शैबाल गुप्ताः बिहार के पिछड़ेपन से युद्ध

पटना का शोध संस्थान आद्री इतना बड़ा हो चुका है कि उसके संस्थापक शैबाल गुप्ता के निधन से बिहार के बौद्धिक जगत में खालीपन महसूस किया जाना स्वाभाविक है। मुझे इस संस्थान के जन्म की उस घटना की याद आ गई है जो बहुत कम लोगों को पता होगा।

यह 1991 का साल रहा होगा। मैं उन दिनों ‘जनसत्ता’ के मुंबई (उस समय की बंबई) संस्करण में काम करता था और पटना आया हुआ था। उस दिन अपने पारिवारिक मित्र प्रणव कुमार चौधरी के गर्दनीबाग वाले मकान पर बैठा था। प्रणव पटना के टाइम्स ऑफ इंडिया में था। शैबाल आद्री के उद्घाटन समारोह के कार्यक्रम पर चर्चा के लिए आए हुए थे। बात चल ही रही थी कि अपने स्वभाव के अनुसार प्रणव ने शैबाल को ललकारा कि इस कार्यक्रम को पुराने तरीके से मत आयोजित करिए। जाहिर है कि वह शैबाल के साथ अपने स्नेहपूर्ण तथा पारिवारिक जुड़ाव की वजह से अधिकारपूर्वक ये बातें कर सकता था। मेरा शैबाल से कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं था। मैं उन्हें जानता था। उनके पिता पी गुप्ता की वजह से एक आकर्षण भी था।

डॉ. पी गुप्ता भारत के लेनिनग्राड कहे जाने वाले बेगूसराय की किंवदंती बन चुके व्यक्तित्व थे। गरीब लोगों का मुफ्त इलाज और एक रुपए की फीस लेने के अलावा उनकी उदारता तथा सेवा भाव के कई किस्से बेगूसराय तथा उसके आसपास के इलाकों में लोककथा के हिस्से हैं। जाहिर है कि नजदीक के अपने गांव सनहा तथा बेगूसराय शहर के अपने रिश्तेदारों के जरिए मैं उनके ये किस्से सुनता रहा हूं।

बचपन में ही, शरदचंद्र के उपन्यास के किसी रोमांटिक डॉक्टर की छवि उनके बारे में बन गई थी। उनकी यह छवि सीपीआई के एक समर्पित कार्यकर्ता होने की वजह से भी थी। बेगूसराय की बहुआयामी वामपंथी संस्कृति के विकास में डॉ पी गुप्ता का बड़ा योगदान है। वह और प्रणव के इतिहासकार पिता राधाकृष्ण चौधरी ने इस संस्कृति को गढ़ने में बड़ी भूमिका निभाई है। धीरे-धीरे अतीत होती और ढहती जा रही इस वामपंथी संस्कृति की नींव उन्होंने रखी थी। इसकी खासियत यह थी कि यह मार्क्सवाद के अंतरराष्ट्रीयतावाद को मगध तथा मिथिला के बीच के इस क्षेत्र की आंचलिकता से जोड़ता था।

यह ब्रतोल्त ब्रेख्त के नाटक के साथ गंगा किनारे गाए जाने वाले लोकगीतों का संगम था। यहां रूसी  क्रांति तथा स्थानीय किसान आंदोलनों की चर्चा एक साथ होती है। रेखांकित करने वाली बात यह है कि पी गुप्ता और राधाकृष्ण चौधरी जैसे लोग जाति के उस समीकरण से बाहर थे जो बिहार के बाकी हिस्सों की तरह बेगूसराय में भी काफी असरदार हैं। पी गुप्ता ने स्थानीय इतिहास की खोज तथा इसके संकलन में भी काफी योगदान किया है।

इस संस्मरण में डॉ. पी गुप्ता के बारे में बताने का उद्देश्य उस पृष्ठभूमि को समझने के लिए है, जिससे शैबाल आए थे। यह उस विकास को समझने के लिए भी जरूरी है जो प्रदेश के बौद्धिक जगत में शैबाल और उनकी आद्री की वजह से आया है।

बहरहाल, हम 1991 के आद्री के स्थापना समारोह के आयोजन की ओर लौटते हैं। प्रणब का कहना था कि इसमें किसी ऐसे चमकदार व्यक्तित्व को बुलाया जाए कि यह नीरस बौद्धिक आयोजन के बदले एक आकर्षक कार्यक्रम में बदल जाए। वह अचानक मेरी ओर मुखातिब हुआ और उसने पूछा कि आप बॉलीवुड से किसी को बुला सकते हैं?

