प्रधानमंत्री महिलाओं का सम्मान करने को कहते हैं और भाजपाई उनकी सुनते ही नहीं!

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 2015 में 22 जनवरी को दिया गया ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा अब सात साल पुराना हो चुका है। उनकी सरकार ने इस नारे को महज प्रोपोगैंडा के लिए न इस्तेमाल किया होता और ईमानदारी से उसकी दिशा में आगे बढ़ी होती तो निस्संदेह, अब तक बेटियों को ‘हमारे आचरण में आई उन विकृतियों’ की कीमत चुकाने से निजात मिल गई होती, 76वें स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने जिन्हें महिलाओं (बताने की जरूरत नहीं कि वे बेटियों का ही प्रतिरूप होती हैं) के अपमान का कारण बताते हुए देशवासियों से उनसे मुक्त होने का संकल्प लेने को कहा था। लेकिन अफसोस कि एक ओर तो ऐसा कुछ हुआ नहीं, जिसके चलते महिलाएं अभी भी जानें कितनी सामाजिक प्रताड़नाओं का बोझ ढोती रहने को अभिशप्त हैं और दूसरी ओर द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति भवन क्या पहुंचीं, प्रधानमंत्री को लगने लगा है कि महिलाओं ने पंचायत भवन से राष्ट्रपति भवन तक परचम फहरा दिया है और अब उनकी शक्ति राजनीतिक व सामाजिक प्रतिनिधित्व के रूप में भी सामने आने लगी है।

गत 17 सितम्बर को प्रधानमंत्री ने नामीबिया से लाये गये चीतों को मध्य प्रदेश के श्योपुर स्थित राष्ट्रीय उद्यान में छोड़ा तो महिलाओं के स्वसहायता समूहों के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए यह तक कह डाला कि उनके ये स्वसहायता समूह अब राष्ट्रीय सहायता समूह बनने लगे हैं। जाने किस मनोजगत से निकली उनकी इन उक्तियों के बरक्स जमीनी हकीकत पर जायें तो कहने का मन होता है कि काश, जैसा वे कह रहे हैं, वैसा होता। लेकिन यहां तो हालत यह है कि महिलाओं का सम्मान करने की उनकी नसीहत को शेष देश मान ले तो मान ले, न उनकी पार्टी के नेता व कार्यकर्ता मानने को तैयार हैं, न ही सरकारें।

सच कहें तो बेचारे जब से प्रधानमंत्री बने हैं, इस उलटवासी का ही सामना करते आ रहे हैं कि खुद को उनकी समर्थक अनुयायी बताने वाली जमातें उनके जयकारे तो जोर-जोर से लगाती हैं, शायद इसलिए कि इससे उन्हें कई तरह के लाभ हासिल होते हैं, लेकिन उनकी कोई नसीहत कतई नहीं मानतीं। याद कीजिए, गोरक्षा के नाम पर भीड़ों द्वारा अलानाहक मार-काट से ‘क्षुब्ध’ होकर उन्होंने इन जमातों के साथ भाजपा की राज्य सरकारों को जो नसीहतें दी थीं, उन्होंने किस तरह एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया था। तब विपक्षी दलों ने इसे प्रधानमंत्री और इन जमातों की मिलीभगत के रूप में लिया और कहा था कि दरअसल, इन जमातों को मालूम है कि प्रधानमंत्री की कौन-सी नसीहत मानने के लिए हैं और कौन-सी अनसुनी के लिए।

फिलहाल, बेटियों व महिलाओं पर यौन हमलों समेत उनके विरुद्ध प्रायः सारे जघन्य अपराधों में भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं की संलिप्तता के एक के बाद एक सामने आ रहे मामले, जिनमें से ज्यादातर भाजपाशासित राज्यों के हैं, अब बेटियों को सबसे ज्यादा उन्हीं से बचाने की जरूरत जता रहे हैं क्योंकि जब वे इतने निरंकुश हैं कि प्रधानमंत्री तक का कहा नहीं मानते तो भला और किसका अंकुश मानेंगे? जिन सरकारों की उन पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी है, उन्होंने तो उन्हें ‘सैंया भये कोतवाल, अब डर काहे का’ की हद तक अभय कर रखा है। बहुत हो जाने और ज्यादा जगहंसाई की नौबत आ जाने पर भी वे उनकी गिरफ्तारी कराकर जांच के लिए एसआईटी वगैरह गठित करने, कड़़ी सजा दिलाने, घर बुलडोज करने और पदों से हटाने जैसे एलानों के फौरन बाद प्रकरण के जनता की याददाश्त से बाहर जाते ही सब-कुछ पुराने ढर्रे पर ला देती हैं-तब तक के लिए, जब तक वैसी ही कोई और नृशंसता सामने नहीं आती।

