गुवाहाटी हाईकोर्ट का फैसला : चौंकाती है बलात्कारी को ज़मानत दिलाने वाली ‘प्रतिभा’

गुवाहाटी हाईकोर्ट ने बहुत आश्चर्यजनक तरीके से बलात्कार के मुजरिम को ज़मानत दी है। यह मानते हुए ज़मानत दी गयी है कि प्रथम दृष्ट्या बलात्कार के सबूत स्पष्ट हैं। ज़मानत के दो आधार गुवाहाटी हाईकोर्ट ने दिए हैं- एक, बलात्कार के आरोपी छात्र की कम उम्र और दूसरा, आरोपी छात्र का प्रतिभाशाली होना। चिंताजनक बात यह है कि बलात्कार जैसे संगीन जुर्म, पीड़िता और समाज पर उसके दुष्प्रभाव की बिल्कुल अनदेखी कर दी गयी।

निर्भया केस में बलात्कार के आरोपियों में सबसे अधिक क्रूरता का आरोप सबसे कम उम्र के आरोपी पर था जो नाबालिग था और इस वजह से उसे बाल सुधार गृह भेज दिया गया। तब यह सवाल जोर-शोर से उठा था कि बलात्कार जैसा संगीन अपराध करते समय जब नाबालिग का व्यवहार बालिग जैसा है तो अपराध के बाद ऐसे नाबालिग से बालिग जैसा सलूक क्यों न किया जाए?

ताजा बलात्कार केस में पीड़िता गुवाहाटी आईआईटी की छात्रा है तो छात्र भी उसका सहपाठी है। एक समारोह की रूपरेखा पर चर्चा के बहाने छात्र 28 मार्च 2021 की रात अपनी सहपाठी को बुलाता है। उसे जबरन नशे वाला ड्रिंक पिलाता है और फिर बलात्कार करता है। गुवाहाटी हाईकोर्ट ने अभियुक्त और पीड़िता दोनों को प्रतिभाशाली बताया है और उनकी कम उम्र 19-22 साल का हवाला दिया है। अदालत का कहना है कि जांच पूरी हो चुकी है। गवाहों के नाम सामने आ चुके हैं। ऐसे में इस बात की संभावना नहीं है कि अभियुक्त को जमानत देने से केस पर असर होगा। इसलिए इतने प्रतिभाशाली छात्र को, जो देश की संपत्ति है, जेल में नहीं रखा जाना चाहिए।

कई सवाल उठते हैं-

बलात्कार पीड़िता प्रतिभाशाली छात्रा के साथ न्यायालय की हमदर्दी क्यों नहीं दिखी?

पीड़िता का कम उम्र होना अदालत को बेचैन क्यों नहीं कर पाया?

प्रतिभाशाली छात्रा का बलात्कार अदालत को क्यों नहीं संगीन लगा?

अभियुक्त का ‘प्रतिभाशाली’ होना सहानुभूति की वजह कैसे बन गया?  

अदालत की ओर से जमानत देने का यह ऐसा उदाहरण है कि आने वाले समय में आईआईटी जैसे संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र बलात्कार जैसे व्यभिचार के लिए प्रेरित हो सकते हैं। वे खुद को प्रतिभाशाली मानेंगे और ऐसे अपराध के बाद अदालत के सामने रखने के लिए उनके पास नज़ीर भी होंगी। प्रतिभाएं देश की संपत्ति होती हैं लेकिन बलात्कार करने की ‘प्रतिभा’ वाला छात्र अगर देश की संपत्ति है तो ऐसी संपत्ति को नष्ट कर देने में समाज का भला है या कि इसका पोषण करने में?

प्रतिभा क्या चोरों में नहीं होती?

