नोबेल पुरस्‍कार विजेता सत्‍यार्थी ने पीम मोदी को लिखा पत्र, कहा- बच्‍चों की सुरक्षा का हो समुचित बंदोबस्त

कोरोना का अंधकार दिनोंदिन घना ही होता जा रहा है। इस अंधकार में काम-धंधा और व्यापार पूरी तरह से ठप पड़ गया है। लोगों के सामने रोजी-रोजी का संकट खड़ा हो गया है। कल-कारखाने बंद हो जाने से लाखों अप्रवासी मजदूरों को सैकड़ों किमी की पैदल यात्रा कर अपने बच्‍चों के साथ गांवों को लौटना पड़ रहा है। इतिहास गवाह है कि महामारी, युद्ध और प्राकृतिक आपदा जैसी संकट की घड़ी में महिलाएं और बच्‍चे ही उसके सबसे ज्‍यादा शिकार होते हैं।

देश भर से ऐसी खबरें आ रही हैं, जिसमें पैदल घर लौटते बच्‍चे भूख-प्‍यास से रास्‍ते में ही दम तोड़ रहे हैं। वहीं अचानक लॉकडाउन की घोषणा से शहरों में फैक्ट्रियों में ही रह कर काम करने वाले हजारों बाल मजदूर फंसे पड़े हैं। उनके सामने भी भोजन-पानी का संकट पैदा हो गया है।    

मजदूरों को बेकाम कर दिए जाने से अभी ही भुखमरी की नौबत आ गई है। इससे उनके बच्‍चों को बंधुआ मजदूरी और दुर्व्‍यापार (ट्रैफिकिंग) का आसान शिकार बनाया जा सकता है। गांव लौटे बच्‍चे भुखमरी की वजह से बंधुआ मजदूरी के हत्‍थे चढ़ेंगे। लाखों बाल मजदूर कारखानों, ईंट भट्ठों और अन्‍य कामकाजी जगहों पर फंसे हुए हैं। बच्‍चों पर चौतरफा मार पड़ रही है। ऐसे में बच्‍चों के हालात से चिंतित नोबेल शांति पुरस्‍कार से सम्‍मानित कैलाश सत्‍यार्थी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखा है, जिसमें उन्‍होंने आपदा से दुष्‍प्रभावित बच्‍चों को बचाने के लिए तत्‍काल कदम उठाने की मांग की है।

पत्र में उन्‍होंने उस 12 वर्षीय बच्ची जमालो मकदम का विशेष रूप से जिक्र किया है, जिसकी गांव जाने के क्रम में रास्‍ते में भूख-प्‍यास से मौत हो गई है। गौरतलब है कि तेलंगाना में मिर्ची के खेत में बाल मजदूरी करने वाली वह बच्ची 150 किलोमीटर पैदल चल कर छत्तीसगढ़ में अपने घर लौट रही थी।

ऐसा नहीं है कि बच्‍चे लॉकडाउन के कारण मुसीबत में फंसे हैं। वे कल भी मुसीबत में थे। यह बात अलग है कि आज वे ज्‍यादा कठिनाई में हैं। इसलिए उन्‍हें वर्तमान संकट से निजात दिलाने के लिए जरूरी है कि उनके अधिकारों की रक्षा हेतु हमारे यहां जो कानून बने हुए हैं उनको सख्‍ती से अमल में लाया जाए। बाल मजदूरी, दुर्व्‍यापार (ट्रैफिकिंग), यौन शोषण एवं बच्‍चों के प्रति बरते जा रहे सभी प्रकार के शोषण को रोकने के लिए कानूनों के कार्यान्‍वयन पर जोर देना हमारे समय की महती आवश्‍यकता है।

यदि सरकारी और वैधानिक नियमों का अनुपालन होता है तो कोई कारण नहीं कि बच्‍चों पर आपदा के जो दुष्‍प्रभाव पड़ रहे हैं, या पड़ने वाले हैं, उसको नहीं रोका जा सके। इसी संवैधानिक व नैतिक दायित्व की याद दिलाते हुए श्री सत्यार्थी ने केंद्र सरकार से कहा है कि इस विकट परिस्थिति में हमारे बच्चों के जीवन को बचाना अभी उसका सबसे प्राथमिक कार्यभार होना चाहिए।

आंकड़े बताते हैं कि देश में बाल मजदूरी व दुर्व्यापार के खिलाफ कड़े कानूनी प्रावधानों के बावजूद भी वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार एक करोड़ से भी अधिक बाल मजदूर हैं। बावजूद इसके बाल मजदूरी समाप्त करने के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव दिखता है। शर्म की बात तो यह है कि वर्ष 2018 में बाल एवं किशोर श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम के तहत देशभर मे मात्र 464 मुकदमे ही दर्ज किए जा सके थे।

