पढ़ाने से ज्यादा अब बेटी बचाने की फिक्र

सब कुछ सोची-समझी रणनीति के तहत हो रहा है। जैसा संघ प्रमुख मोहन भागवत चाहते हैं। उन्होंने बार-बार नहीं हजार बार कहा है कि महिलाओं को घर में रहना होगा और उनका काम घर-बार संभालना, बच्चा पालना और पुरुषों की सेवा करना है। अब जब देश में अपनी सत्ता है और संघ के तमाम एजेंडे लागू हो रहे हैं तो भला इस एजेंडे पर काम क्यों नहीं होगा? अगर मुसलमानों को उनकी औकात बतायी जा रही है और दोयम दर्जे के संघ के तय किए गए बाड़े में उन्हें भेजने की हर संभव कोशिश की जा रही है। और इस काम में क्या सत्ता, क्या संविधान; क्या न्यायालय, क्या विधान सब को लगा दिया गया है।

उसी तरह से दलितों को भी उनकी औकात बताने की तैयारी शुरू हो गयी है। हालांकि यह काम थोड़ा कठिन है क्योंकि मामला हिंदू खेमे का है और उससे भी बढ़कर वोट का है। लिहाजा इसको न्यायालय के बाईपास से सेट करने की कोशिश की जा रही है। अनायास नहीं अदालतों से आरक्षण को गैरजरूरी और गैर संवैधानिक करार दिया जा रहा है। और उनके हवालों में संविधान की जगह मनुस्मृति का संदर्भ दिया जाने लगा है। ऐसे में भला महिलाएं कैसे बच सकती थीं। उनको भी तो उनके लिए तय जगह दिखाया जानी है।

और यह प्रयोग गांवों में अपने घरों में रहने वाली उन महिलाओं पर तो होगा नहीं जो पहले से ही घर संभालने और बच्चा पालने को ही अपनी नियति मान चुकी हैं। लिहाजा इसको उन स्थानों से शुरू किया जाना है जहां कि महिलाएं घरों से बाहर निकल गयी हैं। वह विश्वविद्यालयों के परिसरों में जींस पहन कर घूम रही हैं। दफ्तरों में पुरुषों से कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं। और जरूरत पड़ने पर सड़कों पर उतर रही हैं। इसकी शुरुआत के लिए छात्राओं के गार्गी कॉलेज से भला बेहतर और कौन हो सकता था। लिहाजा उन्हें पुरुषों की ताकत की एक झलक दिखायी गयी है। और यह बताया गया है कि उन्हें अपने घरों में बैठ जाना चाहिए।

घर से बाहर निकलेंगी तो उनकी इज्जत-आबरू सुरक्षित नहीं है। और अगर इस दौरान किसी भी तरह की घटना होती है तो उसके लिए वह खुद ही जिम्मेदार ठहरा दी जाएंगी। इसका दोष कभी उनके कपड़े पहनने और कभी चलने के तरीकों के मत्थे मढ़ दिया जाएगा। लेकिन आखिर में जिम्मेदार वही होंगी। पुरुषों के दिमाग में महिलाओं के प्रति पल रहे इन सड़े-गले विचारों की कभी छानबीन नहीं होगी। उनकी यौन कुंठा के कारणों की कभी तलाश नहीं की जाएगी। उन्हें कभी भी उसके इलाज के लिए नहीं कहा जाएगा। महिलाओं को पैर की जूती समझने की उनकी सोच को कभी नहीं बदला जाएगा।

और इस काम में उसी तबके को लगाया जाएगा जिसका शिक्षा से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है। क्योंकि यही हिस्सा सबसे ज्यादा शिक्षितों और खासकर पढ़ी-लिखी और उच्च वर्ग की महिलाओं से घृणा करता है। उसको लगता है कि जिसे उसने अपने रोयें बराबर भी नहीं समझा वह उसके सामने मुंह लड़ा रही है। लोगों की नेता बनी हुई है। लिहाजा शहरों की यह पढ़ी लिखी महिलाएं पुरुषों के दंभ को चकनाचूर करती दिख रही होती हैं। ऐसे में संघ संरक्षित और उनके विचारों से पोषित पुरुषों की यह जमात सबसे पहले उन्हें चुप कराना चाहती है।

ऐसा नहीं है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत केवल मुंह से ऐसा बोलते हैं। संघ समेत उसके तमाम आनुषंगिक संगठनों में यही प्रयोग चल रहा है। यह बात किसी को नहीं भूलनी चाहिए कि संघ के प्रचारक आजीवन कुंआरे रहते हैं। क्योंकि संघ को लगता है कि अगर वह शादी कर लेगा तो पथभ्रष्ट हो जाएगा। यानि किसी पुरुष के जीवन में महिला के आने का मतलब ही है उसका नष्ट हो जाना। अगर संघ की यह बुनियादी सोच है तो समझा जा सकता है कि वह किस कदर महिला विरोधी है। संघ की शाखा में महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित है। देश का यह पहला संगठन है जो महिलाओं को सदस्य नहीं बनाता है। यानी पुरुषों का संघ है। शास्त्रों में महिलाओं को जो जगह दी गयी है मौजूदा समाज के संदर्भ में भी संघ का वही आदर्श है। इस तरह से महिलाएं दलितों में भी दलित हैं। यानी हिंदू समाज की यह पांचवी श्रेणी है। जिसका स्थान दलितों से भी नीचे आता है। नाम के लिए संघ ने राष्ट्रीय सेविका संघ जरूर बनाया है। लेकिन उसकी भूमिका किसी को आज तक पता नहीं चली। वह राष्ट्र से ज्यादा पुरुषों की सेवा पर बल देती है।

