ग्राउंड रिपोर्ट: राजस्थान सरकार का न्यूनतम आय कानून  करोड़ों लोगों की जिंदगी में रोशनी ला सकता है

“मेरा नाम लादु देवी, उम्र अस्सी साल, पाली ज़िला के बाली से आई हूं। पिछले छ: महीने से मेरी पेंशन नहीं मिल रही है, किसी और के खाते में चली जा रही है, मेरी बात सुनी जाए।” राजधानी जयपुर में सूचना एवं रोज़गार अभियान के द्वारा 6 जुलाई से शहीद स्मारक पर जारी ‘जन-हक़’ धरने के सातवें दिन रामलीला मैदान में पेंशन के सवाल को लेकर एक बड़ा ‘लाभार्थी संवाद’ कार्यक्रम आयोजित किया गया। इसमें राजस्थान के कई हिस्सों के वृद्धावस्था, एकल-नारी और दिव्यांगजन सामाजिक सुरक्षा पेंशन प्राप्त करने वालों के साथ ही सामाजिक-कार्यकर्ता बड़ी तादाद में इकट्ठा थे।

जयपुर शहर के चप्पे-चप्पे पर लगे गुलाबी रंग के सरकारी पोस्टर-होर्डिंग द्वारा सरकार की सामाजिक सुरक्षा पेंशनों को 500₹ और 750₹ से बढ़ाकर 1000₹ किए जाने के फ़ैसले की बड़ी ज़ोर-शोर से अभिव्यक्ति हो रही थी। दो दिन पहले ही 11 जुलाई को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कम्प्यूटर में स्विच दबाकर इस बढ़ी पेंशन को लाभार्थियों के खाते में पहुंचाने का काम किया था। उसी श्रृंखला में राजस्थान की सिविल सोसाइटी के साथ मिलकर राज्य सरकार ने 13 जुलाई को लाभार्थी संवाद कार्यक्रम का आयोजन करवाया। सफ़ेद टेंट, कुर्सियां, आधा दर्जन से अधिक एलईडी स्क्रीन्स और सील-बंद मिनरल वॉटर की बोतलें कार्यक्रम के सरकारी होने की तस्दीक कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर समाज के सबसे कमजोर वर्ग से आने वाले लोगों की मंच पर उपस्थिति और परिवर्तन के संकल्पों से भरे नारों व गीतों से जनता का मंच होने का भी दावा मज़बूत हो रहा था।

मुख्यमंत्री गहलोत के व्हील-चेयर पर होने के कारण कार्यक्रम का एक हिस्सा मुख्यमंत्री भवन से इंटरनेट के सहारे जुड़ा था। वहीं पर राजस्थान के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री टीकाराम जूली अलग-अलग जगहों से आए लोगों से बात कर मुद्दों का निस्तारण करवाने की बात कर रहे थे, जिसमें बायोमेट्रिक कंफ़र्मेशन के कारण पेंशन ना आना, खाते में पैसे ना आना, कुछ महीनों से पेंशन का रुका होना, प्रशासन द्वारा मृत घोषित कर देना और बाद में बार-बार जाने पर भी निस्तारण ना हो पाना जैसे कारणों से रुकी पेंशन के निस्तारण को लेकर कार्यवाही करने व व्यवस्था में सुधार करने के आश्वासन दिए गए। 

क्या है न्यूनतम आय गारंटी क़ानून?

मुख्यमंत्री गहलोत ने सूचना एवं रोज़गार अभियान के मांग पत्र के जवाब में बताया कि उनकी सबसे पहली मांग ‘न्यूनतम आय गारंटी क़ानून’ को मान लिया गया है, जिसे कैबिनेट की मंज़ूरी मिल चुकी है और अगली विधानसभा सत्र में इसे पारित किया जाएगा। इसे गहलोत के सामाजिक सुरक्षा को लेकर बड़े कदम की तरह देखा जा रहा है, मुख्यत: इस क़ानून के तीन हिस्से हैं— पहला यह कि मनरेगा में लाभान्वित परिवार सौ दिनों का रोज़गार पूरा करने के बाद भी अगर और अधिक दिनों के रोज़गार की मांग करता है तो राज्य सरकार उसे 25 दिनों का रोज़गार उपलब्ध करवाने को बाध्य होगी, इससे राजस्थान में मनरेगा के 125 दिनों की रोज़गार गारंटी हो जाएगी।

