2020 के कई कानूनों से समुदायों में बढ़ा भेदभाव, देश का सामाजिक तानाबाना भी हुआ कमज़ोर

पिछले अनेक दशकों से भारत में सांप्रदायिक दंगे, सांप्रदायिक तनाव और हिंसा का सबसे आम प्रकटीकरण रहे हैं। देश में अनेक भयावह सांप्रदायिक दंगे हुए हैं, जिनमें नेल्ली (1983), दिल्ली सिक्ख-विरोधी हिंसा (1984), भागलपुर (1989), बंबई (1992), गुजरात (2002), कंधमाल (2008), मुज़फ्फरनगर (2013) और हाल में उत्तर-पूर्वी दिल्ली (2020) शामिल हैं। इनमें बड़ी संख्या में लोगों की जानें गईं और निजी और सार्वजनिक संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचा।

इसके साथ ही, यह भी एक तथ्य है कि 2014 के बाद से दंगों की संख्या और उनके स्वरूप में कुछ मूलभूत अंतर आए हैं। पिछले कुछ वर्षों से बड़े पैमाने पर भयावह दंगे कम होने लगे हैं। अब दंगे अपेक्षाकृत छोटे पैमाने पर होते हैं। इसके साथ ही, समाज के कमज़ोर वर्गों जैसे मुसलमानों, ईसाईयों और आदिवासियों को ‘मॉब लिंचिंग’ का शिकार बनाया जा रहा है। इसके लिए जो बहाने इस्तेमाल किए जा रहे हैं, उनमें गौहत्या, गौमांस का सेवन, अंतरधार्मिक विवाह, बच्चा चोरी आदि शामिल हैं। इसके साथ ही, भेदभावपूर्ण नीतियों और कानूनों के ज़रिए संरचनात्मक हिंसा को भी बढ़ावा दिया जा रहा है।

देश में बच्चा चोरी करने के शक में निर्दोष लोगों को पीट-पीट कर मार डालने की घटनाओं में कमी आई है। इसका कारण है ऐसे मामलों में राज्य की त्वरित प्रतिक्रिया, जिसमें दोषियों पर कार्यवाही और पीड़ितों के परिवारों को पर्याप्त मुआवजा दिया जाना शामिल है। इसके विपरीत, गौरक्षा के नाम पर भीड़ की हिंसा की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं, क्योंकि इन मामलों में पीड़ितों के साथ न्याय करना तो दूर रहा, उन्हें ही अपराधी घोषित किया जाता रहा है।

सन 2020 में भी यही प्रवृति जारी रही। सन 2019 की तुलना में, 2020 में सांप्रदायिक दंगों और लिंचिंग की घटनाओं की संख्या में कमी आई। सन 2020 में 10 सांप्रदायिक दंगे हुए और लिंचिंग की 20 घटनाएं सामने आईं। इसके मुकाबले, 2019 में 25 दंगे और लिंचिंग की 107 घटनाएं हुईं थीं। ये आंकड़े सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म (सीएसएसएस) द्वारा समाचारपत्रों में छपी ऐसी घटनाओं से संबंधित ख़बरों के संकलन पर आधारित हैं।

सन 2020 में ऐसे कई कानून बनाए गए जो धार्मिक समुदायों के बीच भेदभाव करने वाले और समाज को सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने वाले थे। ये कानून भारत के सामाजिक तानेबाने को कमज़ोर करने और नफरत को बढ़ावा देने वाले थे। जाहिर है कि इनका प्रभाव दंगों से अधिक व्यापक और लंबे समय तक चलने वाला होता है और उनका असर समाज के सभी तबकों पर पड़ता है। इन कानूनों के कार्यान्वयन से धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण बढ़ रहा है, विभिन्न समुदायों में परस्पर नफरत और शत्रुता के भाव में वृद्धि हो रही है और धर्म के आधार पर नागरिकों के बीच भेदभाव करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है। इन कानूनों ने सांप्रदायिक पहचानों को और गहरा किया है और दूसरे समुदाय के प्रति नफरत पर आधारित धर्म-आधारित एकता को बढ़ावा दिया है। सन 2020 में भी यही कुछ हुआ।  

