ग्राउंड रिपोर्ट: बदहाली में जी रहीं गुमला की आदिम जनजातियां, बिचौलिए खा रहे सरकारी योजनाओं का पैसा

रांची। झारखंड के गुमला जिले में आदिम जनजातियां बदहाली में जीवन जीने को मजबूर हैं। इस जिले में आदिम जनजातियों की आबादी 16 हजार से अधिक है और कुल परिवारों की संख्या 3,522 है। जिसमें असुर, कोरवा, बिरिजिया, बिरहोर, परहिया जनजातियां शामिल हैं। गुमला जिले के 49 पंचायतों के 166 गांवों में आदिम जनजातियों का निवास है।

इन आदिम जनजातियों के विकास एवं उनके जीवन स्तर को उन्नत बनाने के लिए सरकार की कई योजनाओं के बावजूद इनकी जिंदगी भगवान भरोसे चल रही है। जो इस बात का सबूत है कि इन जनजातियों के लिए सरकारी योजनाएं महज दिखावा भर रह गई हैं। सरकार के भ्रष्ट सिस्टम के कारण सरकारी योजनाएं आदिम जनजाति बहुल गांवों तक नहीं पहुंच पा रही हैं। यही वजह है कि आज भी इस जनजाति के लोगों का जीवन जंगलों पर आश्रित है।

आदिम जनजाति के कई गांवों में पीने के लिए स्वच्छ पानी नहीं है। शौच करने के लिए शौचालय व आने जाने के लिए सड़क नहीं है। कई गांवों में अभी तक बिजली नहीं पहुंची है। अगर कहीं पोल व तार हैं, तो बिजली आपूर्ति नहीं है। रोजगार का साधन नहीं के बराबर है।

गुमला जिले के कई क्षेत्रों में बॉक्साइट के बड़े-बड़े खदान मौजूद हैं, जहां से कई दशकों से लगातार बॉक्साइट का उत्खनन किया जाता है। लेकिन इस इलाके में रहने वाले लोगों को आज तक मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिल पाई हैं, जबकि सरकार के साथ ही साथ बॉक्साइट उत्खनन करने वाली कंपनियां इस वादे के साथ इलाके में उत्खनन करती हैं कि यहां के लोगों को न केवल मूलभूत सुविधाएं मिलेंगी, बल्कि उनके जीवन को बेहतर करने के लिए विशेष सुविधाएं बहाल की जाएंगी।

लेकिन इलाके की जो तस्वीर सामने आती रही है, वह इस बात का सबूत है कि ना केवल कंपनियां इन इलाकों में रहने वाले लोगों का शोषण कर रही हैं, बल्कि सरकार भी यहां के निवासियों की सुविधा को लेकर पूरी तरह से लापरवाह है। यही कारण है कि इन लोगों को आज तक मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिल पाई हैं।

बॉक्साइट क्षेत्रों में रहने वाले आदिम जनजाति के लोग आज अपनी ही जमीन पर मजदूरी करने को विवश हैं। गांवों में काम नहीं रहने के कारण यहां के युवक-युवतियां रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में पलायन को मजबूर हैं। शिक्षा का स्तर इतना खराब है कि सातवीं व आठवीं कक्षा की पढ़ाई के बाद कई लड़के-लड़कियों को बीच में ही पढ़ाई छोड़ घर की आर्थिक स्थिति ठीक करने में लग जाना पड़ता है।

जिले के बिशुनपुर प्रखंड के बिशुनपुर, बनारी, गुरदरी, अमतीपानी, सेरका, निरासी, नरमा, हेलता, चीरोडीह, घाघरा तथा डुमरी; जारी प्रखंड के जरडा, डुमरी, सिकरी, जुरहू, करनी, गोविंदपुर, मेराल, मझगांव, अकासी, उदनी, जैरागी तथा खेतली; पालकोट प्रखंड के डहूपानी तथा कुल्लूकेरा, कामडारा प्रखंड के रेड़वा; गुमला प्रखंड के घटगांव तथा आंजन, रायडीह प्रखंड के ऊपरखटंगा, कांसीर, पीबो, जरजट्टा, सिलम, कोंडरा, केमटे, कोब्जा तथा नवागढ़, घाघरा प्रखंड के विमरला, घाघरा, रूकी, सेहल, आदर; दीरगांव तथा सरांगो, चैनपुर प्रखंड के बामदा, जनावल, छिछवानी, कातिंग, मालम और बरडीह पंचायत में सबसे अधिक आदिम जनजाति के लोग निवास करते हैं।

वैसे तो आदिम जनजातियों के रहने के लिए पक्का आवास बनाने की योजना है और इस योजना का लाभ भी इन्हें मिला है। परंतु इनके आवास का पैसा विभाग के अधिकारियों से मिल कर बिचौलिये खा गए हैं। अभी भी लाभुकों का घर आधा अधूरा है। कई बार आदिम जनजातियों ने आइटीडीए विभाग के अधिकारियों से मिल कर आवास बनवाने की मांग की। लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ।

कहना ना होगा कि आजादी के 75 वर्ष और अलग राज्य गठन के 23 साल बाद भी लोग खुले में शौच जाने को मजबूर हैं। जंगल व पहाड़ों में रहने वाले आदिम जनजाति गांवों में स्वच्छ भारत अभियान पूरी तरह फेल है। सरकार की योजना ‘हर घर में शौचालय बने’ पूरी तरह जुमला साबित हुआ है। अभी तक कई गांवों में शौचालय नहीं हैं। लोग खुले में शौच जाते हैं। जबकि बिना शौचालय बने ही शौचालय निर्माण के पैसे निकाल लिये गये हैं।

