ग्राउंड रिपोर्ट: कृषि यंत्रों के बढ़ते प्रयोग से हल-बैलों की जोड़ी हुई जुदा, हाशिये पर पहुंचे मजदूर

मिर्जापुर/जौनपुर। 90 के दशक तक दो बैलों के सहारे पूरे परिवार के दस सदस्यों का पेट भरते आये रामनिहोर चौहान खुद के साथ दूसरों के खेतों में हल और बैल से खेत की जुताई कर इलाके में पहचान बने हुए थे, लेकिन बदलते दौर (कृषि में यन्त्रीकरण के बढ़ते प्रभाव) ने खेती-किसानी पर ऐसा असर डाला कि पहचान क्या, हल और बैल की जोड़ी का वजूद ही समाप्त कर दिया। हल और बैल की जोड़ी पर0 मशीनों का असर यह हुआ कि इन्हें निराश्रित बना दिया।

कालांतर में कृषि यन्त्रीकरण ने इनके घर के दरवाजे पर बंधे रहने वाले बैलों की जोड़ी को दूर कर दिया है। खेती घाटे का सौदा होती गई। जिसका असर यह हुआ है कि खेती से न केवल मोहभंग होता गया, बल्कि उनके खेती के कामकाज में हाथ बढ़ाते आए उनके बेटों ने भी खेती-किसानी से दूरी बनाकर महानगरों की राह पकड़ ली। जौनपुर जिले के सिहौली गांव निवासी रामनिहोर की यह कोई एकलौती पीड़ा नहीं है, बल्कि ऐसे अनगिनत रामनिहोर हैं जो हल और बैल की जोड़ी के जुदा हो जाने से हाशिए पर आ पहुंचे हैं।

खेतों में गेहूं की फसल

उम्र के 90 बसंत पार कर चुके रामनिहोर कहते हैं कि “आज के विकास के लिहाज से कृषि यन्त्रीकरण का प्रभाव भले ही विकासपरक कहा जा सकता है, लेकिन इसके कुप्रभाव की ओर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता है? कृषि यन्त्रीकरण ने छोटे-मझोले किसानों के हल-बैल की जोड़ी को समाप्त कर उन्हें निराश्रित व तबाह कर दिया है और मजदूरों को लाचार और बेरोजगार बना दिया है। कल तक जिन बैलों को शान से चारा-पानी देने के साथ उनकी बेहतर ढंग से देखभाल होती रही, आज उन्हें मारा-मारा फिरने के लिए छोड़ दिया गया है, वे छुट्टा घूम रहे हैं।”

वह बताते हैं कि “त्वरित फायदे के लिए खेती से हल-बैल की जोड़ी और मजदूरों का दूर होना खेत-खलिहान और किसानों के लिए अहितकर रहा है।”

बैलों से फसल की मड़ाई

कृषि यन्त्रीकरण से मजदूर हुए बेरोजगार, गोवंश हुए निराश्रित

कृषि यन्त्रीकरण के दौर में तमाम ट्रैक्टर निर्माता कंपनियों ने लुभावने और आकर्षक विज्ञापनों के जरिये किसानों को रिझाया है। मसलन ”अमुक कंपनी के ट्रैक्टर ने गेहूं की मडाई में बाजी मार ली, कम ईंधन की खपत, लोड में डिगा नहीं, अब ट्रैक्टर मालिकों की पहली पसंद बन चुका”- जैसे शब्दों के जरिये किसानों को कंपनियां खूब रिझा रही हैं। हालांकि तकरीबन पांच मजदूर मड़ाई में लग रहे हैं जो प्रति घण्टे डेढ़ सौ रुपये मजदूरी ले रहे हैं और घंटों का काम मिनटों में निपटा दे रहे हैं।

बावजूद इसके मजदूर काम के अभाव में मारा-मारा फिर रहा है। पर्याप्त काम न मिलने से मजदूर महानगरों की राह पकड़ रहे हैं। जबकि एक समय हुआ करता था कि समय-समय पर खेतों में काम के लिए मजदूरों की तलाश होती थी। अब तो गेहूं की बुआई हो, धान की रोपाई हो, आलू, गन्ना इत्यादि की खेती हो, सभी में कृषि यन्त्रीकरण का प्रभाव बना हुआ है। ट्रैक्टर के जरिये गेहूं की मड़ाई में जुटे सुरेश की माने तो “ट्रैक्टर से चार घण्टे में एक हेक्टेयर की मड़ाई कर रहे हैं”।

खेल से लौटते किसान

मिर्जापुर जिले के तालर गांव निवासी किसान जयशंकर कहते है कि “कृषि यन्त्रीकरण के चलते अनाज तो सुरक्षित हो जाता है, लेकिन मजदूरी और ट्रैक्टर भाड़ा किसान को मंहगा पड़ रहा है। बैल से पहले मड़ाई होती थी। बैल और मजदूरी का खर्च नहीं था, लेकिन महीनों लोग गेहूं की मड़ाई में लगे रहते थे। बैल, गाय, भैंस को भूसा मुफ्त में मिल जाता था। गोबर की खाद के साथ खाना बनाने के लिए उपले मुफ्त में मिल जाते थे। लागत कम थी।”

