि सरकार सभी के लिए आवास प्रदान करने के अपने कर्त्तव्य को स्वीकार करने से इनकार करती है, तो कम लागत वाले निजी आवास ही एकमात्र तरीका है जिससे मज़दूरों को अपने सिर पर छत मिल सकती है। उनके वोटर-आई कार्ड, आधार कार्ड, बिजली बिल, सभी में उनके घर का पता होता है। सरकार बाद में यह कैसे घोषित कर सकती है कि सरकार द्वारा जारी किए गए पहचान पत्रों में पते ‘अवैध’ हैं?

अतिक्रमित क्षेत्र में है बीजेपी सांसद का घर

जमीन उन्हें स्थानीय जमींदारों द्वारा बेची गई थी, जिन पर इस तरह के ‘अवैध’ लेनदेन में भाग लेने पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। तुगलकाबाद किले के आसपास के ‘अतिक्रमित’ क्षेत्र में एक सरकारी स्कूल और औषधालय के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसद रमेश बिधूड़ी के घर भी हैं। इनमें से कोई भी इमारत डिमोलिशन के लिए निर्धारित नहीं की गई है।

(सुशील मानव जनचौक के वरिष्ठ संवाददाता हैं।)

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