पिछले कुछ वर्षों में संरचनात्मक हिंसा ने भारत में और गहरी जड़ें जमा लीं हैं और इनका इस्तेमाल धार्मिक अल्पसंख्यकों का और अधिक हाशियाकरण करने के लिए किया जा रहा है। संरचनात्मक हिंसा के भी वही नतीजे होते हैं, जो शारीरिक हिंसा के ध्रुवीकरण में वृद्धि और भेदभाव का संस्थागत स्वरूप लेना, जिससे अंतर्सामुदायिक रिश्तों में संदेह, शत्रुता और हिंसा में वृद्धि होती है। शारीरिक हिंसा की तुलना में संरचनात्मक हिंसा का प्रभाव अपेक्षाकृत लंबे समय तक रहता है। शारीरिक हिंसा स्पष्ट नज़र आती है और इसे समाज नकारात्मक नज़रों से देखता है। संरचनात्मक हिंसा अपेक्षाकृत अदृश्य होती है और उसे एक नज़र में गलत ठहराना मुश्किल होता है।  

संरचनात्मक हिंसा के कुछ उदाहरण हैं, अंतरधार्मिक दंपतियों को निशाना बनाने वाले धर्मांतरण-विरोधी कानून, कोविड महामारी के दौरान मुस्लिम समुदाय के बारे में अपमानजनक आख्यान, जिनसे राज्य और जनता में उनके प्रति घृणा के भाव में वृद्धि हुई और नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध करने वालों का क्रूरतापूर्ण दमन।  इसके साथ ही, शीर्ष अधिकारियों और राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं द्वारा घृणा फैलाने वाले भाषणों और वक्तव्यों में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है।

ये भाषण और वक्तव्य, गुंडा तत्वों के लिए यह संकेत होते हैं कि वे कानूनी कार्रवाई के डर के बिना हाशियाकृत समुदायों को निशाना बना सकते हैं। इससे ज़मीनी स्तर पर हिंसा को बढ़ावा मिलता है। कुल मिलाकर, सांप्रदायिक हिंसा के इन प्रकारों के चलते, कमज़ोर वर्गों की प्रताड़ना बढ़ रही है और उनकी स्थिति दूसरे दर्जे के नागरिकों से भी ख़राब हो गई है।

हाल में मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद प्रशासन ने एक मुसलमान का घर इस आरोप में ढहा दिया कि उसके घर से एक जुलूस पर पत्थरबाज़ी हुई थी। इस घटना से साफ़ है कि राज्य की मशीनरी, मुसलमानों से शत्रु की तरह व्यवहार करती है। धार्मिक अल्पसंख्यकों पर दुहरी मार पड़ रही है। पहले वे दंगाईयों के हाथों हिंसा का शिकार बनते हैं और बाद में सरकार की मनमानी के। उनकी अचल संपत्तियों को ढहा दिया जाता है और वे सड़क पर आ जाते हैं।

संरचनात्मक हिंसा
संरचनात्मक हिंसा से आशय है सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचों के ज़रिये किसी समुदाय या समुदायों के विरुद्ध भेदभाव और उनका बहिष्करण। ‘संरचनात्मक हिंसा’ शब्द का सबसे पहले प्रयोग जोहान गल्टुंग ने उस हिंसा के लिए किया था जो समाज के ढांचे का भाग होती हैं और इसलिए उसे पहचानना और समाप्त करना अधिक कठिन होता है। प्रत्यक्ष, शारीरिक हिंसा लोगों का ज्यादा ध्यान खींचती हैं, परंतु जो हिंसा सामाजिक ढांचे का भाग होती हैं, वह उतना ही और कभी-कभी उससे भी ज्यादा नुकसान कर सकती हैं। ऐसे कुछ ढांचे हैं वर्ग, नस्ल और पितृसत्तात्मकता। संरचनात्मक हिंसा की जड़ में होते हैं ऐसे राजनीतिक और आर्थिक ढांचे जो व्यक्तियों के विशिष्ट समूहों को समान अवसरों अथवा मताधिकार से वंचित करते हैं।

पिछले साल की अपनी रिपोर्ट में सीएसएसएस ने बताया था कि सन 2019 में संरचनात्मक हिंसा का प्रकटीकरण था नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी)। जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इस कानून का विरोध करने वालों के साथ पुलिस ने जो व्यवहार किया, वह प्रजातंत्र को शर्मसार करने वाला था। सीएए और एनआरसी के विरुद्ध प्रदर्शनों से पहले, सरकार ने जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त किया था। इस निर्णय के बाद कश्मीर में इंटरनेट और फ़ोन सेवाएं बंद कर दी गईं और इस प्रकार राज्य को पूरे दुनिया से अलग-थलग कर दिया गया। इस निर्णय को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुनने में न्यायपालिका ने बहुत देरी की।

