आम चुनाव कैसा होगा और इससे भारत के कष्टों का ‎उपचार कैसे होगा ?

भारतीय स्टेट बैंक के अध्यक्ष दिनेश कुमार खारा ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के ‎अनुपालन में ‎हलफनामा के रूप में बताया है कि भारतीय स्टेट बैंक ने सुप्रीम कोर्ट के ‎आदेशानुसार चुनावी चंदा (Electoral Bonds) से संबंधित सभी विवरण चुनाव ‎आयोग को सौंप दिया है। इन विवरणों में बांड का अद्वितीय नंबर भी शामिल है। लेकिन ‎इन विवरणों में केवाईसी और बैंक खाता का पूरा नंबर शामिल नहीं है। यहां सभी ‎विवरणों का अर्थ अद्वितीय नंबर‎ से है। केवाईसी और बैंक खाता का पूरा नंबर‎ ‎नहीं दिये जाने को ‘सभी विवरणों’ में शामिल न ‎करने का अपना तर्क होगा, सुप्रीम ‎कोर्ट भारतीय स्टेट बैंक के तर्क से कितना संतुष्ट ‎होगा, यह देखने की बात होगी।

इसके साथ ही यह माना जाना चाहिए कि चुनावी चंदा (Electoral Bonds) से संबंधित गोपनीयता अब सार्वजनिक हो गई है, लोगों को लेन-देन की पवित्रता और उसके साथ जुड़ी धुरफंदिया कारोबार, जबरिया चंदा और गैरकानूनी गोरखधंधा और उसमें सत्ता की अंतर्लिप्तता और मिलीभगत भी सामने आ जायेगी। सवाल यह है कि फिर क्या होगा! बंद मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की!

उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट मिली-भगत (Quid Pro Quo) की जांच के लिए कोई-न-कोई सकारात्मक रुख अपनायेगा! इसके साथ सवाल यह भी है कि क्या इस पूरे प्रकरण का अंततः किसी तार्किक परिणति तक पहुंच पाना संभव हो पायेगा? कार्रवाई तो सरकार को करना है। सरकारी विभागों को करना है। सरकारी विभागों और संवैधानिक संस्थाओं की इस में कितनी और कैसी दिलचस्पी होगी, इसका अनुमान लगाना आज के राजनीतिक माहौल में कोई बहुत मुश्किल काम तो नहीं है!

संवैधानिक संस्थाओं कि दिलचस्पी तो प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस को डुबाने में साफ-साफ दिख रही है। कांग्रेस पार्टी के बैंक खातों को चुनाव प्रक्रिया के दौरान अवरुद्ध कर दिया गया है। बताया जाता है कि पुराना मामला है। यह सब आयकर विभाग (IT) की पहल पर हुआ है। कांग्रेस पार्टी न सिर्फ पुरानी है, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख पार्टी रही है। लंबे समय तक लोकतांत्रिक भारत के शासन में भी रही है। लोकतांत्रिक कायदे कानून बनाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

सवाल यह है कि ठीक चुनाव के समय कांग्रेस पार्टी के बैंक खातों को इस तरह से ‘अवरुद्ध’ कर देना कि वह चुनाव के मैदान में आर्थिक रूप से पूरी तरह से पंगु ही हो जाये, कहां तक उचित है। उससे बहुत बड़ा सवाल यह है कि इस सवाल का जवाब कौन देगा? इस शासन में औचित्य और न्याय का सवाल तो, कोई सवाल ही नहीं होता है। जिन सवालों का जवाब कोई नहीं देता, उन सवालों के जवाब समय देता है, इतिहास देता है।

झारखंड के मुख्यमंत्री को जेल भेजा जा चुका है। उन्होंने जेल जाने के पहले मुख्यमंत्री के पद से अपना इस्तीफा दे दिया था। इधर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) ने गिरफ्तार कर लिया है। यह गिरफ्तारी उनके पद पर बने रहने के दौरान उन के आधिकारिक निवास से हुई है। वे अभी भी मुख्यमंत्री के पद पर हैं। सुना जा रहा है कि वे जेल से ही अपनी लोकतांत्रिक सरकार चलायेंगे। संवैधानिक संस्थाओं की इस कार्रवाई और जेल से सरकार चलाने की संवैधानिक स्थिति के औचित्य के बारे में किससे क्या जवाब की उम्मीद की जाये! सवाल तो यही है न कि औचित्य और न्याय का सवाल कोई सवाल रह गया है कि कोई उम्मीद की जाये। उम्मीद की जा सकती है। ना-उम्मीदी के खिलाफ सब से बड़ा बल तो उम्मीद ही होती है। देश के लोग उम्मीद से हैं। 

अरविंद केजरीवाल को बहुत बार लगभग नौ बार प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) ने सम्मन भेजकर बुलाया था। अरविंद केजरीवाल इन सम्मनों के पीछे के राजनीतिक कारणों और अपनी गिरफ्तारी की आशंका को साफ-साफ पढ़ पा रहे थे। आम आदमी पार्टी के कई महत्वपूर्ण नेता पहले ही जेल भेजे जा चुके हैं। गिरफ्तारी की आशंका के निवारण के लिए अरविंद केजरीवाल अदालत गये थे और अदालत से गिरफ्तार न किये जाने की गारंटी मांग रहे थे।

