ड्रग्स केस में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले से बॉलीवुड को राहत

उच्चतम न्यायालय ने अपने एक अत्यंत महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि एनडीपीएस (मादक पदार्थ निरोधक कानून) के तहत उनके अधिकारी के सामने दर्ज इकबालिया बयान साक्ष्य के तौर पर ट्रायल में इस्तेमाल नहीं होंगे। यानी एनडीपीएस एक्ट के तहत पुलिस के सामने दिए गए इकबालिया बयान साक्ष्य के तौर पर मान्य नहीं होंगे। उच्चतम न्यायालय के तीन जजों की पीठ ने पहले के फैसले को पलट दिया और कहा कि आरोपी का एनडीपीएस एक्ट की धारा-67 के तहत दिए गए बयान को इकबालिया बयान नहीं माना जाएगा और उसे ट्रायल के दौरान इकबालिया बयान के तहत नहीं देखा जा सकता।

उच्चतम न्यायालय के जस्टिस रोहिंटन नरीमन और जस्टिस नवीन सिन्हा ने बहुमत से दिए फैसले में कहा कि इस तरह का बयान एविडेंस एक्ट की धारा-25 के विपरीत है और पुलिस ऑफिसर के सामने दिया ये बयान मान्य साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल नहीं हो सकता है। जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने अल्पमत में इनके विपरीत मत व्यक्त किया। उच्चतम न्यायालय ने कानून के एक लंबे समय से लंबित सवाल पर फैसला सुनाया है कि क्या नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस (एनडीपीएस) अधिनियम की धारा 67 के तहत दर्ज किए गए बयान आपराधिक परीक्षणों के दौरान स्वीकारोक्ति बयान के रूप में स्वीकार्य हो सकते हैं?

यह निर्णय ऐसे वक्त आया है, जब नशीले पदार्थों के सेवन और तस्करी को लेकर नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) मुंबई, बेंगलुरु और अन्य शहरों में लगातार ड्रग पेडलर पर शिकंजा कस रही है। मुंबई में इसको लेकर कई फिल्मी सितारों से भी पूछताछ की जा चुकी है। एनसीबी ने फिल्म एक्टर सुशांत सिंह राजपूत के मामले में ड्रग्स कनेक्शन की जांच शुरू की थी। सुशांत सिंह राजपूत की महिला मित्र रिया चक्रवर्ती को एनसीबी ने गिरफ्तार भी किया था और अब रिया जमानत पर जेल से बाहर हैं। यह फैसला कई मामलों में सबूतों को प्रभावित करेगा, जिसमें कथित ड्रग्स मामले की जांच एनसीबी द्वारा की जा रही है, जिसमें अभिनेता रिया चक्रवर्ती और 24 अन्य को आरोपी बनाया गया है।

तीस वर्षों से अधिक समय से अदालत के कई फैसलों में कानून के इस बिंदु पर विपरीत राय आती रही है कि क्या एनडीपीएस अधिनियम के तहत अधिकारियों द्वारा निवेश की गई शक्तियों को ‘पुलिस अधिकारी’ माना जा सकता है और इसलिए, क्या आरोपी व्यक्तियों द्वारा दिए गए बयानों को स्वीकारोक्ति माना जा सकता है। एक तर्क यह था कि चूंकि एनडीपीएस अधिनियम की धारा 53 के तहत अधिकारियों को ‘पुलिस अधिकारी’ के रूप में परिभाषित नहीं किया जाता है, लेकिन उन्हें एक थाने के प्रभारी अधिकारी की शक्तियां दी जाती हैं, इसलिए उन्हें दिए गए बयान साक्ष्य में स्वीकार्य होने चाहिए। एनसीबी में अधिकारियों को केंद्रीय उत्पाद शुल्क, राजस्व खुफिया निदेशालय, सीमा शुल्क सहित सरकार के विभिन्न विभागों से प्रतिनियुक्त किए  जाने का प्रावधान है और इनसे प्रति नियुक्ति पर कर्मी आते भी हैं।

उच्चतम न्यायालय के पहले के फैसले अलग थे। 2013 में उच्चतम न्यायालय  के दो जजों की पीठ ने मामले को रेफर किया था। तब सवाल उठा था कि क्या एनडीपीएस एक्ट के तहत जो ऑफिसर हैं, वह पुलिस ऑफिसर माने जाएंगे। दूसरा सवाल था कि क्या एनडीपीएस की धारा-67 के तहत लिए गए बयान को इकबालिया बयान माना जाए या नहीं। उच्चतम न्यायालय ने कन्हैया लाल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के केस में पहले कहा था कि एनडीपीएस के तहत ऑफिसर, पुलिस ऑफिसर नहीं हैं और ऐसे में एविडेंस एक्ट लागू नहीं होता। सवाल ये उठा था कि एनडीपीएस एक्ट के तहत अधिकारी जो छानबीन करते हैं और आरोपी का बयान दर्ज करते हैं ये ऑफिसर पुलिस ऑफिसर माने जाएं या नहीं।