लॉकडाउन के दौरान कारखानों, ईंट-भट्ठों एवं अन्‍य कामकाजी जगहों पर बाल मजदूरों के फंसे होने पर श्री सत्‍यार्थी की चिंता उनकी जिम्‍मेवारी, संवेदना व करुणा का परिचय देती है। उन्‍होंने प्रधानमंत्री को सही सलाह दी है कि सभी नियोक्‍ताओं को अगले तीन महीने के लिए यह छूट दे दी जाए कि यदि वे अपने यहां काम कर रहे बाल मजदूरों को मुक्‍त कर देते हैं, तो उन पर कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जाएगी।

लॉकडाउन के इस दौर में जब शक्तिसंपन्‍न लोगों का जीवन संकट के घेरे में है, तब कल्‍पना की जा सकती है कि हाशिए के उन कमजोर बच्‍चों का क्‍या हाल होगा? मजदूरी करने के बावजूद सामान्‍य दिनों में जब बाल मजदूरों को मामूली-सा भुगतान किया जाता है और खाने में मोटे चावल का भात और दाल का पानी दिया जाता है, तब सहज ही सोचा जा सकता है कि जब वे काम नहीं कर रहे होंगे, तो उनकी क्‍या दशा होगी?

बाल संरक्षण के लिए काम करने वाले एशिया के प्रमुख संगठनों में से एक इंडिया चाइल्‍ड प्रोटेक्‍शन फंड (आईसीपीएफ) ने अपने हालिया रिसर्च में खुलासा किया है कि देश में लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन डिजिटल चाइल्‍ड पोर्नोग्राफी की सामग्री की मांग में दोगुनी वृद्धि हो गई है। संभव है जिन लड़के-लड़कियों से बाल मजदूरी कराई जाती रही है, उनका इस्‍तेमाल अभी इसी धंधे में किया जा रहा हो। अगर ऐसा है तो यह और भी गंभीर मसला है।

कैलाश सत्‍यार्थी ने बच्‍चों को सुरक्षित करने के बाबत प्रधानमंत्री को जो सुझाव पेश किए हैं, उसके दूरगामी संदेश हैं। इसे सामान्‍य सुझाव के रूप में नहीं देखना चाहिए। लॉकडाउन खुलने के बाद बच्चों का दुर्व्‍यापार निश्चित रूप से बढ़ेगा, क्‍योंकि भुखमरी के कगार पर खड़े गरीब-मजदूर परिवार को बचाने के लिए बच्‍चों को चाहे-अनचाहे दुर्व्‍यापार के जाल में फंसना होगा। आने वाली चुनौती से तभी निपटा जा सकता है जब संबंधित मंत्रालयों की एक टास्क फोर्स बनाई जाए और जो एक ठोस कार्ययोजना बनाकर उसे लागू कराए। लॉकडाउन जैसे ही खुलता है, बच्चों को उनके घरों में सुरक्षित पहुंचाने और उस दौरान उनकी सुरक्षा, भोजन और चिकित्सा का प्रबन्ध भी सरकार को करना चाहिए।

गौरतलब है कि कैलाश सत्‍यार्थी द्वारा स्‍थापित बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) बाल मजदूरी और दुर्व्यापार को समाप्‍त करने के लिए मिशनरी भाव से काम करता है। उसके सुझावों पर सरकार और अदालतों ने बच्चों के हक में कई नीतियां बनाई हैं और उनके हक में फैसले दिए हैं। कोरोना संकट के समय बीबीए प्रशासन के साथ मिलकर मजदूरों आदि के लिए भोजन आदि का भी प्रबंध कर रहा है।

कैलाश सत्यार्थी की इस अपील पर सरकार यदि अमल करती है तो कोई कारण नहीं कि बच्‍चों की सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं किया जा सके। सत्‍यार्थी व बीबीए के सुझावों पर सरकारों ने अतीत में जब भी गौर किया है, उसके परिणाम बहुत ही सुखद निकले हैं। इसलिए जरूरी है कि समय रहते उनके सुझावों को अमलीजामा पहनाया जाए और लॉकडाउन के दौरान फंसे लाखों बच्चों को बाल मजदूरी के दलदल से निकाल कर उन्हें सुरक्षित जीवन प्रदान किया जाए।  

(लेखक हिन्‍दी के युवा कवि और पत्रकार हैं।)  

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