ग्राउंड रिपोर्ट: उत्तराखंड के मिकीला गांव में ना तो सड़क है और ना ही अस्पताल, कब बदलेंगे हालात?

कपकोट, उत्तराखंड। पिछले कुछ दशकों में भारत ने दुनिया के अन्य देशों की तुलना में तेज़ी से तरक्की की है। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में तो यह विश्व में अग्रणी भूमिका निभाने को तैयार है। दुनिया की लगभग सभी रेटिंग एजेंसियों ने भारत को अगले कुछ सालों में विश्व की सबसे तेज़ उभरती अर्थव्यस्था वाला देश घोषित किया है। यही कारण है कि आज लगभग सभी बड़ी कंपनियां भारत में निवेश करने को प्राथमिकता दे रही हैं। प्रधानमंत्री के हर विदेश दौरे में बड़ी बड़ी कंपनियों के सीईओ उनके साथ एक मीटिंग के लिए उत्सुक नज़र आते हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था में तेज़ी इस बात की परिचायक बनती जा रही है कि अगले कुछ सालों में भारत दुनिया का तीसरा और एक दशक के अंदर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बनने वाला है। केंद्र सरकार भी देश की सभी राज्यों की सरकार के साथ मिलकर लगभग सभी राज्यों में निवेश के विकल्पों को तलाश रही है।

किसी भी अर्थव्यवस्था की मज़बूती के लिए सबसे पहले वहां बुनियादी सुविधाओं का पूरा होना पहली शर्त होती है। लेकिन अभी भी देश के कई ऐसे ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां इनका सबसे अधिक अभाव नज़र आता है। जो ग्रामीण क्षेत्र शहरी क्षेत्रों के करीब हैं वहां तो बुनियादी सुविधाएं पहुंच रही हैं लेकिन अब भी कई ऐसे दूर दराज़ के इलाके हैं जहां इनका अभाव नज़र आता है।

इन्हीं में एक पहाड़ी राज्य उत्तराखंड का मिकीला गांव है। जहां सड़क और अस्पताल जैसी ज़रूरी चीज़ों का भी घोर अभाव है। राज्य के बागेश्वर जिला से करीब 48 किमी दूर और ब्लॉक कपकोट से 23 किमी दूर इस गांव में पहुंचना भी किसी चुनौती से कम नहीं है। गांव में न तो बेहतर सड़क है और न ही अस्पताल की सुविधा उपलब्ध है।

इस संबंध में गांव के 42 वर्षीय हेमंत दानू कहते हैं कि “पिछले कई दशकों से गांव वाले इन्हीं अभावों में जीने को मजबूर हैं। किसी प्रकार ग्रामीण अपना जीवन बसर कर रहे हैं।” वह आरोप लगाते हैं कि “इतने वर्षों में कभी भी कोई प्रशासनिक अधिकारी या संबंधित विभाग के लोग इस गांव की स्थिति के बारे में जानने नहीं आये।”

हेमंत के साथ ही खड़े खेती किसानी करने वाले 40 वर्षीय संतोष कपकोटी कहते हैं कि “केवल प्रशासनिक अधिकारी ही नहीं बल्कि कोई जनप्रतिनिधि भी हमारा हाल जानने नहीं आता है। लोग चुनाव के समय वादा करते हैं लेकिन पूरा नहीं होता है।”

वहीं 32 वर्षीय युवक अनिल कहते हैं कि “करीब 1237 लोगों की जनसंख्या वाले इस गांव में न तो उन्नत सड़क है और न ही अस्पताल की सुविधा है। गांव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तो बना हुआ है लेकिन न तो वहां कभी कोई डॉक्टर आया है और न ही उसमें किसी इमरजेंसी में इलाज की सुविधा उपलब्ध है। किसी प्रकार के इलाज की सुविधा के लिए सबसे नज़दीक अस्पताल भी 10 किमी दूर है। लेकिन गांव वाले ज़रूरत के समय अपने मरीज़ को ब्लॉक के अस्पताल ले जाने के लिए मजबूर हैं।”

