मैं कैसे उस ईश्वर के बारे में अच्छा महसूस कर सकता हूँ, जो लाख और गली हुई चीजें खाता है,
जो आग को देखते ही मुरझा जाता है?
मैं कैसे उन ईश्वरों के बारे में अच्छा महसूस कर सकता हूँ, जिन्हें तुम जरूरत पड़ने पर बेच देते हो, और चोरों के डर से जमीन में गाड़ देते हो?
नदियों को जोड़ने वाला ईश्वर, जो स्वंय-सिद्ध है, स्व-विवेकी है,
सिर्फ वही सच्चा ईश्वर है.
~स्पीकिंग ऑफ़ शिवा— ए. के. रामानुजन (संपादक, अनुवादक):p. 85.
भाजपा जीत रही है
भक्त खुश हो रहे हैं
जनता हार रही है
दानों-दानों को मोहताज हो रहे हैं
पर फिर भी धर्म-जाति के नशे ने भारत के लोकतंत्र की नैया भाजपा जैसी पार्टी के हाँथों में सौंप दी है,
जो इसे खेते-खेते उस स्थान पर ले जायेगी, जहाँ से वापस लाने में भारतीयों को दशकों लगेंगे।
स्वीडन की संस्था वी-डेम (Varieties of Democracy) ने हाल ही में ‘Democracy Report 2022: Autocratisation Changing Nature’, में भारत को दुनिया के चोटी के दस तानाशाह देशों की श्रेणी में ला पटका है। इसका अर्थ यह है कि भारत में लोकतंत्र नाम-मात्र का बचा रह गया है।
इसकी बानगी हमने 24 घंटे चलते नफरती विचारधाराओं से ओत-प्रोत मीडिया चैनलों, सत्ता की भक्ति करते चुनाव आयोग, बिकी हुई अदालतों, और बिकी हुई सरकारी संपत्ति से निकलकर बनती ज़हरीली भापों से देख लिया था।
दरअसल पिछली सरकारों द्वारा जनता को शिक्षा और नागरिक चेतना से कोसों दूर रखने का ही परिणाम यह है की भारत में लोकतंत्र की जड़ें अब हिलने लगी हैं। इस रिपोर्ट में भारत का स्थान 179 देशों में 93 नंबर पर है। कहने का मतलब यह है की हमारे देश की गाड़ी इराक, सीरिया, अफगानिस्तान की ओर तेज़ी से बढ़ रही है, जिसे यदि नहीं रोका गया तो वीरान सड़कों में जनता की लाशें पड़ी होंगी, और जिस तरह से हाथरस की बच्ची को जलाया गया था, उसी तरह जनता के एक वर्ग को चुन-चुन कर जला दिया जायेगा। और हम देखते रह जायेंगे।
काश भारत की जनता अपने देश को स्वीडन, डेनमार्क, नार्वे, कोस्टोरिका और न्यूजीलैंड की तरह बनाने का सोचती जहाँ खुशहाली है, रोज़गार है, अच्छी ज़िंदगी है, अच्छे अस्पताल हैं। परंतु यहाँ के लोगों को चस्का लगा है अफगानिस्तान, बेलारूस, चीन, रूस, सऊदी अरब, सूडान और वेनेजुएला की तरह बनने का। जहाँ
एक पार्टी का राज होगा,
न कोई काम-काज होगा,
केवल 5 किलो अनाज होगा,
और पुरातनपंथी रिवाज होगा।
सिर्फ चुनाव कराते रहना ही लोकतंत्र को परिभाषित नहीं करता, बल्कि इस बात को परिभाषित करता है की देश में रहने वाले लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में कितना भाग लेते हैं। भारत नीचे के पचास प्रतिशत देशों में शुमार हो चुका है, जहाँ नाममात्र की चुनावी सत्ता किसी तरह कहने भर को बची है,परंतु असल जनता महंगाई, भ्रष्टाचार के बोझ तले दबी जा रही है। चुनावी तानाशाही की ओर तो हम 2020 में ही पहुँच चुके थे, अब देखना यह है की यह कारवां और कितने दूर तक जाता है, और अच्छे दिन की चाशनी हमें कितने दिन और पिलाता है।
बहरहाल हमसे आगे तो श्रीलंका (88), नेपाल (71), भूटान (65) हैं और हम पाकिस्तान (117) के करीब आ चुके हैं। कितनी अजीब बात है ना!!!
