कमला भसीन का स्त्री संसार

भारत में महिला अधिकार आंदोलन की दिग्गज नारीवादी कार्यकर्ता, कवयित्री और लेखिका कमला भसीन का शनिवार सुबह निधन हो गया वह 75 वर्ष की थीं। वह कैंसर से पीड़ित थीं। भसीन का निधन दिल्ली के एक अस्पताल में हुआ।

भसीन का जन्म 24 अप्रैल 1946 को मंडी बहाउद्दीन जिले में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। विभाजन के बाद, उनका परिवार भारत के राजस्थान आ गया था। छह भाई-बहनों वाले परिवार में जन्म लेने वाली कमला भसीन का बचपन राजस्थान में बीता। यहां उन्होंने सामाजिक खांचों और उसमें महिलाओं की जगह, बंधनों और चुनौतियों को क़रीब से देखा और समझा।
राजस्थान यूनिवर्सिटी से परास्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद वह जर्मनी गईं, जहां उन्होंने समाजवादी विकास विषय पर पढ़ाई की। वह कुछ वक़्त तक जर्मनी में पढ़ाती भी रहीं।

लेकिन आख़िरकार वह भारत वापस आ गयीं। और उन्होंने राजस्थान में सेवा मंदिर संगठन के साथ ज़मीन पर काम करना शुरू किया। कमला भसीन ने सेवा मंदिर के बाद संयुक्त राष्ट्र जैसी तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ काम किया। कमला भसीन शुरुआती महिला आंदोलनकारियों में से एक मानी जाती हैं। 1970 के दशक से, भसीन भारत के साथ-साथ अन्य दक्षिण एशियाई देशों में महिला आंदोलन में एक प्रमुख आवाज रही हैं। 2002 में, उन्होंने नारीवादी नेटवर्क ‘संगत’ की स्थापना की, जो ग्रामीण और आदिवासी समुदायों की वंचित महिलाओं के साथ काम करती है। कहा जाता है कि देश में प्रदर्शन स्थलों पर गूंजने वाले ‘आजादी’ के नारे को भसीन ने ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ नारीवादी नारे के रूप में लोकप्रिय बनाया था।

उन्होंने 1975 से अपना काम शुरू किया। और तत्कालीन नारीवादी आंदोलन का एक अहम चेहरा बनकर उभरीं। उनके काम की सबसे सुंदर बात या उनके काम की विरासत उनके द्वारा लिखे गए गीत हैं। कमला भसीन ने महिला आंदोलन को पहले गीत दिए। कोई भी लड़की अगर महिला आंदोलन से जुड़ेगी, किसी मोर्चे पर जाएगी तो वह ये गाने ज़रूर गाएगी। इनमें से एक गीत ये है –
तोड़ – तोड़कर बंधनों को, देखो बहनें आती हैं, देखो लोगों, देखो बहनें आती हैं, आएंगी जुल्म मिटाएंगी, वो तो नया जमाना लाएंगी।

शुरुआती दौर के ये गीत महिलाओं के मुद्दों को बिना लाग लपेट साफ और ज़ोरदार तरीके से रखते थे। कमला भसीन के काम की यही निशानी भी रही है। नाटकों, गीतों और कला जैसे गैर-साहित्यिक साधनों का उपयोग करती हैं।
भसीन ने लिंग सिद्धांत और नारीवाद पर कई किताबें लिखी हैं, जिनमें से कई का 30 से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उनकी प्रमुख रचनाओं में लाफिंग मैटर्स (2005; बिंदिया थापर के साथ सहलेखन), एक्सप्लोरिंग मैस्कुलैनिटी (2004), बॉर्डर्स एंड बाउंड्रीज: वुमेन इन इंडियाज़ पार्टिशन (1998, ऋतु मेनन के साथ सहलेखन), ह्वॉट इज़ पैट्रियार्की? (1993) और फेमिनिज़्म एंड इट्स रिलेवेंस इन साउथ एशिया (1986, निघत सईद खान के साथ सहलेखन) शामिल हैं।

अपने लेखन और एक्टिविज़्म में भसीन एक ऐसे नारीवादी आंदोलन का सपना बुनती हैं, जो वर्गों, सरहदों और दूसरे सभी सामाजिक और राजनीतिक बंटवारों को लांघ जाए। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था – क्या आपको लगता है कि स्त्री का रेप करने वाला पुरुष इंसान है? उसे कहा गया है कि उसे दूसरे समुदाय की औरत का रेप करना है- कि वह एक लड़ाका है, और वह एक बड़े मकसद के लिए रेप कर रहा है। वह अपने शरीर को औरतों के ख़िलाफ़ एक हथियार में बदल देता है। क्या वह हथियार तब प्रेम का औजार बन सकता है?

‘अगर एक औरत किसी पुरुष से यह कहती है कि वह उससे प्यार नहीं करती, तो वह उसके चेहरे पर तेजाब फेंक देता है। जब उसे लगता है कि उसकी बीवी ने उसे प्यार से नहीं चूमा है, तो वह शिकायत नहीं करता। वह उसे चांटा मार देने को ज़्यादा आसान समझता है, क्योंकि पितृसत्ता ने उसे यही सिखाया है। एक पुरुष जो बस में किसी स्त्री के स्तनों को दबाने में खुशी महसूस करता है, उसे एक मनोरोग चिकित्सक के पास जाना चाहिए। वह सेहतमंद नहीं है। उन्होंने कई बार विभिन्न मंचों पर महिलाओं के बलात्कार को लेकर प्रयुक्त होने वाली शब्दावली पर भी सवाल उठाए थे। उनका कहना था कि बलात्कार होता है ‘तब इज्जत मर्द की लुटती है औरत की नहीं।’

सारी उम्र अपनी शर्तों और मानकों पर ज़िंदगी जीने वाली 75 वर्षीय कमला भसीन जीवन के आख़िरी समय में कैंसर से जूझ रही थीं। लेकिन अपने जीवन के अंतिम दौर में भी उन्होंने हार नहीं मानी। दो-तीन बार अस्पताल में भर्ती हुईं। लेकिन उस माहौल में भी उन्होंने अपने गानों, दोहों और कविताओं के दम पर ऊर्जा का संचार कर दिया। वह अपने साथी मरीजों को हंसाती थीं। लोगों के साथ मज़ाक करती थीं। योगा करती थीं और डॉक्टर से विस्तार से अपने इलाज़ के बारे में बात करती थीं।
(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार हैं और जयपुर में रहते हैं।)

शैलेंद्र चौहान
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