गद्य की जगह गदा, कलम की जगह बंदूक

मोदी सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक और असाधारण नियुक्ति कर दिखाई है। नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक के पद पर लेफ्टिनेंट कर्नल युवराज मलिक की प्रतिनियुक्ति कर दी गई है। 1957 में बनी एनबीटी के 63 वर्षों के इतिहास में यह पहला मौक़ा है जब कोई ऐसा व्यक्ति इसका निदेशक बना है, जिसकी कोई लेखकीय पृष्ठभूमि या साहित्यिक अवदान नहीं है।

एक बार जेएनयू के कुलपति ने यूनिवर्सिटी में टैंक की प्राण-प्रतिष्ठा करने की अदम्य इच्छा का इजहार किया था। पता नहीं इस कुलपति को टैंक मिला कि नहीं मगर फिलवक्त अपने ही परिसर में अपने ही विद्यार्थियों से लड़ने के लिए उसने मिलिट्री जरूर उतार रखी है। जिस कैंपस की हिफाजत का जिम्मा उनका है उसी को और उसके छात्र-छात्राओं को तुड़वाने-फुड़वाने के लिए गाहे-बगाहे भाड़े के हमलावर दस्तों को भी बुला लेना उनके प्रिय शगल में शामिल है। 

बहरहाल एनबीटी का निदेशक फौजी का बनाया जाना यूनिवर्सिटी कैंपस में सेना के कंडम हुए टैंक को लगाने की मंशा से भी कुछ ज्यादा ही आगे बढ़ा हुआ काम है। ध्यान रहे कि नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना के पीछे मुख्य मकसद आम लोगों को पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित करना और इसके लिए सस्ती दरों पर अच्छी किताबें छापने और बेचने का था।

भारतीय भाषाओं के साहित्य को अलग-अलग भाषा भाषियों तथा विदेशों के बाजार के लिए उपलब्ध कराना और वंचित समुदाय के रचनाकारों विशेषकर महिला साहित्यकारों तथा बाल साहित्य के प्रकाशन का मंच और जरिया मुहैया कराना था। जनता के बीच सस्ता और जरूरी साहित्य पहुंचाने और लोक चेतना को संस्कारित करने में एनबीटी का असाधारण योगदान रहा है।

गुजरे छह दशकों में इस संस्थान ने कुछ लाख प्रकाशन किए हैं और हजारों करोड़ रुपयों की किताबें बेची हैं। इसकी ताजातम उपलब्ध वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ अकेले 2017-18, जो किताब और किताब लिखने वालों के विरुध्द घोषित वैमनस्य रखने वालों का “स्वर्णिम काल” था, में ही इसने 1165 किताबें छापीं और साढ़े बारह करोड़ रुपयों की बिक्री की।

अब उसके निदेशक एक ऐसे लेफ्टिनेंट कर्नल होंगे, जिन्होंने आज तक कुछ नहीं लिखा। भाजपा की अब तक की सरकारों के दौरान भी ऐसा नहीं हुआ। उसने भी अभी तक लेखक जैसे दिखने वालों को ही इसका निदेशक बनाया भले वे संघ के अखबारों में कालम लिखने या संपादन करने वाले ही क्यों न रहे हों। हालांकि उनके बताये बिना भी यह बात सबको भलीभांति मालूम थी फिर भी ऐसा करके मौजूदा हुक्मरानों ने एक बात तो पुनः कुबूल कर ली है कि उसके पूरे विचार-कुटुंब में लिखने-पढ़ने वालों का अतीव टोटा है। नियुक्तियों तक के लायक व्यक्ति नहीं हैं उनके पास। मगर यह बात उससे आगे की है। 

यह अपने दत्तक विचार-पिता सावरकर के ध्येय “राष्ट्र का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैनिकीकरण” पर एकनिष्ठभाव से किया गया अमल है। यह गद्य को गदा और कलम को बंदूक से प्रस्थापित करने का काम है। समाज के बर्बरीकरण और संवाद के हिंसीकरण की ओर बढ़ाया गया सोचा समझा कदम है। सर्वोच्च नेता से लेकर आईटी सेल की खुराक पर पलते भक्त तक पूरा विचार गिरोह इन दिनों इसी काम में जुटा हुआ है।

पश्चिम बंगाल के भाजपा अध्यक्ष जब आंदोलनकारियों को सीधे गोली मार देने की घनगरज करते हुए बताते हैं कि यूपी, असम और कर्नाटक में जहां-जहां हमारी सरकारें हैं आंदोलन करने वालों को कुत्तों की तरह गोलियों से भूनकर मारा जा रहा है। तब वे शब्दों के जरिए बारूद बिछा रहे होते हैं।

