किसान आंदोलनों के युगांतकारी नेता सरदार अजीत सिंह और सहजानंद सरस्वती

हिंदुस्तान में क्रांतिकारी किसान आंदोलनों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। 1857 और उससे पूर्व भी किसानों ने तत्कालीन सरकारों से निर्णायक लड़ाईयां लड़ी हैं। पंजाब के अलावा ब्रिटिश काल में संयुक्त प्रांत और अवध में किसानों के संघर्षों का इतिहास रहा है, जिसने आजादी से पूर्व अंग्रेज सरकार और आजादी के बाद की सरकारों को अपनी मांग मनवाने के लिए विवश किया था। अवध में बाबा रामचंद्र के आंदोलन ने प्रतापगढ़, सुलतानपुर, जौनपुर, लखनऊ, बाराबंकी, इलाहाबाद आदि इलाकों में अंग्रेज सरकारों को विवश कर दिया था। ऐसे ही दो किसान नेताओं को आज स्मरण करने का दिन है। शहीदे आजम सरदार भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह और उत्तर प्रांत में किसान आंदोलन चलाने वाले स्वामी सहजानंद सरस्वती।

अजीत सिंह
उस समय पंजाब के किसान नये औपनिवेशिक कानूनों- नया औपनिवेशिकरण कानून तथा दोआब बारी कानून के विरुद्ध आक्रोशित थे। इन कानूनों की पृष्टभूमि यह है कि अंग्रेज सरकार ने चेनाब नदी से (अब पाकिस्तान में स्थित) लायलपुर तक नहर बनवाई थी, ताकि वहां खाली पड़े इलाकों में वह किसानों को बसा सकें। इसके लिए किसानों को मुफ्त में जमीन और सुविघाएं देने की घोषणा भी की गईं थीं, ताकि पूर्व सैनिक और किसान अपने गांव छोड़कर वहां बस सकें। जालंधर, अमृतसर और होशियारपुर से किसान अपनी जमीन और संपत्ति छोड़कर बस भी गए थे और मेहनत करके उस जमीन को उपजाऊ बना दिया था। ऐसा हो जाने के बाद सरकार ने नये कानून बनाए और घोषणा कर दी कि इस समृद्ध भूमि की मालिक सरकार है और किसान बटाईदार हैं।

इस तरह उन्हें मालिकाना हक से वंचित कर दिया। अब किसान न तो उसमें घर और झोंपड़ी बना सकते थे, न पेड़ काट सकते थे, न ही जमीन बेच सकते थे। जमीन का वारिस भी केवल बड़ा लड़का बन सकता था और किसी भी उल्लंघन में जमीन सरकार की हो जाती थी। 20 लाख एकड़ जमीन की सिंचाई के लिए बनी नहरों के नाम पर जो कर लगाए गए उनकी वसूली में खर्च की भरपाई के बाद भी हर साल सात लाख रुपये आबपाशी कर वसूला जाता था।

अजीत सिंह और उनके साथियों ने इन सवालों पर एक आंदोलन का निर्माण किया। कांग्रेस इस आंदोलन का नेतृत्व करने में विफल रही, क्योंकि उसके नेताओं ने कहा कि जो कानून अब पास हो चुके हैं। इसके बाद किसानों ने सरदार अजीत सिंह और उनकी भारत माता सोसायटी, जो इन सवालों पर एक बहादुराना संघर्ष संचालित कर रही थी, का नेतृत्व स्वीकार किया।

कुछ ही समय में लाहौर और उसके निकटवर्ती इलाके रैलियों, सम्मेलनों और प्रदर्शनों से भर गए और हजारों लोग इनमें भाग लेने लगे। इन सभाओं में इन दमनकारी कानूनों पर चर्चा होती और साथ में अंग्रेजी उपनिवेशवाद द्वारा देश को तबाह करने पर तथा विदेशी राज के विरुद्ध एक संपूर्ण विद्रोह खड़ा करने पर भी बात होगी। सरकार ने अजीत सिंह के भाषणों को सुनने पर रोक लगा दी।

3 मार्च 1907 को लायलपुर में एक विशाल जनसभा और रैली आयोजित की गई। इसमें झांग सयाल अखबार के संपादक, बांके दयाल ने एक गीत प्रस्तुत किया, जिसके बोल थे ‘पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल ओए…’। बाद में इस संघर्ष का नाम ही इसी पर पड़ गया।

सहजानंद सरस्वती
इनका असली नाम नवरंग राय था, का जन्म 22 फरवरी, 1889 को उप्र के गाजीपुर जिले में हुआ था। उनका देहांत 28 जून 1950 को हुआ। वे एक क्रांतिकारी किसान नेता थे और इतिहासकार, दार्शनिक, लेखक भी। उनके काम का मुख्य क्षेत्र बिहार में केंद्रित था। उन्होंने भीटा में एक आश्रम स्थापित किया था, जहां से उन्होंने अपने काम को संचालित किया और जीवन के बाद का समय बिताया।

उन्होंने 1929 में बिहार प्रांतीय किसान सभा का निमार्ण किया, ताकि जमींदारों के विरुद्ध वे किसानों की बेदखली के विरुद्ध तथा जुताई के अधिकार के लिए उनको गोलबंद कर सकें। इसी के साथ देश भर में किसान आंदोलन को उन्होंने प्रेरित किया, जिसके फलस्वरूप 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हुआ। इसके वे पहले अध्यक्ष बने। किसान सभा के धोषणापत्र ने जमींदारी व्यवस्था तथा ग्रामीण कर्जे समाप्त करने की मांग उठाई। ये जमींदार अंग्रेजी शासन द्वारा कर वसूली के लिए नियुक्त थे। यह आंदोलन जो किसानों की जमीन पर मालिकाना और खेती करने के अधिकार की रक्षा के लिए था, बिहार और संयुक्त प्रांत की कांग्रेस सरकारों के साथ टकराव में आ गई।

सहजानंद सरस्वती ने 1937-38 में बिहार में ‘बकाश्त’ आंदोलन का निर्माण किया। बकाश्त का अर्थ है खुद काश्तकारी करना। यह आंदोलन जमींदारों द्वारा किसानों को जंमीन से बेदखल करने के विरूद्ध था। इसी आंदोलन के दबाव में बिहार टेनेंसी कानून तथा बकाश्त भूमि कर कानून पारित किए गए। भारत छोड़ो आंदोलन मे सहजानंद को भी जेल में डाला गया।

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव का लेख।)

सुशील मानव
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