खरसांवा कांडः आजाद भारत का जलियांवाला बाग

भारत ही नहीं पूरी दुनिया में पहली जनवरी को नए वर्ष के आगमन पर जश्न मनाया जाता है। वहीं झारखंड के खरसावां और कोल्हान के जनजातीय समुदाय के लोग एक जनवरी को काला दिवस और शोक दिवस के रूप में मनाते हैं। आजादी के मात्र साढ़े चार महीने बाद ही खरसावां हाट बाजारटांड में पुलिस फायरिंग में कई हजार लोग मारे गए थे। आजादी के बाद यह पहला सरकारी जनसंहार था। इसे आजाद भारत का जालियांवाला बाग जनसंहार माना गया।

15 अगस्त 1947 को मिली आजादी के बाद सिंहभूम के आदिवासी समुदायों ने 25 दिसंबर 1947 को चंद्रपुर जोजोडीह में नदी किनारे एक सभा आयोजित की। इसमें तय किया गया कि सिंहभूम को उड़ीसा राज्य में न रखा जाए, बल्कि इसे अलग झारखण्ड राज्य के रूप में रखा जाए। दूसरी ओर सरायकेला खरसावां के राजाओं ने इसे उड़ीसा राज्य में शामिल करने की सहमति दे दी थी।

आदिवासी समुदाय खुद को स्वतंत्र राज्य के रूप में अपनी पहचान कायम रखना चाहता था, इसके लिए वे गोलबंद होने लगे और तय किया गया कि एक जनवरी को खरसवां के बाजारटांड़ में सभा का आयोजन किया जाएगा। इसमें जयपाल सिंह मुंडा भी शामिल होंगे।

इस सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने आने की सहमति दी थी। वहीं जयपाल सिंह को सुनने के लिए तीन दिन पहले से ही चक्रधरपुर, चाईबासा, जमशेदपुर, खरसवां, सराकेला के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र के लोग सभास्थल की ओर निकल पड़े थे। सभा में शामिल होने वाले लोग अपने साथ सिर पर लकड़ी की गठरी, चावल, खाना बनाने का सामान, डेगची-बर्तन भी साथ में लेकर आए थे। वास्तव में उस दौरान आदिवासियों के मन में अलग झारखंड राज्य बनने की उमंग थी। इसके लिए वे गोलबंद होना शुरू हो गए थे।

सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार योगो पुर्ती बताते हैं कि उनके पिता स्व. बोंज हो (बोंच पुर्ती) खरसांवा की घटना पर हम बच्चों को बताते रहते थे। उस वक्त वे लगभग 14—15 साल के थे। वे बताते थे कि जयपाल सिंह मुंडा के बुलावे पर बड़े, बूढ़े, बच्चे, महिलाएं सभी एक जनवरी 1948 को खरसावां हाट में जुटे थे। जयपाल सिंह मुंडा आए नहीं थे। लगभग 50 हजार की भीड़ थी, लोग जयपाल सिंह का इंतजार कर रहे थे कि अचानक फायरिंग होने लगी। फिर क्या था भगदड़ मच गई। हम लोग खेतों से होते हुए किसी तरह जान बचा कर भागे थे।

पूर्व विधायक बहादुर उरांव बताते हैं कि एक जनवरी 1948 के दिन गुरुवार को हाट-बाजार का भी दिन था। आस-पास की महिलाएं भी बाजार करने के लिए आईं थीं। वहीं दूर-दूर से आए बच्चों एवं पुरुषों के हाथ पारंपरिक हथियार और तीर धनुष से लैस थे। रास्ते में सारे लोग नारे लगाते जा रहे थे और आजादी के गीत भी गाए जा रहे थे। एक ओर राजा के निर्णय के खिलाफ पूरा कोल्हान सुलग रहा था, दूसरी ओर सिंहभूम को उड़ीसा राज्य में मिलाने के लिए, उड़ीसा के मुख्यमंत्री विजय पाणी भी षड़यंत्र रच चुके थे।

उड़ीसा राज्य प्रशासन ने पुलिस को खरसावां भेज दिया, जो चुपचाप मुख्य सड़कों से न होकर अंधेरे में 18 दिसंबर 1947 को ही सशस्त्रबलों की तीन कंपनियां खरसावां मिडिल स्कूल पहुंची हुई थी। आजादी के मतवाले इन बातों से बेखबर अपनी तैयारी में लगे थे। सभी नारा लगाते हुए जा रहे थे और साथ ही उड़ीसा के मुख्यंमत्री के खिलाफ भी नारा लगा रहे थे।

