ग्राउंड रिपोर्ट: झिलमिल फैक्ट्री में आग की घटना बताती है कि सरकार ने नहीं ली बवाना से कोई सीख

(बवाना की घटना के बाद दिल्ली के औद्योगिक इलाकों में आग लगने की घटनाएं जारी हैं। इसी तरह की एक और घटना झिलमिल इलाके में भी घटी। जिसमें आधिकारिक तौर पर तीन मजदूरों की मौत की बात की जा रही है। लेकिन यह संख्या और अधिक है। ट्रेड यूनियन एक्टू की एक टीम ने घटनास्थल का दौरा किया। उसने लौटकर एक रिपोर्ट जारी की है। पेश है उसकी पूरी रिपोर्ट-संपादक)

नई दिल्ली। देश की राजधानी दिल्ली एक तरफ तो मजदूरों को रोटी के सपने दिखा अपनी ओर बुलाती है, दूसरी तरफ फैक्ट्रियों और सीवरों में उनके लिए मौत का जाल बिछाए रखती है। आए दिन दिल्ली के अलग-अलग इलाकों की फैक्ट्रियों में आग लगने की ख़बरें आती रहती हैं। कभी बवाना, नरेला, सुल्तानपुरी तो कभी मुंडका, नारायणा और झिलमिल- हादसों का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा। पिछले शुक्रवार- 12 जुलाई, 2019 को दिल्ली के फ्रेंड्स कॉलोनी इंडस्ट्रियल एरिया (झिलमिल) की एक फैक्ट्री में लगी भीषण आग ने मजदूरों की जान ले ली। पुलिस और सरकार की मानें तो तीन मजदूरों की जान गई पर एक्टू की टीम (जिसमें एक्टू दिल्ली के कार्यकारी अध्यक्ष वीकेएस गौतम, सचिव श्वेता राज, कामरेड अरविन्द, कामरेड ओमप्रकाश शर्मा, अभिषेक आदि शामिल थे) को आस-पास काम करनेवाले मजदूरों ने बताया कि आग लगने के वक़्त 40-50 मजदूर फैक्ट्री के भीतर थे। मजदूरों ने बताया कि मरने वालों की संख्या तीन से कहीं अधिक है, जिसे छुपाने की कोशिश की जा रही है।

बवाना हादसे के बाद भी क्या सीख नहीं लिया दिल्ली सरकार ने ?

20 जनवरी 2018 के बवाना हादसे में भी ये साफ़ दिखाई दिया था कि आग लगने के वक़्त फैक्ट्री के बाहर ताला लगा हुआ था, इस हादसे के बाद भी मजदूरों ने सरकार द्वारा दिए जा रहे मौत के आंकड़ों पर सवाल उठाया था। मजदूरों का कहना था कि कम से कम 40-42 मजदूर इस घटना में मारे गए थे। तब से लेकर अब तक, बवाना की फैक्ट्रियों में भी कई अग्निकांड हो चुके- सुलतानपुरी, नवादा, मुंडका, नारायणा, नरेला, शाहदरा, झिलमिल समेत कई अन्य घटनाओं में भी मजदूरों की जाने गई हैं।

बंद तालों के अन्दर घुटती सांसे – श्रम विभाग, एमसीडी, पुलिस, सरकार सब चुप!

एक्टू दिल्ली की टीम ने जब औद्योगिक क्षेत्र का दौरा किया, तो पाया कि बवाना हादसे की तरह ही यहां भी काम के वक़्त, बाहर से फैक्ट्री में ताला लगा हुआ था जिसके कारण दुर्घटना की स्थिति में मजदूर बाहर नहीं निकल सके। बवाना हादसे के वक़्त ज्यादातर आरोपियों को कोर्ट से ज़मानत इसलिए मिल गई थी क्योंकि पुलिस ये साबित नहीं कर पाई थी कि आग लगने के वक़्त ताला बंद था! ऐसे में समझा ही जा सकता है कि झिलमिल में हुई इस दुर्घटना की पुलिस-प्रशासन क्या जांच करेंगे।

फैक्ट्री वाली गली का रास्ता काफी संकरा था और बिजली के तार काफी नीचे तक झूल रहे थे – ऐसे में दुर्घटना के उपरान्त राहत कार्य काफी मुश्किल काम बन जाता है।

 फैक्ट्री में घुसने और निकास का भी एक ही रास्ता था जो फैक्ट्रीज एक्ट के खिलाफ है – ऐसी ही स्थिति दिल्ली के अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में भी देखी जा सकती है।

एक्टू की जांच में पता चला कि पूरे झिलमिल औद्योगिक क्षेत्र में सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी नहीं दी जाती (इस औद्योगिक क्षेत्र में महीने भर 8 – 9 घंटे काम के उपरान्त मात्र 8000 रूपए दिया जाता है, जबकि सरकारी रेट कम से कम 14,000 प्रतिमाह है)- इस समस्या को लेकर एक्टू व अन्य ट्रेड यूनियनों द्वारा पहले भी प्रदर्शन किया जा चुका है पर दिल्ली सरकार ने न्यूनतम वेतन लागू करने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया।

फैक्ट्री के अन्दर कोई यूनियन नहीं थी, ज़्यादातर मालिक यूनियन बनाने वाले मजदूरों को काम से निकाल देते हैं।

पूरे औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों के लिए छुट्टी का भी कोई प्रावधान नहीं है।