वो आगे कहते हैं कि “किसान उर्वरक कम प्रयोग करता था, खेतों में बैल का गोबर उपयोगी हुआ करता था। ढैचा की बुवाई कर खेत की उर्वरा शक्ति बनी रहती थी। लेकिन यंत्रीकरण के प्रभाव ने खेत खलिहानों पर भी ऐसा प्रभाव डाला है कि मध्यमवर्गीय किसानों की कमर ही टूट गई है। जैसे-जैसै कृषि यन्त्रीकरण का प्रभाव बढ़ता गया है वैसे-वैसे खेती-किसानी का दायरा सिमटता जा रहा है।”

अपने घर में किसान परिवार

किसानों का कहना है कि “अब खेत में गोबर की पड़ती, ढैचा और मूंग की खेती नहीं होती। अब बाजार के बीज की बुवाई करते हैं। डीएपी और कृषि रक्षा रसायन गुणवत्तापूर्ण नहीं हैं। दाम आसमान छू रहे हैं। बस एक भरोसे से खेती करते आ रहे हैं। ईंधन और बिजली सब में मंहगाई का खेल है। कृषि यन्त्रीकरण के चलते खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है। जुताई, बुवाई, सिंचाई, कटाई, मड़ाई सब किसान के ऊपर जैसे बोझ सा बन गया है। मौसम की मार और आवारा पशुओं के साथ ही जंगली सुअर, नीलगाय अलग से खेती-किसानी में नुकसान पहुंचा रहे हैं।

कृषि यन्त्रीकरण से भूसे की समस्या

कम्बाइन मशीन से कटाई और थ्रेसर के पावर ट्रैक्टर से मड़ाई ने काम भले ही आसान किया हो, लेकिन देखा जाए तो कृषि यन्त्रीकरण ने पशुओं के समक्ष भूसा (चारा) और मजदूरों के समक्ष रोजी-रोटी की समस्या खड़ा किया है। भूसे की उत्पन्न समस्या कम्बाइन मशीन से कटाई का ही असर कहा जायेगा। जबकि पूर्व में थ्रेसर से मड़ाई होने पर अनाज और भूसा भरपूर हुआ करता था। इससे किसान अपने लिए अनाज और अपने पशुओं के लिए चारा के तौर पर भूसे की व्यवस्था कर लिया करता था, जो अब कठिन हो चला है। अनाज तो मिल जा रहा है, लेकिन भूसा सपना हो चला है।

थ्रेसर से मड़ाई

मिर्जापुर के हलिया क्षेत्र निवासनी तेतरा देवी और अभिनेष सिंह आदि का कहना है कि “आवारा पशुओं और जलवायु परिवर्तन से किसानों की लागत बढ़ती जा रही है। बढ़ती हुई मंहगाई ने बीज और खाद में आग लगा दी है। बुवाई, सिंचाई और मड़ाई सब पैसे का खेल हो गया है। ओला और अतिवृष्टि से गेहूं और सरसों की फसल गिर गयी, लेकिन सरकार ने सर्वे तक नहीं करवाया।”

ओला-अतिवृष्टि और आग की घटनाओं ने बढ़ाई परेशानी

आवारा पशुओं का खेतों में आतंक और जलवायु परिवर्तन के बाद खेत-खलिहानों में आग लगने की घटनाओं ने भी किसानों को काफी हताश किया है। शायद ही ऐसा कोई जनपद, तहसील या ब्लाक रहा होगा, जहां आग लगने की घटनाएं सामने न आई हों। हल-बैल की जोड़ी को जुदा कर जब से कृषि यन्त्रीकरण को बढ़ावा दिया जाने लगा है तब से खेत-खलिहानों में आग लगने की घटनाओं में भी इजाफा हुआ है।

खलिहान में रखी फसल में आग

अब इसे संयोग कहा जाय या लापरवाही। कभी बिजली के शार्ट-सर्किट से तो कभी थ्रेसर मशीन की चिंगारी ने परेशानी बढ़ाई है। इससे किसानों को अनाज और भूसा दोनों से हाथ धोना पड़ जा रहा है। भले ही कृषि यन्त्रीकरण ने खेत-खलिहानों में अपना प्रभाव जमाया हो, लेकिन उन्हीं खेत-खलिहानों में आग लगने के बाद आग बुझाने के संसाधनों का अभाव किसानों को तबाह किए जा रहा है।

(मिर्जापुर और जौनपुर से संतोष देव गिरि की रिपोर्ट)

संतोष देव गिरी
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संतोष देव गिरी