वक्त के साथ गहरे होते जा रहे हैं घाव: सुधा भारद्वाज की बेटी मायशा

(भीमा कोरेगांव मामले में जेल में बंद एक्टिविस्ट और एडवोकेट सुधा भारद्वाज का आज जन्मदिन है। अमेरिका की नागरिकता ठुकराने और तमाम ऐशो-आराम की जिंदगी छोड़कर सुधा ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में मजदूरों और आदिवासियों के बीच काम करने का फैसला लिया। लेकिन सत्ता को शायद उनका यह काम भी नहीं पसंद आया। और जल-जंगल-जमीन के सवाल पर उनकी तरफ से ली गयी पहलकदमियों के चलते वह कारपोरेट के आंख की भी किरकिरी बन गयीं। और उसी का नतीजा है कि बगैर किसी ठोस सबूत या फिर गवाही के उनको आतंकियों के खिलाफ इस्तेमाल होने वाली धाराओं के तहत जेल में बंद कर दिया गया। सरकार किस कदर बदले पर उतारू हो गयी है उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि न तो सुधा को जमानत दी जा रही है और न ही उनके मामलों की नियमित सुनवाई हो रही है। ऐसे में बगैर जमानत और सुनवाई के तीन साल से ऊपर से वह जेल में बंद हैं। आज उनके जन्मदिन के मौके पर उनकी बेटी मायशा मेहरा समेत कुछ दूसरे लोगों से जनचौक की बात हुई। पेश है उनकी पूरी बातचीत- तामेश्वर सिन्हा।) 

मायशा मेहरा, सुधा भारद्वाज की बेटी

आज मां का 60 वां बर्थडे है, ये तीसरी बार है जब हम साथ नहीं हैं और इसी तरह से इससे पहले 2 बर्थडे, 2 दीवाली, 2 न्यू ईयर निकाल गए। 2017 में जब हम साथ थे तब का दिन याद आता है। उनका साथ होना कितना अच्छा था और अब उनके बिना कितना अधूरा है। अब किसी बात की खुशी नहीं महसूस होती। घाव गहरे होते जा रहे हैं वक़्त के साथ। आज मां को कितने सारे लोगों ने विश किया। यह देख कर मैं बेहद भावुक हो गयी हूं। ऐसे वक़्त में यादें और जहरीली हो जाती हैं जब वह व्यक्ति आप के साथ नहीं होता। पर ये है कि उनके ना होने पर भी उनके होने का अहसास बना रहता है जेहन में…..इस बात का काफी बुरा लगता है और एक विडंबना भी है जब आप मजदूरों किसानों के लिए इतना कुछ करते हैं और आपको उसकी सजा इस रूप में मिलती है।

मां के नहीं होने का एक अलग ही घाव है। और उसकी टीस भी बिल्कुल अलग है। हर दिन एक संघर्ष है उनके बिना……जब वो साथ थीं तब बात अलग थी। उस खुशी को शब्दों में बता पाना मुश्किल है। इससे पहले वाले बर्थडे में मैं उनसे मिलने पुणे गयी थी वो एहसास अलग ही था और एक बार वो मुश्किल था। क्योंकि मुंबई में इजाजत नहीं है। अभी उम्मीद बहुत कम है न्याय की मुझे। क्योंकि अभी तक न्याय नहीं हुआ है और पता नहीं कितने साल तक उनके बिना रहना पड़ेगा…..मेरी सरकार से ये गुजारिश है कि उनकी सेहत को ध्यान में रखते हुए और इस बात को भी ध्यान में रखते हुए की सबूत नहीं हैं आपके पास तो मेरी मां को जल्द से जल्द रिहा करें……

हैप्पी बर्थडे मां ढेर सारा प्यार

कलादास डहरिया, कार्यकर्ता, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा

सुधा भारद्वाज पढ़ाई पूरी करने के बाद 1982-83 में दिल्ली से राजहरा आयीं और नियोगी जी के आंदोलन से जुड़ गयीं। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा द्वारा संचालित स्कूल में उन्होंने शिक्षक के रूप में काम शुरू किया। साथ ही साथ महिला मुक्ति मोर्चा के कामों पर पहलकदमी लेना शुरू कर दिया। इस बीच, नियोगी जी के साथ वह वैचारिक चर्चा भी करती रहीं। माइंस श्रमिक संघ के संघर्षों में अपनी भागीदारी निभाती रहीं। 1990 में भिलाई आंदोलन नियोगी जी के नेतृत्व में शुरू हुआ। उस आंदोलन में महिलाओं को संगठित करने, मजदूर आंदोलन के लिए पर्चा ड्राफ्ट करने में अहम भूमिका निभाती रहीं। 1991 में नियोगी जी की हत्या के बाद भिलाई आंदोलन में जिम्मेदारी बढ़ गयी जिसे वह बखूबी निभाती रहीं। 

1992 में भिलाई आंदोलन के मजदूरों के ऊपर बर्बर गोली चालन हुआ जिसमें 16 मजदूर शहीद हो गए। उस समय सुधा भारद्वाज संगठन में जी जान से मजदूरों के बीच काम के साथ-साथ संगठन के लिए अधिवक्ता की जरूरत को देखते हुए उन्होंने दुर्ग से वकालत की पढ़ाई की और वकील बनीं और मजदूरों को न्याय दिलाने के लिए सड़क और कोर्ट दोनों संघर्ष में जुट गईं। देखते ही देखते उनका काम व्यापक होने लगा क्योंकि हर काम को वह ईमानदारी और पूरी जिम्मेदारी से करती थीं।

हाईकोर्ट बिलासपुर में किसानों के जमीन बचाने की पैरवी कीं। आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के उजाड़ने के खिलाफ, विस्थापन के खिलाफ आवाज बुलंद की। जिससे कारपोरेट घरानों, सत्तासीन सरकारों की आंखों में किरकिरी होने लगी। जिसके चलते षड्यंत्र कर उन्हें भीमा कोरेगांव मामले में फंसा दिया गया और फिर उनके ऊपर यूएपीए लगा कर जेल में डाल दिया गया। और आज तक उन्हें मुम्बई जेल में बंद रखा गया है। उन्हें जमानत भी नहीं दी जा रही है। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के मजदूर लगातार उनकी रिहाई के लिए संघर्षरत हैं।

प्रियंका शुक्ला, अधिवक्ता और सुधा की सहयोगी कार्यकर्ता

सुधा जी के साथ जितना समय बिताया, जितना काम किया उसमें मैं नहीं मानती कि वह चींटी को भी मारना पसंद करेंगी, जितना भी काम कर रही हूँ उसका कारण सुधा जी हैं। वो प्रेरणा और साथ ही हमारी संरक्षक हैं, उनके जाने से ऐसा हो गया जैसे कि बच्चों से माँ अलग कर दी गयी हो।

हम जैसे तमाम हैं, जिनकी वो माँ भी हैं।

तामेश्वर सिन्हा
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तामेश्वर सिन्हा