जिस पाकिस्तान के रास्ते को हमने सत्तर साल पहले छोड़ा था, आज घूम-फिरके उसी रास्ते पर चलने को आतुर हो रहे हैं!
विश्व की सत्तर प्रतिशत जनता इन तानाशाहों के तहत मुर्गी की तरह बैठी हुई है, जिन्हें ये जब चाहें काटकर कच्चा चबा सकते हैं। इन 179 देशों में लोकतांत्रिक देशों की संख्या घटी है।वर्तमान में 89 देश लोकतांत्रिक और 90 देश तानाशाही प्रवृत्ति वाले हो चुके हैं। जो अपने नागरिकों के अधिकार कुचलने के लिये तत्पर हैं। इस रिपोर्ट को विदेशी साजिश कहकर आप खारिज नहीं कर सकते, क्योंकि यह 71 मापदंडों के आधार पर देश की परिस्थितियों का निर्धारण करती है।
आइये इनका मुल्याकन करें-
2- इलेक्टोरल डेमोक्रेसी इंडेक्स- इसमें जाँचा जाता है कि देश में चुनाव निषपक्ष हो रहे हैं कि नहीं। बोलने की स्वतंत्रता और संगठन बनाने की स्वतंत्रता लोगों के पास है कि नहीं। यदि इसका भी मूल्यांकन भारत के संदर्भ में हम करेंगे तो पायेंगे की देश में 24 घंटे चलने वाला मीडिया सत्ता का गुणगान करने में मस्त है। गिद्ध की तरह हिंदू-मुस्लिम और जात-पात के मुद्दों से लोकतंत्र के पर कतर रहा है। चुनाव आयोग भीष्म पितामह की तरह मृत्यु शय्या पर सो कर विपक्ष की बरबादी देख रहा है। अदालतें जनसरोकारों से अपना मुँह कबका मोड़ चुकी हैं। फेसबुक और ट्विटर जैसे प्लेटफार्मों में भाजपा के नफरत वाली बातों को तेज़ी से जनमानस के दिमागों में ठूँस कर सरकारें टैगफौग और पेगासस के जरिये समस्त आवाज़ों को एक-एक करके कुचल रही हैं। संगठन बनाना कितना कठिन है, यह बात नये संगठनों के रजिस्ट्रेशन को देखकर ही पता चल जाता है।
विश्व में बढ़ता ध्रुवीकरण सीविल सोसाइटीज़ का गला घोंटने, नफरत भरी बातों को बढ़ावा देने, मीडिया को अपने हित में इस्तेमाल करने इत्यादि कारण विश्व में बढ़ते तानाशाही प्रवृत्ति के लिये ज़िम्मेदार हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार 35 देशों में बोलने की आज़ादी घटी है और निश्चय ही इन देशों में हमारा देश भी शामिल है।
भारत की सरकारें इस रिपोर्ट को उल्टे-सीधे तर्क देकर खारिज कर रही हैं। चाहे तो इसे विदेशी साजिश करार दें, या फिर विदेशी सरकारों द्वारा मोदी जी को बदनाम करने की साजिश समझ लें। परंतु जो बातें रिपोर्ट में कही गयी हैं वह धरातल में भी सत्य जान प्रतीत होती हैं। जनता का एक वर्ग जाति-धर्म के नशे में चूर होकर अपनी ही बर्बादी को आमंत्रित कर रहा है। ऐसी परिस्थिति में प्रगतिशील विचार रखने वालों के समक्ष बड़ी चुनौती है, इस देश की ढहती दीवारों को गिरने से थामने की।
राह कठिन है,
चाह कठिन है,
लोगों का निबाह कठिन है,
पर फिर भी उम्मीद की किरणें सूरज की रौशनी से छनकर आने दो यारों!
क्योंकि बिना संघर्ष किये ज़िंदगी जीना ही कठिन है।
(लेख- उत्तम दातनवासी)