हिंदी अख़बार क्यों हो जाते हैं शरजील इमाम केस में भड़काऊ?

शरजील इमाम के केस को कवर करते समय हिंदी के अख़बारों ने फिर पत्रकारिता के उसूलों के साथ समझौता किया है। उन्होंने ने इमाम के खिलाफ भड़काऊ खबर लगाई है। उनके मुकाबले अंग्रेजी और उर्दू के अख़बारों ने ज्यादा संयम बरता।

शनिवार के रोज़ दिल्ली पुलिस ने कहा कि उसने जेएनयू के छात्र शरजील इमाम के खिलाफ चार्जशीट दाखिल किया है। अगले दिन (19 अप्रैल) के अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू के अख़बारों में इस खबर को जगह दी। कुछ ने इसे पहले पन्ने पर, तो कुछ ने इसे अंदर के पेज पर प्रकाशित किया।

“जामिया हिंसा मामले में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र शरजील इमाम पर शिकंजा कस गया है।” “दैनिक हिंदुस्तान” ने अपनी खबर की शुरुआत कुछ यूँ की। यह वाक्य इस अख़बार के मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह को बेनकाब करता है। 

“नवभारत टाइम्स” ने भी बड़ी चालाकी से पुलिस के पक्ष को ही ‘बोल्ड हेडलाइन’ बनाया है। “शरजील के भड़काऊ भाषण से जामिया में भड़के थे दंगे”। उस ने उद्धरण चिन्ह (इनवर्टेड कॉमा) लगा कर अपनी ज़िम्मेदारी से “मुक्ति” यानी पल्ला झाड़ने की कोशिश ज़रूर की। मगर अख़बार की नीयत में खोट था। बहुत सारे पाठक जल्दबाजी की वजह से सुर्खी पढ़ कर आगे बढ़ जाते हैं। उनके पास इतना वक़्त नहीं होता कि वो इन बारीकियों को समझें कि यह महज एक आरोप है। अगर इसी सुर्खी को ऐसे लिखा जाए कि “पुलिस ने लगाया आरोप कि शरजील ने दिए थे भड़काऊ भाषण” तो बहुत हद तक यह संतुलित हो जाता है।

“दैनिक जागरण” ने भी अपने शीर्षक में शरजील इमाम के भड़काऊ भाषण का ज़िक्र करना नहीं भूला: “शरजील के भड़काऊ भाषण से फैला जामिया नगर में दंगा”।

हिंदी समाचारपत्रों की इन सुर्ख़ियों और ख़बरों को पढ़ कर ऐसा लग रहा था कि शरजील इमाम के ऊपर इल्जाम साबित होने से पहले ही इन्होंने इसे कसूरवार मान लिया है। 

मगर यह न सिर्फ पत्रकारिता के उसूलों के खिलाफ हैं। देश का कानून भी यह कहता है कि जब तक किसी व्यक्ति के खिलाफ आरोप साबित नहीं हो जाता तब तक उसे दोषी नहीं करार दिया जा सकता है। एक आरोपी को अपना पक्ष रखने का हक देश का कानून देता है। मीडिया का यह फर्ज़ है कि वह सारे पक्षों को जनता के सामने रखे और न्यूज़ और व्यूज़ (राय) में फर्क बना कर रखे। 

मगर इन कसौटियों पर हिंदी अख़बार फिर खरा नहीं उतर पाया। शरजील से सम्बंधित ख़बरों को पढ़ कर ऐसा लगता है कि अख़बार पुलिस की प्रेस रिलीज़ को अपने पत्रकार के हवाले से छापने को पत्रकारिता समझ बैठे हैं। 

इन अख़बारों की यह ज़िम्मेदारी थी कि वह पुलिस के बयान के अलावा अन्य पहलुओं को शामिल करते। जैसे, शरजील के वकील और घरवालों का क्या कहना है? नागरिक समाज और मानवाधिकार से जुड़े लोग शरजील पर क्या राय रखते हैं? मगर इन सवालों को जगह नहीं दी गयी। 

यह देश के लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है कि मीडिया, विशेषकर हिंदी मीडिया, सरकार और पुलिस के पक्ष को अपनी जबान से प्रचारित कर रहा है। जब बात अल्पसंख्यक और वंचित समाज की हो तो उस का पूर्वाग्रह और भी ज्यादा दिखने लगता है।

हिंदी अख़बार से बेहतर कवरेज उर्दू और अंग्रेजी अख़बारों की थी। हालांकि उन्होंने भी पुलिस के पक्ष से आगे जाने की कोशिश नहीं की। मगर उनकी सुर्खियाँ कम ‘सेंसेनल’ थीं। “शरजील के खिलाफ इज़ाफ़ी चार्जशीट”. यह “रोजनामा राष्ट्रीय सहारा” की सुर्खी थी। इससे ही मिलता जुलता शीर्षक “इंक़लाब” और “मुंसिफ” का भी था।

वहीं “टाइम्स आफ इंडिया” की सुर्खी थी “पुलिस ने शरजील के खिलाफ केस दर्ज किया”। “द हिन्दू” और “स्टेट्समैन” ने अपनी सुर्खी में “जामिया दंगा” का ज़िक्र किया। अंग्रेजी के अख़बारों में न्यूज़ और व्यूज़ में फर्क हिंदी अख़बारों से कहीं ज्यादा बना कर रखा गया था।

(लेखक अभय कुमार जेएनयू से पीएचडी हैं।)

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