त्रासदी की भयावहता के बीच लिखा जाएगा ज़िंदगी का नया फ़लसफ़ा

पिछले कुछ रोज़ से अपने मुल्क और समाज को कोरोना बीमारी से बचाने के मुहिम में, घर और परिवार की सुरक्षा के बीच, इस खतरनाक विषाणु को रोकने के प्रयास में सहयोग दे रहा हूँ। टीवी और सोशल मीडिया का साथ है जिनके माध्यम से देश और दुनिया में कोरोना को पराजित करने के लिए इंसानी एकजुटता का बेमिसाल नमूना ‘सोशल-डिस्टेंसिंग’ या सामाजिक दूरी कायम करने की कोशिश की असाधारण कहानियाँ अचंभित कर रही हैं और प्रोत्साहित भी। घर की तन्हाई में कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ संघर्ष ने व्यक्तिगत और सामूहिक हक, राष्ट्रीय और विश्ववादी नजरिये के बीच के अंतर को धुंधला बना दिया है। लेकिन फ़िर भी कुछ विसंगतियाँ और अंतर्विरोध जो इस असामान्य घड़ी में ज़ाहिर है, हमारे अपनी संरचना, आदर्श और महत्वाकांक्षा की सीमाओं का नतीजा है।

भविष्य के जीवन के बारे में मन में कई तरह के सवाल हैं लेकिन उनके पक्के जवाब नहीं हैं।आखि़र ये वह जानी-पहचानी दुनिया ही नहीं है जिसके हम सब आदी हैं। यह एक नया आज है। यह क्वारंटीन और लॉकडाउन की दुनिया है जिसमें सरहदें बंद हैं, बाज़ार में ताले लगे हैं, ट्रेन और हवाई यात्रा रद्द हैं और वीरान हो चुके शहरों में प्रकृति की वापसी हो रही है। खबर है कि दुनिया के कई शहर  में जानवर घूमते पाये जा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ मैं और आप चिड़ियाघर के पिजड़े में कैद जानवर के सामान अनुभव कर रहे हैं।

 ऐसी अनिश्चितताओं और संभावनाओं से जूझना अपवादिक नहीं माना जा सकता है। इस सर्वव्यापी महामारी ने लाखों हादसों और त्रासदियों का जनन किया है जो कि मेरी, आपकी या फिर किसी की भी हो सकती हैं। मैंने अक्सर ये सोचने का प्रयास किया है कि परमाणु जंग के बाद बचे हुए लोगों के लिए  ज़िन्दगी का स्वरूप कैसा होगा। इस सन्दर्भ में बीती हुई ज़िन्दगी की परिचित व्यवस्था की याद की पृष्ठभूमि पर यह माना जा सकता है कि इस आज में मेरी कल्पना की झलक छुपी हुई है। जो भी हो अभी यह कह पाना मुश्किल है कि कोरोना के बाद की दुनिया कैसी होगी मगर एक बात तो तय है कि मानव समाज के बुनियादी सिद्धांत और इसे परिभाषित करने वाले तत्व गहरे संकट में हैं।

यह त्रासदी बहुत बड़ी है लेकिन ज़रूरी बात यह है कि ये व्यवधान संपूर्ण नहीं है। यह समय का अंत नहीं है। मुमकिन है कि परमाणु जंग के बाद भी पृथ्वी पर सभी जीव-जंतुओं के लिए वक़्त की समाप्ति नहीं होगी और कुछ ऐसे अद्भुत परम-प्राणी होंगे जो बदले हुए सृष्टि विधान के साथ ताल-मेल स्थापित कर ही लेंगे। उचित होगा कि हम भी कोरोना संकट के नाज़ुक मौके पर यह स्वीकार करें कि जिस प्रकार से हम इंसान, प्रकृति और इनके बीच के संबंध को समझते हैं, उसमें बदलाव करें।

 यह इसलिए ज़रूरी है क्योंकि मेरा मानना है कि कोरोना संकट एक दो स्तरीय प्रक्रिया की पहली कड़ी है और इसका अगला चरण भी कम चुनौतीपूर्ण न होगा। यह चुनौती होगी इंसानी जीवन अवस्था और सामाजिक आधार में मूलभूत परिवर्तन लाने की, जिसके परिणामस्वरूप हमें अपने दैनिक जीवन की हर छोटी-बड़ी सच्चाई का पुनः आकलन करना होगा। हालाँकि ये बहस अभी परिकल्पना मात्र है लेकिन दुनिया भर के कई वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों ने मौजूदा स्वास्थ्य संकट को जलवायु तब्दीली के साथ जोड़ा है और सावधान किया है कि हमें जलवायु संकट से जूझने के लिए तैयारी कर लेनी चाहिए।

इन दोनों संकटों से जुड़ा हुआ मानने के पीछे यह वजह है कि अब ऐसा अहसास होने लगा है कि हमारी इंसानी समाज के बारे में समझ सामान्यतः इसके स्वरूप के विश्लेषण ग़लत और नाकाफी हैं। ‘‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणाी है’’ – जो कि हमारे आत्मबोध का सारांश है, अपने अंदर समेटे हुए है एक ऐसे समाज की धारणा जो कि मनुष्य को केवल मनुष्य के साथ की कल्पना पर आधारित है। हमारी  सामाजिक व्याख्या में यह विश्वास भी आम है कि इंसान पृथ्वी का स्वामी है, जबकि अन्य सब जीव-जंतु, पेड़-पौधे, यानि कि हर जीवित चीज़, मनुष्य के अधीन है, इंसानी देख-रेख पर निर्भर है, अन्यथा इंसानी समाज की दुश्मन है।

