नया कृषि क़ानून लागू होता तो सरकार अभी दालों पर स्टॉक की सीमा नहीं लगा पाती

महँगाई से जनता हाहाकार कर रही है। पेट्रोल, डीज़ल, रसोई गैस, सरसों का तेल, दालें और सब्ज़ियों के दाम में लगी आग कहाँ जाकर और कब थमेगी, इसके बारे में शायद प्रधानमंत्री के सिवाय, कोई भी कुछ नहीं जानता। हालाँकि, इतना तो है कि सरकार ने खाद्य तेलों पर आयात शुल्क हटाकर इसकी कीमतों को नीचे लाने की कोशिश की है। इसी तरह, 2 जुलाई को केन्द्रीय उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने मूँग को छोड़कर सभी दालों के लिए ‘स्टॉक होल्डिंग सीमा’ लागू करने का आदेश जारी कर दिया।

इस प्रसंग में सबसे रोचक बात ये है कि ‘स्टॉक होल्डिंग सीमा’ तय करने के लिए सरकार को आवश्यक वस्तु क़ानून का सहारा लेना पड़ा, क्योंकि नये क़ानून यानी आवश्यक वस्तु (संशोधन) क़ानून, 2020 के तहत यही कदम उठाने के लिए सरकार को दालों के दाम और बढ़ने का इन्तज़ार करना पड़ता। दरअसल, नये क़ानून के मुताबिक, दालों के दाम को सरकार ‘असाधारण मूल्य वृद्धि’ के दायरे में तभी रख सकती है, जब इसका दाम एक साल पहले के खुदरा बाज़ार भाव से 50 प्रतिशत या ज़्यादा ऊपर चला जाए। जबकि सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, एक साल पहले के मुकाबले दालों के दाम में अभी तक जो बढ़ोत्तरी हुई है वो 22-23 प्रतिशत की है।

नया क़ानून अभी सरकार को ही परेशान करता

पुराने क़ानून के तहत दाम में ‘असाधारण मूल्य वृद्धि’ का दायरा तय करने का अधिकार सरकार के विवेकाधीन था। अभी पुराना क़ानून ही प्रभावी है, क्योंकि नये क़ानूनों के ज़बरदस्त विरोध में हो रहे किसान आन्दोलन के मद्देनज़र 12 जनवरी 2021 को सुप्रीम कोर्ट के 27 सितम्बर 2020 से लागू नये क़ानूनों को अस्थायी रूप से निलम्बित कर दिया था। ज़ाहिर है, यदि नया क़ानून लागू होता तो सरकार अभी दालों की जमाख़ोरी के ख़िलाफ़ क़दम नहीं उठा पाती। इस मिसाल से ये आसानी से समझा जा सकता है कि नये कृषि क़ानूनों से किसका भला होने वाला है?

क्या है नयी स्टॉक होल्डिंग सीमा?

2 जुलाई के आदेश के मुताबिक, दालों के थोक व्यापारियों के लिए स्टॉक रखने की सीमा 200 टन है तो आयातकों और खुदरा दुकानदारों के लिए 5 टन। दाल मिल मालिकों के लिए स्टॉक की सीमा उनके बीते तीन महीनों के औसत उत्पादन या उनकी सालाना स्थापित क्षमता के 25 प्रतिशत में से जो भी ज़्यादा हो, उतनी हो सकती है। नये आवश्यक वस्तु क़ानून, 2020 में ‘असाधारण मूल्य वृद्धि’ के अलावा युद्ध, अकाल और गम्भीर प्राकृतिक आपदाओं की दशा में ही सरकार के पास स्टॉक होल्डिंग सीमा को तय करने का अधिकार है। इसका मतलब ये हुआ कि जब तक दालों का खुदरा बाज़ार भाव से साल भर पहले की तुलना में 50 प्रतिशत से ज़्यादा ऊपर नहीं चला जाता, तब तक व्यापारियों पर नकेल नहीं लग सकती। इसीलिए किसान नेता नये आवश्यक वस्तु क़ानून को जन-विरोधी करार देते हैं और इसे वापस लेने की माँग कर रहे हैं।

क्या कहते हैं सरकारी आँकड़े?