दूसरी तरफ कई गांवों में पानी का घोर संकट है। पहाड़ से गिरने वाला पानी ही लोगों को नसीब हो पाता है। कुछ जगह नदी का पझरा पानी जमा कर लोग उसको घरेलू उपयोग में लाते हैं। सोलर सिस्टम से पानी सप्लाई के लिए कुछ गांवों में टंकी की स्थापना की गयी है, परंतु कई जगह सोलर सिस्टम बेकार है। कुछ जगह जो पानी मिल रहा है वह अनियमित है।

कतारीकोना गांव के आदिम जनजाति असुर समुदाय के सोमरा असुर, फागुनी असुर, सैंटी असुर, भदवा असुर, संजय असुर बताते हैं कि “गांव में सुविधा के नाम पर सिर्फ बिजली सेवा है और राशन घर तक लाकर दिया जाता है। इसके अलावा गांव में सरकारी सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं है। हमारा जीवन भगवान भरोसे चल रहा है। गांव से कई लोग पलायन कर गये हैं।”

रायडीह प्रखंड का लालमाटी गांव घने जंगल व पहाड़ पर बसा है। यहां पर 200 वर्षों से कोरवा जनजाति के 15 परिवार रहते हैं, जो आज विलुप्ति के कगार पर हैं। जंगल से सूखी लकड़ी व दोना-पत्तल बाजारों में बेच कर अपनी व अपने परिवार की जीविका चलाते हैं। यहां रोजगार व सिंचाई की व्यवस्था नहीं है। खेती के लिए लोग पूरी तरह मानसून पर निर्भर हैं। ये लोग बरसात में धान, गोंदली, मड़ुवा, जटंगी की खेती करते हैं, जो कुछ महीने उनके खाने के लिए होता है। वे अपने पेट की आग बुझाने के लिए जंगली कंद-मूल भी खाते हैं।

केवना गांव जंगल व पहाड़ों के बीच बसा हुआ है। यह खूबसूरत गांव है, परंतु यहां रहने वाले आदिम जनजातियों को प्रशासन सरकारी सुविधा देने में नाकाम है। स्कूल जर्जर हैं, पीने के पानी की समस्या है। लोग खुले में शौच को जाते हैं। आने-जाने के लिए गांव में पथरीली व पहाड़ी सड़क है। बीमार होने या गर्भवती महिलाओं को गेड़ुवा या तो खटिया में लाद कर मुख्य सड़क तक लाया जाता है, तब मरीज अस्पताल पहुंचते हैं।

ग्रामीण विमल चंद्र कोरवा कहते हैं “गुमला जिले के किसी भी आदिम जनजाति गांव में ढंग से पानी, शौचालय, स्वास्थ्य व सड़क की व्यवस्था नहीं है। हमलोग पहाड़ व जंगलों के बीच रहते हैं। किसी प्रकार जीवन काट रहे हैं।”

ग्रामीण बिरसमुनी कोरवाइन कहती हैं, “केवना के लोग पथरीली व पहाड़ी सड़क से होकर सफर करते हैं। सरकारी योजना का लाभ हम कोरवा जनजाति के लोगों को नहीं मिल रहा है। यहां तक कि राशन लाने के लिए कोसों पैदल चलना पड़ता है।”

ग्रामीण फूलमनी कोरवाइन बताती हैं, “गांव के कई लोगों को आदिम जनजाति पेंशन योजना सहित कोई भी पेंशन का लाभ नहीं मिलता है। यहां तक कि पढ़े-लिखे युवक-युवती भी बेकार बैठे हैं। रोजगार के लिए मजबूरी में लोग पलायन करने को विवश हैं। जनजातियों की योजना का लाभ विभाग उठा रहा है।”

फूलमनी कोरवाइन।

ग्रामीण लखनू कोरवा कहते हैं कि “हमारे गांव में बिजली नहीं है। सोलर लाइट लगा था, परंतु वह भी बेकार है। जलमीनार है, परंतु, शुद्ध पानी नसीब नहीं है। चापानल भी नहीं है, जिसके कारण हमलोग डाड़ी व चुआं का पानी पीने को मजबूर हैं।”

गुमला में किस कदर शौचालय निर्माण में भ्रष्टाचार का आलम यह है कि जिले घाघरा प्रखंड के गांवों में आधे-अधूरे शौचालय बना कर छोड़ दिये गये हैं। गांव की महिलाएं व पुरुष खुले में शौच करने को मजबूर हैं। घाघरा प्रखंड की 18 पंचायतों में 13 हजार शौचालय बनाये गये थे, परंतु, कई गांवों से शौचालय गायब है। जिन गांवों में कुछ बहुत शौचालय बने हैं, वे भी अधूरे पड़े हैं।

स्वच्छ भारत मिशन योजना के तहत 2018-19 तक लगभग 13 हजार शौचालय घाघरा प्रखंड की 18 पंचायतों में बनाये गये। कई गांवों में तो शौचालय बना नहीं और पैसों की निकासी कर ली गयी। फूलो देवी व बंदो देवी ने बताया कि “जब शौचालय बन रहा था, तो हमलोगों ने कहा था कि शौचालय अच्छे तरीके से नहीं बन रहा है। सरकार द्वारा जो पैसा शौचालय के लिए आवंटित हुआ है। वह पैसा हम लाभुकों को दे दें, तो हमलोग अपने से काम कर और कुछ पैसा लगाकर उसे बेहतर तरीके से बनायेंगे, पर किसी अधिकारी ने हमलोगों की बात नहीं सुनी।”

(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट।)

विशद कुमार
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