सड़क पर लगी संसद…सलाम साथियों…

देश में धड़ाधड़ हो रहे परिवर्तन से लगता तो यह है कि आने वाले दिनों में सब उलट पलट हो जाने वाला है। कहां संसद भवन छोटा पड़ रहा था और नये संसद-भवन का निर्माण शुरू हुआ और कहां दिल्ली की सड़कें किसानों की स्मार्ट सिटी से आबाद हो गई, कभी शाहीन बाग भी यूं ही आबाद रहा। आखिरकार पक्के घर-द्वार छोड़कर लोग क्यों दिल्ली पर घेरा डालते हैं। क्योंकि दिल्ली में बैठी केन्द्रीय सरकार ही अब तक सबके दारुण दुःखों का हरण करती आई है किंतु पिछले 2014 से आई मोदी सरकार, जी हां मोदी सरकार का रवैया नया नवेला है किसी की बात सुनना ही नहीं जैसे वे जीतकर क्या आ गए सब उनकी मर्जी के मुताबिक ही चलेगा ? भाजपा सरकार कहीं नज़र नहीं आती जिसे चुनकर विगत दो बार जनता ने भेजा। स्थिति इतनी विचित्र है कि सरकार के मंत्रियों और सांसदों की भी वजूद भी नहीं वे नाम मात्र के मंत्री और सांसद हैं। विपक्ष की फिर आवाज़ कौन सुनेगा ?

भाजपा के मंत्री, सांसद, पत्रकार सब जब मौन है वे अपने हक की आवाज नहीं उठा पाते तब किसान और अन्य आंदोलनकारी यदि इस तानाशाही रवैए के ख़िलाफ़त करते हुए अपनी मांगें मनवाने पर अडिग है और सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हैं तो इसमें ग़लत क्या है ? आखिरकार वे अपनी संसद से ही तो मांग कर सकते हैं। यह उनका संवैधानिक अधिकार है। वे आठ महीने से अधिक समय से शांति पूर्ण आंदोलन चला रहे पर कोई सुनवाई नहीं।

देर सबेर ही सही प्रतिपक्ष ने किसानों के साथ जो एकजुटता दिखाई है वह काबिले तारीफ़ है। यह समय की सबसे ज़रूरी मांग है। जब संसद में विपक्ष की आवाज नहीं सुनी जा रही हो उन्हें बोलने ही ना दिया जाए। संसद का इस्तेमाल थियेटर की तरह हो रहा हो, जहां रटे-रटाए मामले भाजपा सांसद उठाते रहें और उनको मंत्री अपने तरीके से संतुष्ट करते रहें। संसद में रखे जाने वाले विधेयकों को आनन-फानन में पारित किया जाए। चर्चा की नौटंकी हो तो ऐसी संसद का बहिष्कार कर किसान संसद में प्रस्ताव पारित करना अनुचित नहीं है। हाल में सरकार के खिलाफ रखा अविश्वास प्रस्ताव भी यहां पास किया गया। इसे विशेष महा जन पंचायत कहा जाए तो अनुचित ना होगा।

गांधी जी के अहिंसावादी लोकतांत्रिक देश में जब शांति पूर्ण आंदोलन का महत्व शून्य धरना, सत्याग्रह, अनशन, प्रदर्शन अपना मूल्य खो चुके हों तो सड़क पर संसद लगाकर अविश्वास प्रस्ताव पास करने के सिवाय और क्या रास्ता बचता है। देखने में तो यह मसला हल्का नज़र आ रहा है, लेकिन यह बहुत भारी पड़ने वाला है। देश की संसदीय परम्परा में ये एक नया अध्याय जुड़ गया है जब सड़क की संसद का फैसला सुनकर ना केवल किसान जो लगभग-लगभग आबादी का 60% ख़ुश हैं बल्कि समूचा विपक्ष भी इसे मान्यता दे रहा है। यह देश की एक बड़ी आबादी का फैसला है जो यह संदेश दे रहा कि हमारा सदन अब देश के अवाम से चुने प्रतिनिधियों की जो उपेक्षा कर रहा है वह बर्दाश्त से बाहर है। लोकतंत्र का यह मंदिर दो लोगों ने हरण कर रखा है, इसलिए इसमें हुए फैसले भी अमान्य होने चाहिए। देश की संप्रभुता को पेगासस स्पायवेयर के ज़रिए सरकार ने अपने देशवासियों की जिस तरह दूसरे देश से जासूसी करवाई जो स्वत: सिद्ध हो रहा है, क्योंकि इस मसले की जांच के लिए सरकार तैयार नहीं हो रही है।

देश की समस्यायों से ध्यान हटाने और विपक्ष को परेशान करने नित नए जो नामकरण का खेल हो रहा है वह भी संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है। हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को दुनियां सलाम करती है, उन्हें भारत रत्न की दरकार है ना कि नाम से खेल पुरस्कार की। इन शैतानी हरकतों से कुछ बनने बिगड़ने वाला आज कुछ नहीं है। हां, कल को मोदी स्टेडियम के नाम बदलने की बुनियाद रखी जान पड़ती है।

बहरहाल, अब सड़कें जाग रहीं हैं अंदरुनी चिंगारियां सुलगने लगी है ये सरकार के लिए ठीक नहीं है।

(सुसंस्कृति परिहार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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