फिर से कहा जाए तो इंसान का स्थान सर्वोच्च है, इंसानी नस्ल ही सही मायने में पृथ्वी गृह की जायज़ प्रतिनिधि है और इस दमन के संसाधनों पर इंसान का संपूर्ण अधिकर है। इन मान्यताओं के अंदर जो तर्क है वो न सिर्फ इंसानी ज़िन्दगी के रोज़मर्रा की बनावट में है बल्कि यह तर्क ही इंसानी तारीख़, किस्से कहानियों, मिथ्याओं-पुराणों-जिनके द्वारा इंसान ने खुद को सिखाया है कि वो कौन है और उसका पृथ्वी पर क्या मक़सद है – को आकार देता है।

कोरोना महामारी के हाल में इंसानी समाज का यह शास्त्रीय ज्ञान अर्थहीन हो गया है। समाज से संबंधित व्याख्याओं में यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि समाज की बनावट और इसकी हालत हर पल इसके अंदर मौजूद नाना प्रकार के किरदारों के परस्पर रिश्तों पर निर्भर होती है। ज़ाहिर तौर पर इनमें से कई किरदार इंसानी शक्ल के नहीं होते हैं। इनमें शामिल हैं कई तरह के सूक्ष्म-जीव, वायरस और बैक्टीरिया जो कि अक्सर अदृश्य होते हुए भी इंसान की  सलामती में अहम भूमिका निभाते हैं। किसे नहीं पता कि मानव शरीर में एक बड़ी तादाद में जीवाणु बसर करते हैं जो कि शरीर के काम-काज में मददगार हैं।

और भी कई पहलू हैं इस समाज के – जलवायु, राज्य, कानून, अस्पताल नागरिकों की आदतें, खान-पान के ढंग, खेती-बाड़ी, आर्थिक तंत्र, और भी बहुत कुछ। इस वजह से कोरोना वायरस संक्रमण के जहरीलेपन का स्तर और मानव समुदाय पर इसके प्रभाव पर इन सब सामाजिक पहलुओं का असर होगा। वायरस अपने आप में इस श्रृंखला की एक कड़ी है। लेकिन जब हम अपना ध्यान इस पूरे नेटवर्क पर केंद्रित करेंगे तब यह समझ में आयेगा कि क्यों कोरोना वायरस हिंदुस्तान, चीन, इटली या अन्य किसी देश में एक समान नहीं है। या फिर यूं कहें कि कोरोना महामारी को प्राकृतिक घटना के रूप में देखना ग़लत होगा, बिल्कुल वैसे ही जैसे जलवायु परिवर्तन का संकट भी कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। 

कोरोना महामारी की जलवायु परिवर्तन के साथ तुलना करना काफ़ी हद तक ठीक भी है क्योंकि दोनों के बीच बहुत सीधा रिश्ता है। ये दोनों ख़तरे मानव कल्पना-शक्ति के लिए चुनौती हैं। इनका स्केल बहुत बड़ा है। इंसान ने प्रकृति को कैसे ख़राब किया, इसमें कितना वक़्त लगा, और किन प्रक्रियाओं ने मानव प्रजाति को इतना शक्तिशाली बना दिया – यह सब समझने के लिए ज़रूरी है अपने दृष्टिकोण को ‘जूमइन’ करके मानव जाति के अंदर के अन्याय को पहचानना, अन्यथा हम कभी एक बहुत बड़ें इंसानी वर्ग की तकलीफ़ नहीं देख पायेंगे। और फ़िर इस इतिहास से ‘ज़ूमआउट’ करके ये देखने का प्रयास करना कि इंसानी चाल-चलन ने किस तरह अन्य प्रजातियों और इस पूरी पृथ्वी को प्रताड़ित किया है।

इन कुछ वजहों से महामारी और जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए हमारे लिए किसी तरह के राज्य की सतह पर संगठित प्रयास की ज़रूरत है। कुछ ऐसा भी है कि पहले संकट में दूसरे संकट की फ़ितरत की भयावह तस्वीर वाजे़ह तौर से दिखती है। जहां एक तरफ स्वास्थ्य संकट में इंसानियत वायरस के खिलाफ़ मुक़ाबला कर रही है, वहीं दूसरी तरफ प्राकृतिक परिवर्तन में सूरत-ए-हाल बिल्कुल उल्टा नज़र आता है। इसमें बीमारी का स्त्रोत जिसके ख़तरनाक ज़हर ने पृथ्वी के सारे वासियों के लिए ज़िन्दगी के हालात बदल दिए हैं, वो कोई वायरस नहीं, इंसानियत है – ख़ास तौर पर इसके वह नमूने जिन्होंने पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था को सींचा और सराहा। सिर्फ वो ताकतें जिनमें इस व्यवस्था को तोड़ने की क्षमता है हमें प्राकृतिक परिवर्तन के लिए तैयार कर सकती हैं। इनसे संघर्ष करने के लिए हमारे राष्ट्रवादी राज्य तैयार नहीं लगते हैं जबकि संघर्ष कई सतहों पर है और हम सब की ज़िन्दगी को छूता है। 

लेकिन फिर भी, क्या पता कोई चमत्कार हो जाये! या शायद इस वर्तमान संकट में इंसानी चेतना में कोई शानदार तब्दीली हो जाये। कई दशकों में पहली बार ऐसा हुआ है कि लाखों-करोड़ों लोग अपने घरों में कैद हैं और एक भूली हुई ख़ुशी की खोज कर रहे हैं – सोचने की ख़ुशी जिसके चलते यह पहचान की जा सकती है कि किस तरह की व्याकुलताओं ने उन्हें  सब तरफ से घेर लिया है। हम सब को इस मौके का सम्मान करना चाहिये। 

(लेखक आशुतोष कुमार कनाडा स्थित मिक्गिल यूनिवर्सिटी में रिसर्च स्कॉलर हैं।)

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