बहुमत के फैसले में कहा गया है कि इकबालिया बयान अधिकृत अधिकारी के सामने एनडीपीएस के तहत होता है। इस आधार पर एनडीपीएस के तहत आरोपी को दोषी करार दिया जाता है। इस मामले में एविडेंस एक्ट की धारा-25 के अलावा और कोई सेफगार्ड नहीं है। ये सीधे तौर पर अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) अनुच्छेद-20 (3) यानी खुद के खिलाफ गवाही के लिए बाध्य न करने का अधिकार यानी चुप रहने का अधिकार और अनुच्छेद-21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन है।

बहुमत के फैसले में इसके पहले के दिए फैसले को पलटते हुए कहा गया है कि एनडीपीएस की धारा-53 के तहत अधिकारी का जो अधिकार है वह पुलिस अधिकारी ही है और वह एविडेंस एक्ट की धारा-25 के दायरे में है। यानी उक्त अधिकारी यानी पुलिस अधिकारी के सामने दिए गए इकबालिया बयान एविडेंस एक्ट की धारा-25 के तहत प्रतिबंधित है और उस आधार पर आरोपी को दोषी नहीं करार दिया जा सकता है। बहुमत के फैसले में ये भी कहा गया है कि अगर अधिकारी एनडीपीएस की धारा-67 के तहत किसी आरोपी को बयान के लिए बुलाता है और वह इकबालिया बयान देता है तो वह बयान एविडेंस एक्ट की धारा-25 के तहत मान्य नहीं होगा और ट्रायल के दौरान उसका इस्तेमाल नहीं हो सकता। एविडेंस एक्ट की धारा-25 कहती है कि कोई भी बयान जो पुलिस अधिकारी के सामने दिया जाता है वह इकबालिया बयान आरोपी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं हो सकता।

इस संबंध में उच्चतम न्यायालय ने राज कुमार करवाल बनाम भारत संघ (1990) 2 एससीसी 409 में व्यक्त किए गए विपरीत विचार को खारिज करते हुए तूफान सिंह बनाम तमिलनाडु राज्य के संदर्भ में जवाब दिया। राज कुमार करवाल निर्णय राज कुमार करवाल में, उच्चतम न्यायालय ने इस दलील को खारिज कर दिया कि अधिनियम की धारा 53 के तहत पुलिस अधिकारी के अलावा, नियुक्त एक अधिकारी, कोड के अध्याय XII के तहत शक्तियों को प्रयोग करने का हकदार है, जिसमें संहिता की धारा 173 के तहत रिपोर्ट या आरोप-पत्र को प्रस्तुत करने की शक्ति भी शामिल है। अदालत ने यह भी कहा था कि, बदकू जोती सावंत बनाम स्टेट ऑफ़ मैसूर AIR 1991 SC 45 में संविधान पीठ ने यह देखा था कि जब तक किसी अधिकारी को संहिता के तहत जांच की शक्तियों के साथ किसी विशेष कानून के तहत निवेश करने की शक्ति नहीं दी जाती है, जिसमें धारा 173 के तहत रिपोर्ट प्रस्तुत करना शामिल है, उसे धारा 25, साक्ष्य अधिनियम के तहत ‘पुलिस अधिकारी’ नहीं कहा जा सकता।

इस फैसले से एनसीबी की मुश्किलें  बहुत बढ़ गई हैं, क्योंकि रिया चक्रवर्ती और 24 अन्य के खिलाफ मामले में, धारा के तहत दर्ज लगभग 20 बयान कानून में स्वीकार्य नहीं होंगे। रिया चक्रवर्ती सहित अधिकांश अभियुक्तों ने अदालत के समक्ष स्पष्ट कहा है कि एनसीबी ने दबाव डालकर उन्हें बयान देने पर मजबूर किया था। एनसीबी ने अपने रिमांड आवेदनों में कहा था कि वे मामले के कुछ आरोपियों के नेतृत्व में उनके सह-अभियुक्तों के बयानों के लिए खोज और छापेमारी के लिए गए थे। बचाव पक्ष के वकीलों ने कहा था कि यह मामला केवल बयानों पर निर्भर था। तजा फैसले को देखते हुए इसका अब अदालत में टिकना असंभव हो गया है, जब तक कि ठोस सबूत न मिलें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

जेपी सिंह
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