संघ का अंग होने के बावजूद उसके किसी नेता को आज तक कोई पहचान नहीं मिली। यहां तक कि संघ से तमाम नेता बीजेपी समेत दूसरे आनुषंगिक संगठनों में गए लेकिन सेविका संघ की एक भी महिला को किसी दूसरे आनुषंगिक संगठन को नेतृत्व देते हुए नहीं देखा गया। आखिर क्या कारण है? यहां तक कि बीजेपी में महिला नेतृत्व है। लेकिन ये सभी दूसरी-दूसरी जगहों से आयी हैं। उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो राष्ट्रीय सेविका संघ में रही हो। यह पूरा प्रकरण बताता है कि संघ ने अपने पूरे संगठन को ही जेहनी तौर पर इस बात के लिए तैयार कर रखा है कि महिलाएं समाज में नेता बनने के लिए नहीं बनी हैं। और उनकी भूमिका घरों की रसोइयों और पतियों की सेवा तक सीमित है।

किसी ने ठीक ही लिखा कि गार्गी कॉलेज में तो छात्र संघ भी नहीं है। वहां कोई वामपंथी छात्र संगठन भी सक्रिय नहीं है। न ही उन्हें राष्ट्रद्रोही करार दिया जा सकता है और न ही अर्बन नक्सल। वहां तो शुद्ध रूप से संघ-बीजेपी द्वारा परिभाषित बहन-बेटियां ही पढ़ रही हैं। फिर उनके ऊपर हमला क्यों हुआ? उनके निजी अंगों से क्यों छेड़छाड़ हुई? उनके सामने पुरुषों ने क्यों हस्तमैथुन किया? कई लड़कियों ने बताया कि पुरुषों ने अपने लिंग उनके जांघों पर रगड़े। तो कई के हिपों को पुरुष पीछे से दबोचते देखे गए। किसी ने सही ही कहा कि मुंह में राम और हाथ में लिंग जैसा दृश्य आम था। यह सब कुछ देश की राजधानी के सबसे पॉश इलाके के सबसे आधुनिक परिसर में हुआ। दिलचस्प बात यह थी कि वहां पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स के जवान तैनात थे। पहले न केवल मामले को दबाने की कोशिश की गयी बल्कि महाविद्यालय प्रशासन ने उसे सिरे से खारिज कर दिया। लेकिन जब लड़कियां खुलकर सामने आ गयीं और उन्होंने प्रदर्शन किया तब जाकर प्रशासन सक्रिय हुआ है।

लेकिन इस पूरे प्रकरण पर अभी तक सत्ता पक्ष से जुड़ी किसी महिला का बयान नहीं देखा गया है। सभी ने बिल्कुल चुप्पी साध रखी है। यह चीज बताती है कि संघ के विचारों के खिलाफ जाने पर उसे क्या भुगतना पड़ सकता है। शायद सबसे पहले उसे ही घर भेजने का फरमान सुना दिया जाए। लेकिन फासीवाद इसी तरह से आता है। और समाज में अपनी पैठ बनाता है। और फिर सबको दबोच लेता है। वो पहले आए थे जेएनयू के लिए। लेकिन आपने उन्हें वामपंथी करार देकर उनका साथ नहीं दिया। क्योंकि आप वामपंथी नहीं थे। फिर वे रोहित वेमुला का पीछा करते एचसीयू पहुंच गए लेकिन आप उस समय भी नहीं खड़े हुए क्योंकि आप दलित नहीं थे। फिर बारी आयी जामिया और अलीगढ़ की। इस बार तो निशाने पर मुस्लिम थे। लिहाजा एक बार फिर आपने खुद को उससे अलग रखा। और अब गार्गी पर हमला हुआ है। हमारी अपनी बहन-बेटियों को निशाना बनाया गया। उनकी इज्जत-आबरू तार-तार की गयी है। 

वह भी भरी सभा में। क्या आप अभी भी नहीं खड़े होंगे या फिर संघ के लठैतों का अपने घर के दरवाजे पर दस्तक का इंतजार कर रहे हैं। या फिर घरों में बैठी बहन-बेटियों की इज्जत लुटने तक आपकी चुप्पी रहेगी। इसलिए निकलिए घरों से बाहर और मुकाबला करिए अंधकार की इन ताकतों का। जो न केवल देश और समाज की पूरी साझी विरासत को तार-तार कर देना चाहती हैं बल्कि नफरत और घृणा की आग में पूरे समाज को ध्वस्त करने का मंसूबे पाले हुए हैं। यह आग आपके दरवाजे तक पहुंचे उससे पहले ही उसे रोक दीजिए। वरना बेटी को पढ़ाने की कम उसको बचाने की फिक्र ज्यादा करनी पड़ेगी।

(लेखक महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

महेंद्र मिश्र
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