सांसदों के वेतन कटौती से नहीं बल्कि निजी क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण से पटरी पर आएगी अर्थव्यवस्था

कोरोना वायरस के कारण लॉक डाउन से पूरे देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गयी है! स्थति की गम्भीरता इस तथ्य से समझा जा सकता है कि यदि लॉक डाउन 21 दिन बाद खोला गया तो लोग कोरोना वायरस से तो रोकथाम के उपाय करके किसी तरह बच जाएंगे लेकिन लॉक डाउन जारी रहा तो उत्पादन गतिविधियां ठप रहने से करोड़ों लोग भूखे मर जाएंगे और मृतकों में सिर्फ ग़रीब ही शामिल नहीं होंगे! आर्थिक खस्ताहाली की पुष्टि इससे हो रही है कि आज सरकार को मंत्रियों और सांसदों के वेतन में न केवल 30 फीसद कटौती करने का निर्णय लेना पड़ा बल्कि सांसद निधि दो साल के लिए निलंबित करनी पड़ी।

वास्तव में आर्थिक संकट इतना अधिक गहरा है कि यह सांसदों के वेतन कटौती से नहीं संभलने वाला बल्कि इसके लिए तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी के पदचिन्हों पर चलकर सभी निजी बैंकों और पीएम के मित्रों मुकेश अंबानी, गौतम अडानी जैसे पूंजीपतियों के आवश्यक क्षेत्र के उपक्रमों का राष्ट्रीयकरण करने का निर्णय लेना होगा, तभी नोटबंदी की शुरुआत से पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाया जा सकेगा। कोरोना संकट ने आर्थिक उदारीकरण के नकली मुखौटे को पूरी तरह उघाड़ दिया है।  

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) ने भी ऐलान कर दिया है कि मंदी आ चुकी है और इस बार यह 2008 के आर्थिक संकट से अधिक भयावह होगी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि किसी महामारी या आपदा में पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था ही ठप हो जाए! भारत जैसे विकासशील देश का यह आर्थिक संकट विकसित देशों की तुलना में कई गुना भयंकर साबित हो सकता है। खस्ताहाल स्वास्थ्य सेवाओं के चलते देशव्यापी विशाल वर्कफोर्स को दोबारा कार्यरत करने में भारत के पसीने छूटने तय हैं ।

गौरतलब है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने कोविड-19 लॉक डाउन के कारण हुए आर्थिक नुकसान के मद्देनजर संसद के सदस्यों के वेतन में 30 फीसद की कमी करने के लिए एक अध्यादेश को मंजूरी दी है। सांसदों के वेतन में यह कटौती 1 अप्रैल, 2020 से लागू होगी और एक साल तक लागू रहेगी। प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों के वेतन और भत्ते में भी एक वर्ष के लिए 30 फीसद की कमी होगी।

बताया जा रहा है कि कोरोना वायरस से लड़ाई में देश के संवैधानिक पदों पर बैठे व्‍यक्तियों ने मदद का हाथ बढ़ाया है। राष्‍ट्रपति, उपराष्‍ट्रपति, राज्‍यों के राज्‍यपालों ने स्‍वेच्‍छा से अपने वेतन में कटौती का फैसला किया है। यह रकम भारत की संचित निधि में जमा होगी। इसके अलावा, सभी सांसदों के वेतन में साल भर के लिए 30 प्रतिशत की कटौती होगी। केंद्रीय कैबिनेट ने कुछ महत्‍वपूर्ण फैसलों के अनुसार सांसद निधि के तहत मिलने वाले फंड को भी दो साल के लिए सस्‍पेंड कर दिया गया है।

इस मद में सांसदों को जो हर साल दस-दस करोड़ रुपए की राशि मिलती है, वह कंसोलिडेटेड फंड ऑफ़ इंडिया में जमा होंगे, ताकि उससे कोरोना वायरस के दंश से लड़ा जा सके। सभी सांसदों के वेतन में साल भर के लिए 30 प्रतिशत की कटौती करने संबंधी अध्‍यादेश को कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। सरकार की ओर से केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कैबिनेट के फैसलों की जानकारी दी है ।

कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने केंद्र सरकार के वेतन में 30 फ़ीसद काटने के  फैसले का स्वागत किया है वहीं दूसरे सांसद निधि को निलंबित करने के फैसले पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि सरकार चाहे तो सांसदों के वेतन से 50 प्रतिशत कटौती कर सकती है लेकिन एमपी लोकल एरिया डेवलपमेंट फंड यानी सांसद निधि सांसदों का निजी कोष नहीं होता बल्कि ये पैसा हर संसदीय क्षेत्र में जनता की भलाई के लिए और विकास कार्यों के लिए इस्तेमाल होता है। सुरजेवाला ने ये भी कहा कि अगर पैसा काटना ही है तो भारत सरकार अपने लाखों-करोड़ों के बेकार के खर्च में 30 प्रतिशत का कट लगा दे तो 4-5 लाख करोड़ की बचत हो जाएगी। सुरजेवाला ने उम्मीद जताई है कि सरकार उनके सुझाव पर विचार करेगी।

कैबिनेट के इस फैसले को लेकर राष्ट्रीय जनता दल के सांसद मनोज कुमार झा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है। इसमें उन्होंने सांसद निधि को रोकने के फैसले पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि ये फैसला गलत सलाह पर लिया गया है। उन्होंने कहा है कि सांसदों के 30 फीसदी वेतन में कटौती का फैसला स्वागत योग्य है। कठिन समय में हम ये कर सकते हैं।

लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने सांसद निधि को दो साल के लिए निलंबित किए जाने के फैसले पर सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने दावा किया कि सरकार का यह फैसला देश के आपातकाल की तरफ बढ़ने का प्रमाण है। उन्होंने कहा कि सरकार को इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। तृणमूल कांग्रेस ने भी कहा कि सांसद निधि को निलंबित करने का केन्द्र का फैसला मनमाना है, उसके पास कोविड-19 से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं।

गौरतलब है कि कोरोना वायरस के भारत में पहुंचने से पहले ही देश की अर्थव्यवस्था की हालत चिंताजनक थी। कभी दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था की विकास दर बीते साल 4.7 फ़ीसदी रही। यह छह सालों में विकास दर का सबसे निचला स्तर था। साल 2019 में भारत में बेरोज़गारी 45 सालों के सबसे अधिकतम स्तर पर थी और पिछले साल के अंत में देश के आठ प्रमुख क्षेत्रों से औद्योगिक उत्पादन 5.2 फ़ीसदी तक गिर गया। यह बीते 14 वर्षों में सबसे खराब स्थिति थी।

कम शब्दों में कहें तो भारत की आर्थिक स्थिति पहले से ही ख़राब हालत में थी। विशेषज्ञों का मानना है कि अब कोरोना वायरस के प्रभाव की वजह से जहां एक ओर लोगों के स्वास्थ्य पर संकट छाया है तो दूसरी ओर पहले से कमज़ोर अर्थव्यवस्था को और बड़ा झटका मिलना निश्चित है। भारत में असंगठित क्षेत्र देश की करीब 94 फ़ीसदी आबादी को रोज़गार देता है और अर्थव्यवस्था में इसका योगदान 45 फ़ीसदी है। लॉकडाउन की वजह से असंगठित क्षेत्र पर बुरी मार पड़ी है क्योंकि रातों रात हज़ारों लोगों का रोज़गार छिन गया है। उत्पादन चेन पूरी तरह टूट गयी है।

दरअसल भारत ही नहीं, कोरोना वायरस की बाढ़ रोकने के लिए चीन से शुरू करके इटली, फ्रांस, आयरलैंड, ब्रिटेन, डेनमार्क, न्यूजीलैंड, पोलैंड और स्पेन समेत कई देशों में धड़ा धड़ लॉकडाउन किया गया। लेकिन अब इसे ख़त्म करने को लेकर दुनिया भर में दो विचार आमने-सामने खड़े हो गए हैं। पूरी दुनिया में यह बहस जोरों पर है कि पहले कोरोना वायरस से हो रही मौतें रोकी जाएं या रसातल में जा रही अर्थव्यवस्था संभालने को प्राथमिकता दी जाए। इसी कशमकश के चलते अमेरिका में लॉकडाउन टलता रहा था और आज हालत यह है कि अब तक उसके 3 लाख से ज्यादा नागरिक इस वायरस की चपेट में आ चुके हैं तथा कई हजार लोगों की मौत हो चुकी है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

जेपी सिंह
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