उत्तराखंड में एक भाजपा नेता के बेटे द्वारा संचालित रिजार्ट में रिसेप्शनिस्ट के तौर पर काम करने वाली अंकिता भंडारी की नृशंस हत्या को लेकर पूरे प्रदेश में गत दिनों जो गुस्सा फूटा हुआ, निस्संदेह इसी के चलते था क्योंकि लोग एतबार नहीं कर पा रहे थे और अभी भी नहीं सुनिश्चित कर पा रहे हैं कि अंकिता के गुनहगारों को, जिन्होंने देहव्यापार का विरोध करने पर उसे एक नहर में धकेल कर मार डाला, उनके किये की माकूल सजा मिल पायेगी। इसीलिए उन्होंने न सिर्फ पकड़े गये तीनों आरोपियों को, जिनमें भाजपा नेता का उक्त बेटा भी शामिल है, पुलिस के वाहन तक में घुसकर मारा-पीटा, बल्कि सम्बन्धित रिजॉर्ट के एक हिस्से को आग के हवाले कर एक भाजपा विधायक की कार भी तोड़ डाली। प्रशासन उन्हें यह बताकर भी आश्वस्त नहीं कर पाया कि आरोपी नेतापुत्र के रिजॉर्ट को बुलडोज कर दिया गया है और भाजपा ने प्रदेश के मंत्री रहे उसके पिता और एक आयोग के उपाध्यक्ष पद पर आसीन भाई को भाजपा से निकाल दिया गया है।

किसी भाजपा नेता या उसके बेटे द्वारा सत्ता की हनक में मनमानी का यह इस तरह का पहला या इकलौता मामला होता तो लोग इस तरह के सरकारी कर्मकांडों पर एतबार भी कर लेते, लेकिन वे दूसरे राज्यों में महिलाओं के खिलाफ जुल्म भूल भी जायें तो कैसे भूल सकते हैं कि पड़ोस के भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में नोएडा की पाश सोसायटी में श्रीकांत त्यागी नामक शख्स ने भाजपाई होने की हनक में सोसायटी की एक महिला को अपमानित करते हुए उसे न सिर्फ गंदी-गंदी गालियां दीं, यहां तक कि उससे हाथापाई पर भी उतर आया, तो उस महिला के लिए अपने सम्मान की रक्षा कितनी मुश्किल हो गई थी।

तब राज्य की योगी आदित्यनाथ सरकार ने उस शख्स की करतूत का वीडियो वायरल होने से पहले उस पर कोई कार्रवाई गवारा नहीं की थी और भाजपा ने अपने कई नेताओं के साथ उसकी तस्वीरें होने के बावजूद उसके खुद से जुड़ा होने की बात से पल्ला झाड़ लिया था। वह तो बाद में जनदबाव इतना बढ़ा कि उसे कार्रवाई के लिए मजबूर होना पड़ा। फिलहाल, इसी उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में एक भाजपा विधायक और उसके बेटे के विरुद्ध दर्ज एक महिला की प्रताड़ना व रेप के मामले में भी पुलिस यह पंक्तियां लिखे जाने तक मामला दर्ज भर करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री माने हुए है-बदायूं शहर के एक भाजपा नेता, उसकी पत्नी और बेटे के खिलाफ एक महिला को बंधक बनाने के मामले में भी।

शायद इसीलिए उत्तराखंड के लोग अंकिता हत्याकांड में अपनी सरकार पर अभी भी जनदबाव बनाये रखना चाहते हैं। उनका यह तेवर उन्हें उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले के भोजपुर क्षेत्र के उन राहगीरों से बेहतर नागरिक सिद्ध करता है, यह देखकर भी जिनका नागरिक कर्तव्यबोध नहीं जागा था कि कथित रूप से गैंगरेप की शिकार एक अवयस्क पीड़िता ऐसी हालत में भी, जब उसके अंगों से खून बह रहा था, दो किलोमीटर दूर अपने तक निर्वस्त्र जाने को मजबूर थी। उक्त राहगीरों में कुछ मूकदर्शक बनकर खड़े रहे थे, तो कुछ को उसकी मदद करने से उसकी हालत का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर साझा करना ज्यादा जरूरी लगा था। दूसरी ओर पुलिस ने भी इस मामले में तब तक कोई कार्रवाई नहीं की, जब तक बात वरिष्ठ अधिकरियों तक नहीं पहुंचाई गई। अभी भी उसने सिर्फ एक आरोपी को गिरफ्तार किया है और परीक्षण में गैंगरेप की पुष्टि से ही इनकार कर रही है।

लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि भाजपा के इस तरह के महानुभाव महिलाओं के विरुद्ध ऐसे अपराधों के लिए प्रधानमंत्री की ‘सीख’ तक को दरकिनार कर देने की प्रेरणा कहां से पाते हैं? अगर भाजपा सरकारों द्वारा उस संरक्षण से, जिसके तहत 2002 के गुजरात दंगों की पीड़िता बिलकिस बानो के गुनहगारों को ‘बख्शते’ भी नहीं लजाया जाता या कर्नाटक में मुस्लिम छात्राओं के हिजाब के पीछे पड़ जाने वालों का बाल बांका नहीं होने दिया जाता, तो प्रधानमंत्री व भाजपा भी इसकी जिम्मेदारी से कैसे बच सकते हैं?

(कृष्ण प्रताप सिंह जनचमोर्चा के संपादक हैं। और आजकल फैजाबाद में रहते हैं।)

कृष्ण प्रताप सिंह
Published by
कृष्ण प्रताप सिंह