दूसरा, राज्य सरकार की नीति रही इन्दिरा गांधी शहरी रोज़गार योजना के अन्तर्गत शहरी क्षेत्र के परिवारों को 125 दिनों के रोज़गार दिया जाता है वह क़ानूनी अधिकार में तब्दील हो जाएगा। तीसरा, सामाजिक सुरक्षा के अन्तर्गत दी जाने वाली सरकारी पेंशन में प्रतिवर्ष 15% बढ़ोतरी होगी। यह बिल पारित होने के बाद में इस प्रकार का क़ानून लाने वाला राजस्थान देश का पहला राज्य बन जाएगा। वर्तमान में राजस्थान में क़रीब 94 लाख पेंशनर्स हैं, वहीं प्रतिवर्ष क़रीब 25 लाख से अधिक परिवार रोज़गार गारंटी योजनाओं के अन्तर्गत रोज़गार पाते हैं, ऐसे में ये घोषणा बड़ी तादाद में लोगों के जीवन को प्रभावित करती है। 

सिविल सोसायटी की आंशिक सफलता

राजस्थान के बौद्धिक-राजनैतिक हलकों में यह बात प्रचलित है कि गहलोत सरकार के साथ शुरुआत से ही यूपीए-1 की तर्ज़ पर सामाजिक आन्दोलन के लोग अनौपचारिक तौर पर जुड़े रहे हैं। कोविड दौर में राहत वाली योजनाएं हों या स्वास्थ्य का अधिकार क़ानून या न्यूनतम आय गांरटी क़ानून, इन सबके पीछे का बड़ा कारण अरूणा रॉय, निखिल डे, कविता श्रीवास्तव और दूसरे सामाजिक संगठनों के लोगों का सरकार के साथ ‘पॉलिटिकल बार्गेनिंग’ माना जाता रहा है।

भले ही इस राजनैतिक बार्गेनिंग के चलते कुछ बड़ी सफलताएं हाथ लगी हैं, लेकिन मोटे तौर पर यह सामाजिक आंदोलनों की आंशिक सफलताएं ही हैं। अपने जीवन-साथी के ख़राब स्वास्थ्य की वजह से कार्यक्रम में शामिल ना हो सकीं अरुणा रॉय ने भेजे एक वीडियो संदेश में कहा— “हमने सरकार के साथ मिलकर काम किया, आज एक तरफ़ से मैं खुश हूं कि सरकार यह (न्यूनतम आय गारंटी कानून) बनाने जा रही है वहीं दूसरी ओर जवाबदेही कानून ना पास होने के कारण दुखी भी हूं, एक तरफ़ सरकार को शाबाशी भी देती हूं तो दूसरी तरफ़ खेद भी प्रकट करती हूं।” इससे ज़ाहिर होता है कि सिविल सोसायटी के हाथ केवल आंशिक सफलताएं ही लगी है। इन्हीं आन्दोलन से जुड़े हुए संगठन ‘पेंशन परिषद’ की लम्बे समय से मांगें थीं जैसे— यूनिवर्सल पेंशन हो, जिसका लाभ हर बुज़ुर्ग को मिले, पेंशन न्यूनतम मज़दूरी की आधा हो और प्रतिवर्ष महंगाई के अनुसार मूल्यांकन करके पेंशन में वृद्धि की जाए।

इन मांगों को लेकर एक बार चालीस दिन का धरना तो सितम्बर 2018 में हज़ारों की संख्या में एक पड़ाव दिल्ली के जंतर-मंतर पर डाला गया था। वहीं सूचना एवं रोज़गार अभियान द्वारा जवाबदेही क़ानून को लेकर भी लम्बे समय से राज्य भर में आंदोलन चलाया जा रहा है, इस क़ानून को RTI के अगले चरण की तरह देखा जा रहा है, जहां नागरिकों के लिए सरकार से जुड़ी संस्थाओं की जवाबदेही कानूनन तौर पर सुरक्षित होगी व शिकायत निवारण आयोग का गठन किया जाएगा।

अगर तय सीमा के भीतर नागरिकों की शिकायतों का निवारण नहीं होता है तो सम्बन्धित सरकारी कर्मचारी के खिलाफ कार्यवाही का भी प्रावधान होगा। जहां एक ओर पेंशन संबंधित क़ानून में न्यूनतम मज़दूरी की आधी राशि के लिए सरकार ने हामी नहीं भरी वहीं अंदरखाने यह खबर है कि इस सरकार के कार्यकाल के आख़िरी विधानसभा सत्र में भी जवाबदेही बिल को टेबल पर नहीं रखा जाएगा। 

सरकार की अपनी प्राथमिकताएं

भले ही सरकार पेंशन को 500₹ और 750₹ से बढ़ाकर 1000₹ करने को एक बड़े काम की तरह प्रचारित करती हो लेकिन अगर इसकी तुलना फ़ूड बास्केट प्राइज़ (एक वयस्क इंसान को जीने के लिए आवश्यक पोषण का बाज़ार मूल्य) से करें तो यह राशि उसका एक तिहाई भी नहीं है। वहीं दूसरे राज्यों में दी जाने वाली पेंशन राशि से तुलना करने पर मालूम चलता है कि आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, चण्डीगढ, दिल्ली, हरियाणा, केरल, पंजाब, सिक्किम, तेलंगाना, उत्तराखंड जैसे दस राज्यों में पहले से ही 1000₹ से अधिक की