जांच करने गए लोगों ने पाया कि आग लगने वाली फैक्ट्री के बाहर न्यूनतम मजदूरी अधिनियम व अन्य कानूनों के अनुसार लगाये जाने वाले बोर्ड/सूचना पट्ट भी नहीं थे।

फैक्ट्री के बाहर उसके नाम, पते व मालिक का नाम दर्शाने वाला कोई बोर्ड/सूचना पट्ट नहीं था।

मजदूरों को पीएफ, ईएसआई व बोनस के अधिकार से वंचित रखा गया था।

अगर अखबारों में छपे पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अधिकारी रनेन कुमार के बयान की माने तो फैक्ट्री की लाइसेंस अवधि समाप्त हो चुकी थी – ऐसे में बिना पुलिस-प्रशासन के गठजोड़ के फैक्ट्री का चलना असंभव है। ज़ाहिर सी बात है, फैक्ट्री के मालिक इसलिए नियम तोड़ पाते हैं क्योंकि तमाम अधिकारी – चाहे श्रम विभाग के हों या एमसीडी के, या पुलिस महकमे के – इन सब की मिलीभगत होती है।

मौत या हत्या?

अगर सभी तथ्यों को देखा जाए तो ये साफ़ हो जाता है कि लगातार दिल्ली सरकार के श्रम-मंत्री, मुख्यमंत्री व उपराज्यपाल सभी ने दिल्ली के फैक्ट्री मालिकों को मजदूरी की लूट और मजदूरों को बंधुआ बनाने की छूट दे रखी है। तमाम अग्निकांडों के बावजूद सुरक्षा मानकों के लिए फैक्ट्रियों का कोई ऑडिट नहीं किया गया – दिन के उजाले में लाइसेंसी और गैर-लाइसेंसी दोनों ही फैक्ट्रियां मजदूरों को गेट बंद कर काम करवा रही हैं। मुनाफे के लिए इस प्रकार पुलिस-प्रशासन के नाक तले कानूनों को तोड़ा जा रहा है और मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि ये मजदूरों की मौत का नहीं, बल्कि पूंजी की लालच में की गई हत्याएं हैं।

कैसे बंद हो ये सिलसिला – क्या सरकार अब भी सुध नहीं लेगी?

झिलमिल और तमाम औद्योगिक क्षेत्रों में हो रहे हादसों के साथ अगर हम दिल्ली के सीवरों में हो रही सफाई कर्मचारियों की मौतों को देखें तो हम पाएंगे कि सरकार चाहे जो भी काम करने का दावा कर रही हो, वो मेहनतकश जनता के आधे पेट भी जिंदा रहने की गारंटी नहीं कर सकती। एक्टू व अन्य ट्रेड यूनियनों ने लगातार सरकार के सामने अपनी मांगें रखी हैं, बवाना हादसे के बाद भी दिल्ली सरकार को संयुक्त ज्ञापन सौंपा गया था।

पिछले साल 20 जुलाई 2018 को न्यूनतम मजदूरी और सुरक्षा के सवालों को लेकर ट्रेड यूनियनों द्वारा एक राज्यव्यापी हड़ताल भी किया गया था। इन सब के बावजूद उपराज्यपाल या मुख्यमंत्री – श्रममंत्री में से किसी ने भी मजदूर-हित के लिए कुछ नहीं किया। दिल्ली के मुख्यमंत्री ने झिलमिल में मरने वाले मजदूरों के जान की कीमत मात्र पांच लाख रुपये लगाई है! श्रम मंत्री ने तो अपने मुंह से कुछ कहा भी नहीं, ना ही श्रम विभाग से कोई जवाब मांगा। उपराज्यपाल भी चुप्पी साधे हुए हैं – श्रम व अन्य विभागों के अफसरों के ऊपर किसी प्रकार की कोई कार्रवाई होने की जानकारी नहीं है।

एक्टू इन हादसों को रोकने के लिए निम्नलिखित मांगें रखना चाहती है :-

-दिल्ली की सभी फैक्ट्रियों का सुरक्षा ऑडिट किया जाए – इसके लिए सभी सम्बद्ध विभागों के अधिकारियों व ट्रेड यूनियनों की एक टीम का तत्काल गठन हो। तय समय सीमा के अन्दर ऑडिट रिपोर्ट पर कार्रवाई की जाए।

-झिलमिल में हुए दुर्घटना में मारे गए लोगों की संख्या की जांच हो। आस-पास के मजदूरों द्वारा ज्यादा लोगों के घायल/मृत होने के दावे को ध्यान में रखते हुए जांच की जाए।

-श्रम व अन्य कानूनों के उल्लंघन को देखते हुए भी नज़र अंदाज़ करने वाले श्रम व अन्य विभागों के अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई हो।

-यूनियन बनाने के अधिकारों पर हमला व श्रम कानूनों की अवमानना पर तुरंत रोक लगे।

-मारे गए मजदूरों को 50 लाख मुआवजा व घायलों को मुफ्त इलाज व 25 लाख का मुआवजा दिया जाए।

एक्टू मानती है कि बिना वर्गीय एकता बनाए और आन्दोलन खड़ा किए मजदूरों की कोई मांग पूरी नहीं हो सकती है। ज़्यादातर फैक्ट्री मालिक शासक वर्ग की पार्टियों को चंदा देते हैं, ऐसे में अब ये फैसला सरकार को करना होगा कि वो अपने बनाए क़ानून मानेगी या मजदूरों के व्यापक आन्दोलन व गुस्से का सामना करने की तैयारी करेगी।

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