मोहन भागवत का ‘ब्राह्मण’ बयान: अडानी मामले से ध्यान हटाने का षड्यंत्र

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान को लेकर इस समय देश में चर्चाएं शुरू हो गयी हैं। जिसमें उन्होंने कहा है कि जाति और वर्ण को ब्राह्मणों ने बनाया है। इसमें भगवान का कोई हाथ नहीं है। हालांकि बाद में एएनआई ने इस बयान को वापस लेकर एक ऐसा बयान पेश कर दिया जो बेहद अस्पष्ट और एक किस्म की पहेली जैसा दिखता है। जिसमें इस बयान से इंकार करने या फिर उसे मानने दोनों की गुंजाइश बरकरार है। ऐसा नहीं कि मोहन भागवत ने इस तरह का कोई पहला बयान दिया है। कल इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट देख रहा था इसके पहले भी वह इस तरह का बयान दे चुके हैं। जिसमें उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि जाति और वर्ण व्यवस्था को खत्म कर देना चाहिए।

इस देश में हिंदू राष्ट्र का सपना देखने वाले और उसको स्थापित करने के लिए सौ साल से आरएसएस समेत ‘हाइड्रा’ संगठनों का ढांचा खड़ा करने वाली जमात का मुखिया अगर यह कहे कि वह वर्ण और जाति खत्म करना चाहता है तो इससे बड़ा झूठ कोई दूसरा नहीं हो सकता है।

जो हिंदू धर्म अपने इन्हीं दोनों पैरों पर खड़ा है उसके लिए इसे खत्म करने का मतलब होगा हिंदू धर्म का ही खात्मा। क्या इसके लिए भागवत तैयार हैं? कतई नहीं। रही बात जाति को बनाने वाले की पहचान की। नास्तिकों और वैज्ञानिकों की नजर में ईश्वर का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जबकि जाति और वर्ण समाज की सच्चाई है। लिहाजा इस बात में कोई शक नहीं कि इसको धरती पर पैदा होने वाले इंसानों ने ही बनाया है।

भारत में इस काम को ब्राह्मण समुदाय ने किया है जो वर्ण व्यवस्था की न सिर्फ अगुआई करता है बल्कि इसके जरिये उसने अपने सारे लाभ सुनिश्चित कर रखे हैं और यह लाभ किसी सामुदायिक नहीं बल्कि निहित स्वार्थों की हद तक जाता है।

फिर इन्हीं स्वार्थों में ब्राह्मणों ने इस जाति और वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय देन करार देकर उसे बिल्कुल स्थाई बना दिया है। जिसमें इससे इतर सोचना और देखना भी पाप और पुण्य की श्रेणी में पहुंचा दिया जाता है। ऐसा करने से इसके स्थायित्व की गारंटी हो जाती है। और मोहन भागवत इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके कुछ कह देने भर से चीजें नहीं बदलने वालीं। अगर देश में धर्म की सत्ता बरकरार रहेगी तो जाति और वर्ण का अस्तित्व भी बना रहेगा।

लेकिन मेरे लेख का विषय यह नहीं है। मेरे लेख का विषय है आखिर क्यों मोहन भागवत ने इस समय ऐसा बयान दिया? पिछले 8 सालों की सत्ता में पहली बार केंद्र की मोदी सरकार इतने गहरे संकट में है। अडानी सिर्फ एक व्यक्ति नहीं। वह महज एक कारपोरेट भी नहीं। बल्कि मोदी की पिछले आठ सालों की उपलब्धि का निचोड़ हैं।

50 हजार करोड़ रुपये के एक पूंजीपति को 12 लाख करोड़ रुपये के पूंजीपति में तब्दील कर उसे दुनिया के तीसरे दौलतमंद अमीर की श्रेणी में खड़ा करवाने और फिर इस सफलता को दुनिया के सामने देश के विकास से जोड़ देने का जो झूठा महाकाव्य लिखा जा रहा था उस पर पानी फिरता हुआ दिख रहा है।

एक ऐसे समय में जबकि दुनिया के स्तर पर भारत सरकार और उसकी एजेंसियों की थू-थू शुरू हो रही है। और हर अंतरराष्ट्रीय संस्था ने उसे खारिज करना शुरू कर दिया है। देश के भीतर संसद में विपक्ष ने तगड़ी घेरेबंदी कर रखी है।

यहां तक कि लोकसभा के स्पीकर और राज्य सभा के चेयरमैन तक का ढाल नाकाम साबित हो रहा है। जिस संसद में देश और जनता से जुड़ी छोटी से छोटी समस्याओं पर बात होती है और होनी भी चाहिए वहां इतने बड़े घोटाले पर सरकार बहस तक के लिए तैयार नहीं है। स्पीकर और चेयरमैन कह रहे हैं कि बाहरी मुद्दा है। जिस मामले से एलआईसी के 72 हजार करोड़ रुपये, एसबीआई के 27 हजार करोड़ समेत कई बैंकों की पूंजी जुड़ी हो और वह डूबने के कगार पर हो।

इन बातों से समझा जा सकता है कि सरकार के सामने संकट कितना गहरा है। 2024 सामने है और सरकार का सिराजा बिखर रहा है। ऐसे में मोहन भागवत ने कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया है।

इसके पहले संघ ने खुले तौर पर अडानी का पक्ष लिया और उसे बाहर और देश के भीतर कुछ लोगों की साजिश करार दिया। और इस कड़ी में अपने समर्थकों की पूरी जमात को अडानी के पक्ष में अभियान चलाने के लिए लगा दिया। जिसमें सामाजिक न्याय से जुड़े कुछ बड़े चेहरे भी अपने तरीके से मदद करते दिख रहे हैं। जब इन सारे प्रयासों से काम नहीं चला। तब मोहन भागवत ने अपने ब्रह्मास्त्र का सहारा लिया है।

अब मोहन भागवत खुद मैदान में उतर कर पूरे मुद्दे को किनारे कर एक नया मुद्दा खड़ा कर देना चाहते हैं। देश की राजनीति और उसकी जरूरतों को समझने वालों को सचेत हो जाना चाहिए। सरकार को घेरने के इस ऐतिहासिक मौके को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह वही देश है जिसमें महज 64 करोड़ रुपये के बोफोर्स घोटाले में सरकारें गिर और बन गयीं। 2 लाख और चार लाख के हवाला मामलों में आडवाणी और शरद यादव को इस्तीफा देना पड़ा था। और अब जबकि हजारों करोड़ रुपये जनता के लील लिए गए हैं और उसमें सेबी से लेकर सरकार की दूसरी एजेंसियां खुलेआम शामिल हैं तब जांच की बात तो दूर सरकार उस पर संसद में बहस भी नहीं करना चाहती है। ऐसे में सरकार के इन कुत्सित मंसूबों को कतई सफल नहीं होने देना चाहिए।

यह लोकतंत्र की खुलेआम हत्या है। और इस पर चुप रहने का मतलब है सब कुछ खत्म होने के दस्तावेज पर हस्ताक्षर। ऐसे में इस बहस को डिरेल करने की मोहन भागवत की कोशिश को नाकाम करना हर नागरिक का पहला कर्तव्य बना जाता है।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)

महेंद्र मिश्र
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