‘जो मोदी और योगी के खिलाफ नारे लगाएगा उसे ज़िंदा गाड़ देंगे’ की धमकी खुली जनसभा में देते हुए उत्तर प्रदेश के श्रम मंत्री रघुराज सिंह भी हिन्दुत्वी शासन प्रणाली के अविभाज्य अंग असहमति के निषेध और विरोध पर मृत्युदण्ड का प्रावधान उच्चार रहे होते हैं। वे असल में अपने-अपने वाक्य विन्यासों में अपने सर्वोच्च नेता के कहे को ही दोहरा रहे होते हैं, जिसे अभी हाल ही में आंदोलन और हिंसा करने वालों को उनके कपड़े देखकर पहचान लेने वाले प्रधानमंत्री मोदी के सार्वजनिक भाषण में पूरी दुनिया ने देखा सुना है। 

ज़ख़्मी छात्र-छात्राओं और प्रोफेसरों वाले कैंपस के बगीचे में सजधज कर ढेर निर्लज्जता के साथ टीवी चैनल के साथ इंटरव्यू देते समय इसी को दोहरा रहे होते हैं जेएनयू के कुलपति और उनके सरपरस्त मंत्री-मन्त्राणी। यह एक खास तरीके का व्याकरण है जिसमें अंत में जन गण मन की जगह हर गंगे का उद्घोष और एक नए दंगे का शंखनाद छुपा हुआ है।   

एनबीटी के नए निदेशक की नियुक्ति के बाद अब सीधे-सीधे एक फ़ौजी के हाथ में किताबों की कमान होगी। वे छापेंगे भी तो कैसी किताबें छापेंगे यह समझने के लिए दिल्ली में लगे पुस्तक मेले का एक चक्कर लगाना काफी है। इस मेले में आजन्म कैद की सजा काट रहे बलात्कारी आसाराम की ‘रचनाओं’ का बड़ा सा स्टॉल है। उनके भक्त-भक्तिन खुलेआम घूम-घूम कर आसारामी साहित्य बेच रहे हैं।

वहीं इसी मेले में दिल्ली पुलिस कुछ कथित ‘विवादास्पद’ किताबों को बेच रहे युवाओं को पकड़ने और छात्र आंदोलन के मुद्दे पर नुक्कड़ नाटक दिखा रही युवाओं की टुकड़ी को खदेड़ने के पुण्य-कर्म में व्यस्त है। इसी का दूसरा रूप अभी हाल ही में गोवा में दिखा, जहां की भाजपा सरकार नियंत्रित कोंकणी साहित्य परिषद  ने साहित्य अकादमी सम्मान से अलंकृत कवि नीलबा खाण्डेकर के कविता संग्रह ‘शब्द’ के खरीदने पर ही रोक लगा दी।

सामूहिक बलात्कार पर लिखी उसी कविता को बाहर से आई कुछ शिकायती चिट्ठियों के आधार पर ‘अश्लील’ करार दे दिया, जिसकी साहित्य अकादमी सम्मान में विशेष तौर से प्रशंसा की गई थी।  जहां वे यह सब इस तरह से नहीं कर पा रहे वहां उस तरह से कर रहे हैं जैसे पिछले पखवाड़े अलीगढ़ और जामिया यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में किया। जो भी हो, इनकी एक उपलब्धि तो माननी ही पड़ेगी। ऐसा करके एक और मोर्चे पर पाकिस्तान की बराबरी कर ली गई है।

दक्षिण एशिया में अभी तक सिर्फ पाकिस्तान ही था जहां फ़ौजी तानाशाही के दौरान प्रकाशन संस्थानों और संपादकों तक के पदों पर फौजी ही रखे जाते थे। हमारे यहां ऐसा बिना फौजी तानाशाही के ही कर लिया गया। फहमीदा रियाज़ होतीं तो ‘तुम बिलकुल हम जैसे निकले, अब तक कहां छुपे थे भाई’ वाली नज़्म में एक मिसरा और जोड़ लेतीं।   

बुद्धि और ज्ञान, तर्क और विचार, मंथन और विश्लेषण की क्षमता से महरूम इन विचार-विपन्नों को नहीं पता कि इनके किए से साहित्य या लेखन का कुछ नहीं बिगड़ने वाला। इनके पुरखों ने चार्वाक से लेकर कबीर, जोतिबा से लेकर अंबेडकर, मार्क्स से लेकर प्रेमचंद तक की किताबों के साथ यह सब करके देख लिया है। ये सब आज भी ज़िंदा और प्रवाहमान है जबकि ऐसा करने वालों के नाम तक किसी को नहीं याद।  इन दिनों फूहड़ तरीके से अभिनीत छद्म वीरता का यह प्रकोप इनकी शक्ति का नहीं कमजोरी का प्रतीक है।

बादल सरोज
(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव और ‘लोकजतन’ पाक्षिक के संपादक हैं।)

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