सामाजिक-सुरक्षा पेंशन दी जा रही है। जिसमें सबसे ज़्यादा आंध्र-प्रदेश में 3000₹ दी जाती है। हाल ही में राजस्थान सरकार सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन स्कीम को पुनः लागू करने के लिए चर्चाओं में रही, सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाली पेंशन और देश के सबसे कमजोर वर्गों को मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा पेंशन के बीच इतना अंतर है कि इस तुलना का कोई कॉमन ग्राउण्ड खोजना मुमकिन नहीं है, ये अंतर जहां न्यूनतम 25 गुणा है तो अधिकतम 150 गुणा से भी ज़्यादा।

वहीं पिछले तीन दशकों में ‘संविदा कर्मचारी’ एक अस्थायी समाधान से बदलकर नियुक्ति की नीति बनते जा रही है, जहां सरकार ने अपने को इन कर्मचारियों की सेवाओं के बाद के भरण-पोषण की चिंता से मुक्त रखा है। वहीं एक और वर्ग उन लोगों का भी हैं जिन्हें सरकार अपना कर्मचारी नहीं मानती, जिनको मिलने वाली राशि को वेतन के बजाय मानदेय कहा जाता है— आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, आशा सहयोगिनी और पोषाहार बनाने वाली महिलाओं को भी सरकार ने एक  राज्यकर्मचारी के तौर अपनी चिंताओं से बाहर रखा है, इन सबको एक नज़र भर देखने से ही हमारी लोकतांत्रिक सरकारों का वर्ग चरित्र उजागर हो जाता है। 

जवाबदेही कानून पारित नहीं करने के फ़ैसले पर  कांग्रेस पार्टी के भीतर के सूत्रों से मालूम चला है कि इस साल के अंत में चुनाव में उतरने जा रही गहलोत सरकार पुरानी पेंशन योजना के मुद्दे को भुनाने की कोशिश करेगी, ऐसे में वह सरकारी कर्मचारियों पर नकेल कसने वाले जवाबदेही क़ानून को बना कर सरकारी कर्मचारियों को नाराज़ करने का जोखिम उनके किए-धरे पर पानी फेर सकता है।

पिछले दिनों इण्डिया टुडे के प्लेटफ़ॉर्म लल्लनटॉप से बात करते हुए गहलोत ने पहले कार्यकाल के बाद 2003 में चुनाव हारने के सवाल जवाब में बताया था— “हमने बहुत शानदार मैनेजमेंट किया था फिर भी चुनाव हार गए, क्योंकि सरकारी कर्मचारियों की 64 दिनों की हड़ताल चली, जिसके खिलाफ सरकार ने ‘नो वर्क-नो पेमेन्ट’ की कार्यवाही की, और कर्मचारियों के साथ डॉयलॉग बनाने में भी असफल रहे, जिसके जवाब में चुनाव के वक्त पोलिंग पार्टियां भी सरकार के खिलाफ नारे लगाती हुई गई, और हम चुनाव हार गए।” इस बात से साफ़ ज़ाहिर होता है कि गहलोत सरकारी कर्मचारियों के वर्चस्व से भली भांति परिचित है इसलिए उनकी प्राथमिकताओं में सरकारी कर्मचारियों को नाराज़ कर सकने वाला जवाबदेही क़ानून शामिल नहीं है। 

इन तमाम बातों के बावजूद अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली राजस्थान सरकार ने सामाजिक सुरक्षा के मोर्चे पर बड़े फ़ैसले लिए हैं, ‘राजनैतिक पण्डित’ कहे जाने वाले लोगों के बीच में अभी से यह सवाल उठने लगा है कि क्या ये सब काम साल के आख़िर में वोटों में तब्दील हो पाएंगे? इससे बड़ा भी एक सवाल हमारे पास मौजूद है कि नवउदारवाद के इस दौर में साम्राज्यवाद-पूंजीवाद के कारणों से जन्मी भयंकर असमानता, बेरोज़गारी और महंगाई की मार झेल रहे आम नागरिकों को राहत देने में  इस प्रकार के ‘केन्सियन सुधार’ (Keynesian adjustments) कितने सक्षम साबित होंगे?

(विभांशु कल्ला ने मॉस्को के हायर स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से डेवलपमेंट स्टडीज़ में मास्टर्स किया है, और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर लिखते रहे हैं।)

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  • इसी तरह की सार्थक व पूर्ण जानकारी भरी रिपोर्ट की उम्मीद हमेशा रहती है।

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