केन्द्रीय उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय (DCA) के आँकड़ों के अनुसार, इस साल 2 जुलाई को चना दाल का अखिल भारतीय औसत खुदरा मूल्य 75 रुपये प्रति किलोग्राम था। जबकि पिछले साल इस समय ये 65 रुपये था। इसी तरह अरहर, उड़द, मूँग और मसूर दाल की खुदरा कीमतें क्रमशः 110 रुपये, 110 रुपये, 103.5 रुपये और 85 रुपये प्रति किलोग्राम थीं। जबकि पिछले साल इनका दाम क्रमशः 90 रुपये, 100 रुपये, 105 रुपये और 77.5 रुपये प्रति किलोग्राम था। इस तरह, पिछले साल के मुक़ाबले किसी भी दाल के दाम में इज़ाफ़ा 22-23 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं हुआ।

सरकार के काम आया पुराना क़ानून

इतना ही नहीं, खाद्य तेलों के मामले में भी अभी सरकार नये आवश्यक वस्तु क़ानून, 2020 के मुताबिक स्टॉक की सीमा में हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी, क्योंकि इन्होंने भी अभी ‘असाधारण मूल्य वृद्धि’ वाले 50 फ़ीसदी उछाल की सीमा को नहीं तोड़ा है। पॉम ऑयल का दाम अभी पिछले साल वाले 85 रुपये प्रति किलोग्राम के मुक़ाबले 135 रुपये है तो सोयाबीन का तेल भी अभी 100 रुपये से बढ़कर 157.5 रुपये और सूरजमुखी का तेल भी 110 रुपये से प्रति किलोग्राम से उछलकर 175 रुपये तक ही पहुँचा है। 

एक और रोचक बात ये है कि पुराने क़ानून के जिन प्रावधानों के तहत सरकार ने अभी दालों की स्टॉक होल्डिंग सीमा को निर्धारित किया है उसे 17 मई 2017 को सरकार हटा चुकी थी। ज़ाहिर है, पुराने फ़ैसले के 4 साल बाद और ‘ऐतिहासिक’ कृषि क़ानूनों के लागू होने के महज 9 महीने बाद ही सरकार को पुराने क़ानूनों की जिस ढंग से ज़रूरत पड़ी, उससे साफ़ है कि सरकार कोरोना काल से चरमराई अर्थव्यवस्था के दौर में खाद्य मुद्रास्फीति का नया नया संकट नहीं चाहती है।

दलहन और तिलहन की बुआई भी चिन्ताजनक

अभी तक मॉनसून की प्रगति भी चिन्ताजनक रही है। खरीफ की फसलों का बुवाई सीज़न सिर पर है। सामान्य के मुक़ाबले अब तक 13 फ़ीसदी बारिश कम हुई है। मॉनसून भी अभी सामान्य के मुकाबले 74 फ़ीसदी भारतीय भूमि तक ही पहुँच सका है। इसकी उत्तरी सीमा 19 जून के बाद आगे नहीं बढ़ी है। अगले हफ़्ते भर इसके आगे बढ़ने के आसार भी भारत मौसम विज्ञान विभाग को नहीं दिख रहे। 25 जून को जारी हुई कृषि मंत्रालय की आख़िरी बुवाई रिपोर्ट में अरहर, उड़द और मूँग की बुआई वाला रक़बा पिछले साल की तुलना में 16.7 प्रतिशत कम बताया गया है। जबकि तिलहन में मूँगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी और तिल की बुआई भी 35.5 प्रतिशत पीछे थी। ये आँकड़े की सरकार की चिन्ता को ज़रूर बढ़ा रहे होंगे।

सुप्रीम कोर्ट से भी तेज़ी नहीं चाहती सरकार

वैसे, नये आवश्यक वस्तु क़ानून के मुकाबले किसानों की कहीं ज़्यादा नाराज़गी उन दो क़ानूनों को लेकर रही है जिसके तहत कॉरपोरेट्स के लिए अनुबन्ध या ठेके पर खेती करवाना आसान हो जाएगा और कृषि उपज की बिक्री सरकारी मंडियों से बाहर भी हो सकेगी। मंडियों के बाहर खरीद-बिक्री होने से मंडी समितियों का राजस्व ख़त्म हो जाएगा और धीरे-धीरे सरकारी मंडिया बीमार पड़कर दम तोड़ने लगेंगी। बहरहाल, ‘क्रान्तिकारी’ बदलाव लाने का दावा करने वाले विवादित कृषि क़ानून फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट में अटके हैं।

कृषि क़ानूनों की समीक्षा करने वाली सुप्रीम कोर्ट की विशेष समिति की सीलबन्द रिपोर्ट 19 मार्च से आगे की कार्यवाही की बाट जोह रही है। सरकार ने भी अभी तक 12 जनवरी से लागू स्टे को ख़त्म करवाने के लिए कोई पहल नहीं की है। इस स्टे के बाद ही अर्थशास्त्रियों – अशोक गुलाटी और पी के जोशी तथा किसान नेता अनिल घनवत ने अपनी सिफ़ारिशें तैयार की हैं। उधर, किसान भी अपने आन्दोलन भी नया रंग भरने की रणनीति बना रहे हैं। लिहाज़ा, कहना मुश्किल है कि सरकार गतिरोध तोड़ने की दिशा में किस तरह से आगे बढ़ना चाहेगी?

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

मुकेश कुमार सिंह
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