मैंने कहा कि किसी फिल्मी स्टार को बुलाया जा सकता है, लेकिन इससे कार्यक्रम हल्का हो जाएगा। किसी ऐसे स्टार को बुलाया जाए जो इसे गंभीरता प्रदान कर सके। मुझे उस समय लोकप्रिय हो रहे टेलीविजन सीरियल ‘चाणक्य’ के अभिनेता-निर्देशक डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी का ध्यान आया। मैं उनके कुछ करीबी दोस्तों की वजह से उन्हें जानता था। वह मराठी के जाने-माने पत्रकार और मेरे अभिन्न मित्र अभय मोकाशी के गहरे मित्र थे।

मैंने सकुचाते हुए उनका नाम सुझाया क्योंकि शैबाल के वामपंथी पिता का ध्यान कर मुझे यही लग रहा था कि वह एक पुनरुत्थानवादी सीरियल के अभिनेता-निर्देशक को बुलाना पसंद नहीं करेंगे। मुझे प्रणव की ओर से भी खारिज किए जाने की उम्मीद थी। उसे बुलाए जाने को लेकर मेरे खुद के मन में भी रिजर्वेशन था, लेकिन मुझे अचरज हुआ कि दोनों ने उत्साह से इसे स्वीकार कर लिया। दोनों का कहना था कि पाटलिपुत्र के गौरवशाली इतिहास को पेश करने में ऐसी सहूलियत अन्य किसी तरीके से नहीं मिल सकती है। तय हुआ कि उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि डॉ. चंद्रप्रकाश होंगे।

मैंने जब उन्हें यह निमंत्रण दिया तो डॉ. चंद्रप्रकाश ने इसे खुशी से स्वीकार कर लिया, लेकिन मैं खुद उस समारोह में नहीं आ सका, क्योंकि आद्री ने हवाई जहाज के दो टिकट देना ही स्वीकार किया था। मेरे मित्र अभय मोकाशी पाटलिपुत्र देखने का अवसर छोड़ना नहीं चाहते थे। चंद्रप्रकाश और मोकाशी का आतिथ्य प्रणव तथा शैबाल ने इतने अच्छे से किया कि उन्होंने बंबई लौटने पर इसकी काफी तारीफ की। पटना के अखबारों ने इसकी खूब पब्लिसिटी भी की।

शैबाल से मेरा पहला परिचय प्रो. विनय कंठ के कोचिंग संस्थान में हुआ, जहां वे सिविल सेवा के परीक्षार्थियों को पढ़ाते थे। मैं सिविल सेवा के प्रीलिम्स में पास हो गया था। छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के मेरे साथियों का कहना था कि भागलपुर में मेन परीक्षा की तैयारी ठीक से नहीं हो पाएगी और मुझे पटना में प्रो. कंठ के संस्थान में जाना चाहिए। उनके कहने से बहुत कम फीस में मेरा दाखिला हो गया था और राजेंद्र नगर के एक वाहिनी से जुड़े यादव जी के फ्लैट में रहने की जगह भी मिल गई।

यह जेपी आंदोलन तथा नक्सलवादी उभार के फेल होने के बाद का दौर था। भ्रष्टाचार, तथा निराशा से भरी राजनीति से लोगों को कोई उम्मीद नहीं रह गई थी। बिहार पिछड़ेपन के एक ऐसे चक्र में फंस चुका था कि इससे निकलने का कोई रास्ता नहीं था। राज्य सरकार या शिक्षण संस्थानों में नौकरी की बहुत कम गुंजाइश रह गई थी। ऐसे में युवकों में सिविल सेवा में जाने का एक जुनून सवार हो गया था। प्रो. कंठ को लगता था कि सिविल सेवा में राज्य के ज्यादा से ज्यादा लड़कों को भेजने से प्रदेश का खोया गौरव वापस आ सकता है।

उन्हें यह बिहारी अस्मिता को आगे लाने का एक कार्यक्रम लगता था। उन्होंने अपने संस्थान से पटना के उन प्रखर नौजवान शिक्षकों को जोड़ा था जो अपनी विधा में माहिर थे और लोकप्रिय भी। इसी टीम में प्रो. विजय ठाकुर, प्रो. इम्तियाज आदि के साथ शैबाल भी थे। वह बढ़िया पढ़ाते थे और छात्रों में लोकप्रिय थे। लड़के शोध में उनकी उपलब्ध्यिों की चर्चा करते रहते थे।

