बस्तर में आदिवासी पारंपरिक हथियार भरमार बंदूक को मानते हैं अपना पुरखा

बस्तर (छग)। नक्सल उन्मूलन के नाम पर छत्तीसगढ़ के आदिवासी हमेशा से सत्ता के निशाने पर रहे हैं। कभी उन्हें नक्सली करार देकर मारा जाता है तो कभी सलवा जुडूम का हिस्सा बनाकर नक्सलियों के सामने खड़ा कर दिया जाता है। ऐसे में हर तरीके से उनका नुकसान होता है। बात केवल जान और जिंदगी तक सीमित रहती तो कोई बात नहीं थी। सत्ता ने अब उनके सांस्कृतिक जीवन में भी दखल देना शुरू कर दिया है। और वह उसको सुनियोजित तरीके से नष्ट करने की साजिश रच रही है। और यह सब कुछ किया जा रहा है आधुनिकता के नाम पर। इसी कड़ी में जुड़ता है आदिवासियों का परंपरागत हथियार भरमार बंदूक। इसे स्थानीय भाषा में ‘पेनक’ कह कर बुलाया जाता है। जिसे आदिवासी अपना पुरखा मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं। लेकिन वही बंदूक जो कल तक उनकी जंगली जानवरों से रक्षा किया करती थी अब उनके जान की आफत बन गयी है।

पिछले दिनों कुछ ऐसी घटनाएं सामने आयी हैं जिनमें सुरक्षा बलों के जवानों ने निर्दोष आदिवासियों की हत्याएं कीं और उसे नक्सली मुठभेड़ दिखा दिया। बाद में उनके शवों को नक्सली कपड़े पहनाकर उसके बगल में भरमार बंदूर रख दिया गया। यह साबित करने के लिए कि मुठभेड़ असली थी। हाल में घटी नारायणपुर जिले के भरांडा की घटना कुछ ऐसी ही थी। परिजनों का आरोप है कि मृतक के पास से भरमार बंदूक दिखाकर उसे नक्सली बता दिया गया। जबकि वह चिड़िया का शिकार करने गया था।

प्राचीन काल से आदिवासी बेहद खोजी प्रवृत्ति के रहे हैं। प्रकृति के साथ रहते हुए सामने आने वाले खतरों से निपटने की तैयारी की कड़ी में उन्होंने नायाब चीजों की खोजें कीं। उन्हीं में आग की खोज से लेकर हिंसक पशुओं को नियंत्रित करने के लिए टेपरा तक शामिल हैं। इसके अलावा कोटोड़का को विकसित कर पशुओं की हिंसक प्रवृत्ति को मधुर ध्वनि के जरिये नियंत्रित कर उन्हें पशुपालन के काम में लाने का रास्ता तैयार किया गया। शिकार आदिवासियों के जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है। जिसके बगैर उनके जीवन के बारे में किसी के लिए सोच पाना भी मुश्किल है। कहीं शिकार अगर है तो वहां हथियार भी जरूर होगा। लिहाजा आदिवासियों ने किस्म-किस्म के हथियार विकसित किए। इस लिहाज से उन लोगों ने पारंपरिक औजार बरछी, भाला, त्रिशूल, कटार व भरमार का इस्तेमाल किया। ऐसा नहीं कि ये सभी अब खत्म हो गए हैं। आज भी ये औजार आदिवासी क्षेत्रों में पाये जाते हैं। ये केवल हथियार नहीं बल्कि उनकी संस्कृति और परंपराओं के हिस्से बन गए हैं। शायद यही वजह है कि बस्तर के रहवासियों में टण्डा, मण्डा व कुण्डा नेंग (जीवन, मरण रस्म) की रस्में पूरे जीवनकाल को पूर्ण करती हैं। इस नेंग के बिना किसी भी आदिवासी का जीवन पूर्ण नहीं कहा जा सकता है।

सर्व-आदिवासी समाज के युवा प्रभाग के अध्यक्ष योगेश नरेटी बताते हैं, “बस्तर में आदिवासी समुदाय भरमार बंदूक की सेवा करते हैं। लेकिन बस्तर में नक्सल उन्मूलन के नाम पर तैनात फ़ोर्स उनकी इस सेवा को नक्सल समर्थक करार देती है। भरमार उनकी संस्कृति है। यह आदिवासी संस्कृति पर हमला है। कई बार आदिवासियों द्वारा फोर्स को यह बताने के बाद भी कि यह हमारा पेनशक्ति (पुरखा) है, जब्ती नामा किया जाता है । यहां पर पेनक (पुरखा) के कई रूप संबंधित गोत्र के दादा के दादा के दादा, जो कई पीढ़ी पूर्व ह्रास होकर मतलब मरकर उनके चिन्हांकित  जीव वनस्पति या सर्वोच्च प्रिय वस्तु को प्रतिकृति के तौर पर स्वीकार करती है। उसी प्रतिकृति में देव जातरा के द्वारा उस देव का नाल काटकर शक्ति उत्पन्न किया जाता है। यह प्रिय वस्तु किसी गोत्र का टंगिया, डांग, लाट, तीर-कमान, भरमार, बरछी, तलवार, त्रिशूल, छुरी, गपली, कोई पेड़, भाला, लोहे का भाग, फरसी या हंसिया कुछ भी हो सकता है”।