वह कहते हैं कि “गांव के लोग आर्थिक रूप से बहुत कमज़ोर हैं। अधिकतर लोग खेती और मज़दूरी करते हैं। ऐसे में वह किसी प्रकार पैसों का बंदोबस्त कर निजी वाहन के माध्यम से कपकोट अस्पताल जाते हैं। यदि गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में सुविधा उपलब्ध होती तो इन गरीबों को कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता।”

वहीं गांव की एक 17 वर्षीय किशोरी निशा बताती है कि वह 12वीं की छात्रा है और उच्च विद्यालय दूसरे गांव में है। लेकिन सड़क की हालत इतनी खराब है कि कोई सवारी गाड़ी समय पर नहीं मिलती है। ऐसे में लगभग सभी छात्र-छात्राएं पहाड़ी रास्तों से होकर स्कूल जाना आना करते हैं। लेकिन कई बार लोगों को जंगली कुत्तों का सामना करना पड़ता है। जिसकी वजह से कई लड़कियों ने डर से स्कूल जाना बंद कर दिया है।

वह कहती है कि “अक्सर हम लड़कियां समूह बनाकर स्कूल जाती हैं ताकि जंगली कुत्तों का मिलकर सामना किया जा सके। यदि सड़क बेहतर होती तो हमें इस प्रकार डर डर कर स्कूल नहीं जाना पड़ता।”

अस्पताल की कमी और सड़क की खस्ताहाली का सबसे ज़्यादा बुरा प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर पड़ता है। प्रसव के समय करीब में अस्पताल नहीं होने से जहां उन्हें परेशानी होती है तो वहीं जर्जर सड़क उनके प्रसव दर्द को और भी जटिल बना देती है।

इस संबंध में गांव की 27 वर्षीय लक्ष्मी कहती हैं कि उन्हें पूरे गर्भावस्था अवधि में जितनी कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा, केवल प्रसव के लिए अस्पताल जाने के दिन करनी पड़ी। वह बताती हैं कि “जब मुझे अस्पताल ले जाया जा रहा था उस समय टूटी सड़क के कारण मेरी सांस अटकने लगी थी। एक ओर जहां अस्पताल पहुंचना ज़रूरी था तो वहीं खस्ताहाल सड़क के कारण गाड़ी धीरे चलानी पड़ रही थी।”

वह कहती हैं कि “सड़क की कमी के कारण हमारा कोई भी रिश्तेदार इस गांव आना नहीं चाहता है। यह हमारे लिए बहुत ही शर्मिंदगी का कारण बनता है जब हमारे रिश्तेदार गांव की सड़क का मज़ाक उड़ाते हुए आने से मना कर देते हैं।”

इस संबंध में सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैंडी कहती हैं कि “किसी भी गांव के विकास के लिए अन्य विषयों के साथ साथ सड़क और अस्पताल भी बहुत ज़रूरी है। यह गांव की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती हैं। ऐसे में इसके विकास को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है।”

वह कहती हैं कि “अब बर्फ़बारी का मौसम शुरू हो चुका है। रास्ते बर्फ से ढंक जाएंगे, जिससे होकर गुज़रना खतरे से खाली नहीं होता है। जहां सड़कें अच्छी हालत में होती हैं वहां लोगों को किसी भी मौसम में कठिनाई नहीं है लेकिन जर्जर सड़क के कारण मिकीला गांव इस दौरान अन्य क्षेत्रों से कट जाता है। यह न केवल लोगों के लिए परेशानी का सबब है बल्कि गांव को विकास की राह में और भी पीछे धकेल देता है। यह न केवल गांव के विकास बल्कि विकसित भारत के सपने को पूरा करने में भी रुकावट है।

(उत्तराखंड से हेमा मर्तोलिया की रिपोर्ट।)

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