मेरा कोई अंतरंग परिचय नहीं था, लेकिन अपने स्वभाव के अनुरूप, मैं अपने आसपास हो रहे सामाजिक परिवर्तनों के एक किरदार के रूप में उन पर नजर रखता था। आद्री बनने की प्रकिया भी ऐसी ही थी। पिछड़े बिहार को आंदोलनों तथा राजनीतिक हस्तक्षेप के बदले गैर-सरकारी संगठनों तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के हस्तक्षेप से बदलने का विकल्प लोकप्रिय हो रहा था।

राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां इसमें मदद दे रही थीं। सरकार भी इसे प्राथमिकता दे रही थी। इसे बौद्धिक जगत की भाषा में विकास-अध्ययन कहा जाता था। यह एक ओर वर्ल्ड बैंक तथा संयुक्त राष्ट्र की ओर से  आर्थिक मदद पा रहा था और दूसरी ओर सरकार की सहायता। पिछड़ेपन से निकालने तथा बिहार के विकास का यह नया रास्ता था।

यह आंदोलनों तथा रजनीतिक उभार के रास्ते से अलग था। यह नीचे से परिवर्तन के बदले ऊपर से बदलाव का रास्ता था। आद्री के मामले में तो यह पीढ़ियों के बदलाव का संकेत भी था। पी गुप्ता किसान-मजदूरों के उभार तथा सीपीआई के जरिए इस बदलाव को लाना चाहते थे और शैबाल ने नए विकल्प को चुना था। पीढ़ियों के इस बदलाव में एक चीज समान थी- नया बिहार बनाने की कोशिश।

शैबाल से मेरी अगली मुलाकात 2005 के बिहार विधानसभा चुनावों के समय हैदराबाद में हुई। गुंजन सिन्हा और मैं ईटीवी में थे। शैबाल को विश्लेषक के रूप में बुलाया गया। यह मुलाकात मुझे खास तौर पर याद रही। हुआ यूं कि शैबाल का हवाई टिकट कोलकाता होकर था और उनकी इच्छा थी कि इसे दिल्ली के लिए कर दिया जाए। मैंने मैनेजर से बात की तो उसने साफ मना कर दिया। मुझे यह असम्मानजनक लगा। मैंने मैनेजर से कहा कि मैं इस बारे में ईटीवी के चेयरमैन रामोजी राव से बात करूंगा। हम अपने अतिथियों के लिए इतना भी नहीं कर सकते! इतने बड़े संस्थान के लिए यह कितनी छोटी सी बात है!

मैनेजर के जाते ही शैबाल ने कहा कि अनिल जी, आप इस पर गुस्सा न हों। मैं इसके अनुसार इंतजाम कर लूंगा। उन्होंने कहा कि एक अनुभव की बात बताता हूं- मैनेजर वही करते हैं जो मालिक चाहता है। वे बीच में रह कर मालिक की छवि बचाते हैं। मालिक को उदार और मैनेजर को कठोर समझना गलत है। रामोजी भी आपको मैनेजर के साथ मिल कर तय करने के लिए कहेंगे। उन्होंने बताया कि हैदराबाद के संघी ग्रुप में वह वाइस प्रेसिडेंट के पद पर काम कर चुके हैं। उन्होंने इसे जल्द ही छोड़ दिया।

शैबाल से मेरी अंतिम मुलाकात दिल्ली में हुई। शायद 2009 का साल था। मैं दैनिक भास्कर के लिए काम करता था। विज्ञान भवन में साक्षरता पर केंद्र सरकार का बड़ा आयोजन था। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. अर्मत्य सेन मुख्य अतिथि थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अध्यक्षता की थी। सम्मेलन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लेते शैबाल दिखाई दिए। मैं लपक कर उनसे मिलने गया। बीमार तथा थके-थके से लगे। उस समय वह सेन के दिन के कार्यक्रमों से अपने कार्यक्रमों का मेल बिठाने की चिंता में थे। शायद आद्री को एक संस्थान के रूप में आगे बढ़ाने में सेन की मदद पाने की कोई कोशिश होगी। उनके निधन के बाद प्रणव ने बताया कि वह कितना बीमार थे।

मालूम नहीं कि बीमार बिहार अपनी बीमारी से कब मुक्त होगा, लेकिन जब इस का इतिहास लिखा जाएगा तो पी गुप्ता तथा शैबाल को अलग-अलग कालखंडों तथा अलग-अलग संदर्भों में जरूर याद किया जाएगा। उन्हें मेरा नमन।

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।) 

अनिल सिन्हा
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