तरह-तरह की गारंटियां बांटी जा रही है, लेकिन गिरफ्तार न किये जाने की गारंटी का अभी तक कोई जिक्र नहीं है। सुना है अदालत ने अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार न किये जाने की कोई गारंटी नहीं दी, देती भी कैसे! यहां तक तो ठीक ही था लेकिन अदालत का प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) से यह पूछना कि आप को गिरफ्तार करने से किस ने रोका है, एक तरह से गिरफ्तारी के लिए माननीय अदालत की हरी झंडी, कम-से-कम अनापत्ति, साबित हुआ। बिना किसी विलंब के अरविंद केजरीवाल गिरफ्तार कर लिये गये हैं।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली आबकारी नीति मामले में प्रवर्तन ‎निदेशालय द्वारा उनके आवास पर गिरफ्तारी के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का दरवाजा ‎खटखटाया। उन्होंने प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) द्वारा गिरफ्तारी ‎को चुनौती देते हुए संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत संवैधानिक उपचार के लिए एक रिट ‎याचिका दायर की। उनके वकील आज रात ही तत्काल सुनवाई चाह रहे थे और रजिस्ट्री से ‎अनुरोध किया था। अरविंद केजरीवाल की याचिका पर आज रात सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई नहीं ‎हुई। आज इस गिरफ्तारी के मामले में अदालती एवं अन्य औपचारिकताएं पूरी होने की उम्मीद की जा सकती है। इसके बाद इस मामले में स्थिति के कुछ अधिक साफ होने की संभावना है।

आरोपियों को गिरफ्तार के मामले में जांच एजेंसियों और पुलिस का आचरण कायदे कानून ‎की परिधि का कोई सम्मान नहीं करती है। इसलिए, महाराष्ट्र के संदर्भ में हाल के एक फैसले ‎में, सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों को गिरफ्तार करने और हिरासत में लेने के दौरान संवैधानिक ‎और वैधानिक सुरक्षा उपायों का पालन नहीं करने के लिए जांच एजेंसियों और पुलिस के ‎आचरण पर नाराजगी व्यक्त की। ‎आशंका है कि अभी राजनीतिक नेताओं की कुछ और महत्वपूर्ण गिरफ्तारी हो सकती है।  

संवैधानिक संस्थाओं की समझ और सहानुभूति का ऐसा पतन क्या कभी हुआ था? शायद नहीं, इंदिरा गांधी के शासन काल में घोषित रूप से लगे राजनीतिक आपातकाल में! शायद नहीं। क्योंकि एक तो वह संवैधानिक रूप से घोषित राजनीतिक आपातकाल था, दूसरे उस दौरान सरकारी शक्ति के द्वारा ‘ठेले’ जाने पर संवैधानिक संस्थाएं ‘अपना काम’ कर रही थीं, इस ‎‘अपने काम’ में उनकी कोई अपनी आत्म-प्रेरणाएं शामिल और सक्रिय नहीं रहती थी।‎ कल राहुल गांधी प्रेस कांफ्रेंस में कह रहे थे कि भारत को सब से बड़ा लोकतंत्र कहना झूठ या गलत है, क्योंकि यहां लोकतंत्र ही नहीं है।

जाहिर है वे चुनाव प्रक्रिया के दौरान कांग्रेस पार्टी के बैंक खातों को अवरुद्ध कर दिये जाने और संवैधानिक संस्थाओं की खामोशी पर गुस्से में रहे होंगे। गुस्से में कही गई बात को शब्दशः नहीं धरना चाहिए। शांत और पूर्वाग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क और खुले दिल से उस पर सोचना जरूर चाहिए। सवाल फिर यही है कि कौन सोचेगा! तरह-तरह की अड़चनों से जूझ रहा है, यह देश। ऐसे में सोचने की शक्ति भी ठीक से काम नहीं करती है।

पिछले दिनों राहुल गांधी के बयान में आये शक्ति प्रसंग को लेकर जैसी-जैसी प्रतिक्रियाएं और शब्द-दृश्य सामने आये उस से भी राजनीतिक परिस्थिति और मीडिया की भूमिका की झलक मिल जाती है। उम्मीद की जा सकती है कि ‘शक्ति प्रसंग’ पर स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त केंद्रीय चुनाव आयोग की भी देर-सबेर कोई-न-कोई व्यवस्था सामने आयेगी। स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न करवाना तो चुनाव आयोग का ही संवैधानिक दायित्व है।            ‎ 

चिंता है कि देश में लोकतंत्र की स्थिति को लेकर राहुल गांधी की बात से निकला यह संकेत कि भारत में लोकतंत्र का होना झूठ है, इस देश की आत्मा को भीतर से बहुत बुरे ढंग से न मथ रहा हो। भारत की आत्मा को मथनेवाले प्रसंगों की कोई कमी नहीं है। बहुत कष्टकर स्थिति है। इन सारे कष्टों का उपचार सामने खड़ा 2024 का आम चुनाव है। आम चुनाव की घोषणा, अधिसूचना हो गई है। इन सब के बावजूद यह सवाल लोकमन में अपनी जगह स्थिर है कि क्या स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न हो पायेगा!

लोकमन में आशंका उमड़-घुमड़ रही है कि क्या ऐसा हो सकता है कि भारत में व्यावहारिक लोकतंत्र समाप्त हो जाये! भारत में ‎एकदलीय शासन व्यवस्था स्थापित हो जायेगी! एक व्यक्ति, एक दल, एक सूत्र और वह हर ‎तरह की राजनीतिक और संवैधानिक रोक-टोक से मुक्त! कोई अड़चन नहीं, कोई ‎जवाबदेही नहीं। हो जायेगी या यह सब हो चुकी है। जाहिर है, हम भी देखेंगे, आम चुनाव कैसा होगा और इससे भारत के कष्टों का उपचार कैसे होगा।   ‎

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

प्रफुल्ल कोलख्यान
Published by
प्रफुल्ल कोलख्यान