बस्तर के आदिवासी युवा पूरन कश्यप की मानें तो “फोर्स को यहां के पेन सिस्टम की जानकारी ही नहीं है। उपरोक्त प्रतिकृतियां बस्तर की पेनक हैं। इन पेनक की जब्ती करके फोर्स आदिवासियों की पुरखा पेन को खत्म कर रही है, मतलब कोया पुनेमी संस्कृति को क्षति पहुंचा रही है। उस देव के पुजारी के विरोध करने पर, उसको फर्जी नक्सली मामलों में गिरफ्तार करती है।”

हर बार सुर्खियों में यह खबर बनती है कि भरमार के साथ अमुक नक्सली ने समर्पण किया, जबकि भरमार के साथ का समर्पण हमेशा सवालों के घेरे में रहा है। नक्सलियों ने भी आदिवासियों के पारंपरिक औजार भरमार बंदूक का उपयोग किया है। लेकिन हैरत की बात यह है कि सरकार और नक्सलियों को आज तक यह नहीं पता कि आदिवासियों द्वारा भरमार औजार की सेवा की जाती है और उनका यह पेन उनकी संस्कृति का आदिम हिस्सा है। यही भरमार बंदूक(औजार) आज बस्तर के हर आदिवासी के लिये सबसे बड़ी मुसीबत का औजार साबित हो रही है। जिसके साथ ही  उनकी संस्कृति भी विलोप की ओर बढ़ रही है।

आदिवासियों में शिकार के महत्व को लेकर ललित नरेटी बताते हैं कि “जब किसी शिकारी आदिवासी की मृत्यु होती है तब मरनी काम के दौरान कुण्डा होड़हना नेंग होता है। कुण्डा होड़हना मतलब पानी घाट से हासपेन, जिसका अर्थ है मर कर पेन होने की क्रिया। जिसका महत्वपूर्ण अंग नेंग कुण्डा होड़हना होता है जिसमें तालाब या नदी से किसी भी जलीय प्राणी (जीव) को नये मिट्टी के घड़े में रखा जाता है। तब यह जीव में ही उस मृत व्यक्ति का जीव उस परिवार के पेन बानाओं से मिलान करने के लिए लाया जाता है। इसी दौरान उस परिवार के विशेष रिश्तेदार सदस्य को पेन का एहसास होता है, मतलब स्वप्न या अन्य माध्यम से उसे दिखाई देता है कि अमुक मृत सदस्य किस पेन रुप में आना चाहता है। वो उपरोक्त प्रतिकृति में से किसी भी एक औजार, वृक्ष या अन्य पेन स्वरुप को पेन मांदी में स्वीकार करता है। यही प्रक्रिया शिकारी व्यक्ति के मृत्यु के उपरान्त किया जाता है, उसके बाद वह उसके लोकप्रिय औजार भाला, बरछी, त्रिशूल या भरमार को चयन करता है। वह उसी हथियार में पेनरुप में आरुढ़ हो जाता है। यही औजार भविष्य में पेन रुप में उस परिवार के खुंदा पेन के रुप में जन्म लेता है और उस परिवार की रक्षा व उसका मार्गदर्शन करता रहता है”। यह इन हथियारों के पेन बनने की प्रक्रिया है।

बदलते परिवेश में पेनक औजारों की स्थिति

बस्तर में कोया बुमकाल से जुड़े नारायण मरकाम कहते हैं “उस जमाने में इन भरमार या पेनक औजारों को, परम्परागत बुमकाल (पंचायत) द्वारा स्वीकृति प्रदान की जाती थी, जो बाद में पंजीकृत हुए। इन पंजीकृत भरमारों को थाना व्यवस्था स्थापित होने व नक्सली गतिविधियां होने के बाद सरकार द्वारा थानों में जमा करने का फरमान जारी किया गया। आज भी बस्तर संभाग या अन्य आदिवासी क्षेत्रों के थानों में कई भरमार पेनक जमा किये गये हैं। कई पेनक भरमार जो पंजीकृत नहीं हो पाये या बाद में पेनकरण हुये, उनकी पुलिस द्वारा अवैध हथियार के रुप में जब्ती की गई, जो कि हथियार नहीं पेन हैं। चूंकि पेनक पुरखा हैं और समुदाय के परब नेंग में उनकी सेवा अर्जी अनिवार्य होती है, इसलिए इन्हें जब्त नहीं करना चाहिए। यदि इसी प्रकार किसी मंदिर के भगवान की किसी प्रतिकृति को जब्ती कर ली जाए तो क्या होगा? इन पेनक प्रतिकृतियों की जब्ती करना मतलब आदिवासियों की “बुढालपेन ” की जब्ती की जा रही है। वर्तमान में इन पेनक भरमार को ग्रामीण आदिवासियों के द्वारा पेनक बताये जाने के बावजूद भी पुलिस द्वारा जबरन जब्ती करते हुए केस बनाया जाता है”।

बस्तर में अवैध हथियार के रूप में पुलिस द्वारा आदिवासी गाँवों से भरमार बंदूक जब्त कर केस बनाया जाता है या उन्हें नक्सली समर्थक बताया जाता है, जबकि भरमार आदिवासियों का पारंपरिक औजार है। वे कई वर्षों से इसकी सेवा करते आ रहे हैं। किसी आदिवासी के पास भरमार बंदूक के होने का मतलब उसका नक्सली होना नहीं है। यह उसकी संस्कृति है, जो बरछी, भाला, त्रिशूल, कटार व भरमार जैसे पारम्परिक औजारों के रूप में शिकारों के लिए प्रयोग में आती रही है।

(बस्तर,छ.ग. से जनचौक संवाददाता तामेश्वर सिन्हा की रिपोर्ट।)

तामेश्वर सिन्हा
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