प्रतिभा क्या चोरों में नहीं होती? क्या डकैत में साहस कम होता है? क्या हैकरों में कम प्रतिभा है? क्या विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी जैसे लोगों में प्रतिभा नहीं थी? कदाचार, व्यभिचार जैसे दुर्गुणों में लिप्त होकर प्रतिभाएं अपनी उपयोगिता खो देती हैं और वह समाज व देश के लिए हानिकारक हो जाती हैं। ऐसी प्रतिभाएं अगर जमानत देने का आधार बनने लग जाएं तो सारे खूंख्वार मुजरिम जेल से बाहर नज़र आएं। जेल में वही नज़र आएंगे जो कम पढ़े लिखे मुजरिम होंगे।

हालांकि व्यावहारिक तौर पर ऐसा ही है कि जेलों में गरीब और सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों के लोग ही अधिक संख्या में बंद हैं। इसका मतलब यह है कि गुवाहाटी हाईकोर्ट का उदाहरण खुलकर पहली बार सामने आया है। व्यवहार में ‘प्रतिभा’ को सम्मान देने की इस किस्म की प्रैक्टिस चलती रही है।

जो ‘प्रतिभाशाली’ छात्र अपनी प्रतिभाशाली सहपाठी के साथ बलात्कार करने से परहेज नहीं करता तो कल्पना कीजिए कि अदालत के ताजा रुख के बाद अगर उसका दुस्साहस बढ़ जाए और वह किसी और प्रतिभाशाली (प्रतिभाविहीन भी) लड़की के साथ दोबारा बलात्कार कर बैठे तो इसका जिम्मेदार कौन होगा? तब क्या प्रतिभाशाली मुजरिम को जमानत देने वाली अदालत खुद को अपराध को उकसाने का जिम्मेदार मान पाएगी? अगर नहीं, तो क्यों? और, हां। तब भी उसका क्या फायदा?

स्टेन स्वामी जैसी प्रतिभा का अदालत में क्यों सम्मान नहीं हुआ?

कम उम्र जमानत का आधार हो सकता है तो 80 साल या इससे अधिक उम्र जमानत का आधार क्यों नहीं हो सकता?  84 वर्षीय स्टेन स्वामी जैसे अंतरराष्ट्रीय सामाजिक कार्यकर्ता की प्रतिभा और उम्र अदालत को क्यों नहीं दिखी? क्यों उन्हें जमानत नहीं दी गयी? क्यों जेल में कोरोना पीड़ित होने और मरने के लिए छोड़ दिया गया? एक सीपर (पीने के लिए पाइप) देने में भी अदालत को डेढ़ महीने का वक्त क्यों लगा?

स्टेन स्वामी तो गुजर गये। सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, रोना विल्सन, शोमा सेन, सुरेंद्र गडलिंग, महेश राउत, सुधीर धवले जैसे विद्वान और सामाजिक कार्यकर्ता भी अदालत की निगरानी में अनसुने हैं और जेल में भी। इन उदाहरणों में ‘प्रतिभा’ परखने की क्षमता अदालत क्यों नहीं दिखा पायी है?

देश में यूएपीए जैसे कानून की आड़ में राजनीतिक विरोधियों को जेल में डालने का प्रचलन भी है। इन मामलों में जब आरोप सिद्ध नहीं होते तब अदालत यह क्यों नहीं देखती कि बेगुनाह होकर भी मुजरिम की तरह कटी जिन्दगी अभिशाप है। कम से कम ऐसे मामले में यूएपीए के दुरुपयोग को पहचानने और जिम्मेदार लोगों का उपचार करने की कोशिश तो होनी चाहिए। 

अगर यह मानदंड भी अपना लिया जाए कि चार्जशीट दायर हो जाने के बाद सुनवाई होने और फैसला आने तक अभियुक्त को जेल से बाहर रखना है तब भी यह फैसला बलात्कार, हत्या जैसे मामलों में लागू नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए कि ऐसे मामलों में पीड़ित की सुरक्षा और संरक्षा का प्रश्न भी होता है। गुवाहाटी हाईकोर्ट का फैसला वास्तव में पीड़ित पक्ष के खिलाफ है। क्या न्यायपालिका ऐसे मामलों में सम्यक हस्तक्षेप करने की व्यवस्था कभी बना पाएगी?

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

प्रेम कुमार
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