सन 2019 में संरचनात्मक हिंसा का एक दूसरा उदाहरण था, उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा हरिद्वार में कुंभ मेले के आयोजन के लिए एक बड़ी धनराशि का आवंटन। उत्तर प्रदेश सरकार ने सन 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों से संबंधित 75 मामले अदालतों से वापस ले लिए।

अब हम उन कानूनों और नीतियों की चर्चा करेंगे, जिनके कारण धार्मिक अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना और हाशियाकरण में प्रत्यक्ष वृद्धि हुई है। इन कानूनों के अलावा, इनके क्रियान्वयन के तरीके से एक ऐसा वातावरण बन गया है, जिसके चलते मुसलमानों, आदिवासियों, ईसाईयों और अल्पसंख्यक समुदायों की महिलाओं का योजनाबद्ध दमन संभव हो गया है। चूंकि संरचनात्मक हिंसा अदृश्य होती है, अतः उसका प्रभाव हमें दिखलाई नहीं देता। इसके अलावा, राज्य द्वारा बनाई गई नीतियों और कानूनों को एक तरह की स्वीकार्यता प्राप्त होती है, भले ही वे असंवैधानिक और विधि-विरुद्ध क्यों न हों। निम्नांकित नीतियों और कानूनों का भारत के राजनीतिक परिदृश्य और उसके सामाजिक तानेबाने पर व्यापक प्रभाव पड़ा है-

धर्मांतरण निषेध अध्यादेश
उत्तर प्रदेश सहित कई अन्य भाजपा-शासित प्रदेशों ने धर्मान्तरण को रोकने के लिए अध्यादेश जारी किए हैं। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अध्यादेश के ज़रिए लागू किए गए कानून (उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020) का उद्देश्य हिंदू धर्म से अन्य धर्मों में धर्मांतरण रोकता है। ऐसा दावा किया गया है कि मुसलमान युवक, हिंदू महिलाओं को ‘बहला-फुसला कर या अपने प्रेम जाल में फंसा कर उनसे मात्र इसलिए विवाह करते हैं ताकि उन्हें मुसलमान बनाया जा सके’ और इस कानून का घोषित उद्देश्य इसे रोकना है। इस तरह का कोई षड़यंत्र किया जा रहा है ऐसे कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।

सितंबर माह में ‘लव जिहाद’ के कथित मामलों की पड़ताल करने के लिए नियुक्त एक विशेष जांच दल (एसआईटी) ने 14 मामलों की जांच की और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि ऐसे कोई सबूत नहीं हैं कि मुसलमान युवकों को हिंदू-युवतियों को फंसा कर उनसे विवाह करने और फिर उन्हें मुसलमान बनाने के लिए विदेशों से धन मिल रहा है। परंतु इसके बाद भी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और कर्नाटक की राज्य सरकारों ने ऐसे कानून बनाए, जो संविधान द्वारा प्रदत्त धर्म, आस्था और जीवन के मूल अधिकार का उल्लंघन हैं। विभिन्न उच्च न्यायालयों ने इन अधिकारों के पक्ष में निर्णय सुनाए हैं।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक अंतरधार्मिक दंपत्ति के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि महिला, जो वयस्क है, अपने पति के साथ रहना चाहती है और उसे अपनी शर्तों पर अपनी ज़िन्दगी जीने और अपनी पसंद से किसी के भी साथ रहने का पूरा अधिकार है और कोई तीसरा पक्ष उसके रास्ते में नहीं आ सकता। इस मामले में महिला के पिता ने उसके पति के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई थी।

अंतरधार्मिक विवाह के एक अन्य मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा, “अनुच्छेद 25, लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य और संविधान के भाग तीन के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए सभी नागरिकों को अंत:करण की और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है।” अदालत ने कहा कि महिला वयस्क है जिसे अपनी भलाई-बुराई का ज्ञान है। “इस महिला व याचिकाकर्ता को निजता का मूल अधिकार है और वयस्क होने के नाते, उन्हें अपने कथित रिश्तों के परिणामों की जानकारी भी है।”

एक अन्य प्रकरण में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक वयस्क का यह मूल अधिकार है कि वह अपनी पसंद के किसी भी व्यक्ति से विवाह कर सकता है और भारत का संविधान इस अधिकार की गारंटी देता है।
(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनूदित)
(अगले अंक में जारी…)

  • इरफ़ान इंजीनियर एवं नेहा दाबाड़े
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