बताया जाता है कि एक जनवरी 1948 की सुबह, राज्य की मुख्य सड़कों से जुलूस निकला गया था। इसके बाद आदिवासी महासभा के कुछ नेता खरसावां राजा के महल में जाकर उनसे मिले और सिंहभूम की जनमानस की इच्छा को बताया। इस पर राजा ने आश्वासन दिया कि इस विषय पर भारत सरकार से वे बातचीत करेंगे। सभा दो बजे दिन से चार बजे तक की गई। सभा के बाद आदिवासी महासभा के नेताओं ने सभी को अपने-अपने घर जाने को कहा। सभी अपने-अपने घर की ओर चल दिए। उसी के आधे घंटे बाद बिना किसी चेतावनी के फायरिंग शुरू हो गई।

बताते हैं कि आधे घंटे तक गोली चलती रही। घर लौटते लोगों पर भी उड़ीसा सरकार के सैनिकों ने गोलियों की बौछार कर दी। इस गोली कांड से बचने के लिए कुछ लोग जमीन पर लेट गए, कुछ लोग भागने लगे, कई लोग जान बचाने के लिए पास के कुओं में भी कूद गए, जिसमें सैकड़ों लोगों की जान चली गई। मगर सैनिकों की ओर से गोलियां चलाने का सिलसिला नहीं थमा। भागती महिलाओं, पुरुषों के अलावा बच्चों की पीठ पर भी गोलियां दागी गई। यहां तक कि घोड़े, बकरी और गाय भी इस खूनी घटना के शिकार हुए।

गोलियां चलने के बाद पूरे बाजार मैदान में हर तरफ लोगों के शव बिछ गए। हर तरफ लाशें और खून था। पूरा इलाका चीख और पुकार से गूंज रहा था। तमाम लोग घायल होकर पड़े थे, लेकिन उनकी कोई भी सुध लेने वाला नहीं था। इन घायलों को उड़ीसा सरकार के सैनिकों ने चारों ओर से घेर रखा था। सैनिकों ने किसी भी घायल को वहां से बाहर जाने नहीं दिया और न ही घायलों की मदद के लिए किसी को अंदर आने की अनुमति ही दी। घटना के बाद शाम होते ही उड़ीसा सरकार के सैनिकों की ओर से बड़ी ही निर्ममता पूर्वक इस जनसंहार के सुबूत को मिटाना शुरू कर दिया गया था। सैनिकों ने शव को एकत्रित किया और उसे लगभग 10 ट्रकों में लादकर ले गए और सारंडा के बीहड़ों में फेंक दिया।

सबसे दर्दनाक बात यह थी कि घायलों को सर्दियों की रात में पूरी रात खुले में छोड़ दिया गया और उन्हें पानी तक नहीं दिया गया। इसके बाद उड़ीसा सरकार ने बाहरी दुनिया से इस घटना को छुपाने की भरपूर कोशिश की। बहादुर उरांव के अनुसार उड़ीसा सरकार नहीं चाहती थी कि इस जनसंहार की खबर को बाहर जाने दें और इसे रोकने की पूरी कोशिश की गई। यहां तक कि बिहार सरकार ने घायलों के उपचार के लिए चिकित्सा दल और सेवा दल भेजा, जिसे वापस कर दिया गया। साथ ही पत्रकारों को भी इस जगह पर जाने की अनुमति नहीं थी।

खरसावां के इस ऐतिहासिक मैदान में एक कुआं था, भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया। बाद में कुंए का मुंह बंद कर दिया गया। बाद में यहां पर शहीद स्मारक बनाया गया। इसी स्मारक पर एक जनवरी को फूल और तेल डालकर शहीदों को श्रदांजलि अर्पित की जाती है।

घटना के बाद पूरे देश में प्रतिक्रिया हुई। उन दिनों देश की राजनीति में बिहार के नेताओं का अहम स्थान था और वे भी यह विलय नहीं चाहते थे। ऐसे में इस घटना का असर ये हुआ कि इलाके का उड़ीसा में विलय रोक दिया गया।

घटना के बाद समय के साथ यह जगह खरसावां शहीद स्थल में रूप में जाना गया। इसका आदिवासी समाज और राजनीति में बहुत भावनात्मक और अहम स्थान है। खरसावां हाट के एक हिस्से में आज शहीद स्मारक है और इसे अब पार्क में भी तब्दील कर दिया गया है।

पहले यह पार्क आम लोगों के लिए भी खुलता था, मगर साल 2017 में यहां ‘शहीद दिवस’ से जुड़े एक कार्यक्रम के दौरान ही झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास का विरोध हुआ और जूते उछाले गए थे। इसके बाद से यह पार्क आम लोगों के लिए बंद कर दिया गया है। अब देखना है हेमंत सरकार में पुन: यह पार्क आम लोगों के लिए भी खुलता है या नहीं।

विशद कुमार
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