केके शैलजा ने रेमन मेग्सेसे ठुकराकर स्थापित किया है एक मानक

उनको डर लगता है

आशंका होती है

कि हम भी जब हुए भूत

घुग्घू या सियार बने

तो अभी तक यही व्यक्ति

ज़िंदा क्यों?

                  मुक्तिबोध

ऐसे समय में जब व्यक्तिगत ख्याति प्राप्त करने की चाह अधिकांश मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों-नेताओं-पत्रकारों-साहित्याकारों में हिलोरे मार रही है, सब को पछाड़कर पिरामिड़ के शीर्ष पर विराजमान होने की इच्छा सबसे बड़ी चालक शक्ति बनती जा रही है, आत्ममुग्धता पागलपन की हद तक बढ़ती जा रही है। आदर्शों-मूल्यों और सिद्धांतों को पुराने जमाने की घिसी-पिटी वस्तु घोषित कर दिया गया है, व्यवहारिकता के नाम अवसरवाद को सबसे बड़ा मूल्य बना दिया गया है, व्यक्तिगत सफलता को ही सार्थकता का पर्याय बना दिया गया है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर सामूहिक निर्णय, सामूहिक पहलकदमी और सामूहिक मातहती को गाली सा बना दिया गया है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो, जब अधिकांश मध्यवर्गीय अगुवा

  सत्य के बहाने

  स्वयं को चाहते हैं, प्रतिस्थापित करना।

  अहं को, तथ्य के बहाने।

और जब विवेक पर व्यक्तिगत स्वार्थ पूरी तरह हावी हो गया है-

       विवेक को बघार डाला स्वार्थों के तेल में

       आदर्श खा गए!

ऐसे में इसी मध्यवर्ग से कोई व्यक्ति घोषणा करता है कि उसको यह सब शर्तें मंजूर नहीं हैं-

नामंजूर,

उसको जिंदगी की शर्म सी शर्त

नामंजूर

हठ इंकार का सिर तान.. खुद मुख्तार

और वह मध्यवर्ग के इन आत्मुग्धों की पंक्ति से निकल भागता है-

इतने में हमीं में से

अजीब कराह से कोई निकल भागा

भरे दरबार-आम में मैं भी

संभल जागा

तब मध्यवर्ग के शेष हिस्से में अजीब सी वेचैनी महसूस होती है-

उनको डर लगता है

आशंका होती है

कि हम भी जब हुए भूत

घुग्घू या सियार बने

तो अभी तक यही व्यक्ति

ज़िंदा क्यों?

के. के. शैलजा और उनकी पार्टी ( सीपीएम) ने भारतीय समाज में श्रेष्ठता और महानता (नायक होने) का पर्याय सा बना दिए गए मेग्सेसे पुरस्कार को अस्वीकार कर आदर्शों-मूल्यों-सिद्धांतों को पुनर्स्थापित करने की एक कोशिश की है और जिंदा होने का एक सबूत पेश किया है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। के. के. शैलजा ने इस पुरस्कार को लौटाते हुए कहा कि केरल में स्वास्थ्य संबंधी उनकी उपलब्धियां (विशेषकर कोविड़- 19 काल की) सामूहिक प्रयास का नतीजा हैं, जिसके लिए वह केवल खुद को क्रेडिट नहीं दे सकतीं। जहां चारों तरफ खुद को किसी भी उपलब्धि के लिए क्रेडिट देने की होड़ सी लगी है, वहीं अपनी उपलब्धियों को कोई सामूहिक उपलब्धि मानता हो, यह बहुत ही अच्छी बात है और यही सच भी है। केरल का स्वास्थ्य मॉडल और मानव विकास सूचकांक में दुनिया के शीर्ष देशों की केरल द्वारा बराबरी एक व्यवस्थागत और संरचनागत परिवर्तन का परिणाम है, न कि इस या उस व्यक्ति की व्यक्तिगत उपलब्धि।

इसके अलावा यह जगजाहिर तथ्य है कि जिस फिलीपींस के पूर्व राष्ट्रपति के नाम रेमन मेग्सेसे पुरस्कार स्थापित किया गया, वह अपने देश की जनता का दुश्मन और साम्राज्यवादी देशों का पिट्टठू था। उसने फिलीपींस की जनता पर इंतहा जुल्म ढाये, विशेष तौर उन वामपंथियों को निशान बनाया जो फिलीपींस की जनता के पक्ष में खड़े होकर लड़ रहे थे। उनसे वामपंथियों-कम्युनिस्टों की हत्याएं भी कराईं। वह पश्चिमी दुनिया (विशेषकर अमेरिका) और उन देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ की कठपुतली था, जिसका इस्तेमाल फिलीपींस में किसी भी जनक्रांति को रोकने के लिए किया गया। वह मेहनतकश जनता के राज ( समाजवाद) का घोर विरोधी था। यहां यह याद कर लेना जरूरी है कि यह वह दौर ( 1953-57) था, जब पूंजीवादी दुनिया और समाजवाद के बीच जीवन-मरण का संघर्ष चल रहा था और दुनिया के कई सारे देश औपनिवेशिक चंगुल से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर रहे थे,जिसमें समाजवादी देश उनकी मदद कर रहे थे। पश्चिमी दुनिया और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इसी दलाल के नाम पर रॉकफेलर बंधुओं ( अमेरिका के उस समय के सबसे बड़े पूंजीपति) के पैसे से रेमन मेग्सेसे पुरस्कार की स्थापना की गई थी।

अपने को वामपंथी कहने वाली कोई पार्टी और उसका कार्यकर्ता-नेता यदि अपनी उपलब्धियों को सामूहिक प्रयासों का परिणाम कहता है और वामपंथियों के हत्यारे और समाजवाद एवं कम्युनिस्टों के घोषित दुश्मन के नाम पर स्थापित पुरस्कार लेने से इंकार कर देता है, तो यह एक सराहनीय निर्णय है और यही स्वाभाविक भी है, जिसका तेहदिल से सम्मान करना चाहिए।

कुछ कोने से यह आवाज आर रही है कि के. के. शैलजा ने पार्टी के निर्णय के चलते रेमन मैग्सेसे पुरस्कार अस्वीकर किया है, पहली बात यह है कि इसका कोई प्रमाण नहीं है, यह बात वह लोग फैला रहे हैं, जो कल्पना भी नहीं कर पाते कि के. के. शैलजा जैसे व्यक्ति अभी मौजूद हैं, जिन पर उनका व्यक्तिवाद इतना हावी नहीं है कि सामूहिक प्रयासों से हासिल उपलब्धियों को व्यक्तिगत खाते में डाल दें और जिस पार्टी की वे सदस्य हैं, उसके विचारों-आदर्शों-मूल्यों को लात मार कर व्यक्तिगत ख्याति हासिल करें। दूसरी बात यह है कि अगर ऐसा है, तो भी यह सकारात्मक बात है, अगर सीपीएम अभी भी बची हुई है कि व्यक्तिगत पद या ख्याति पार्टी के सामूहिक निर्णय से ऊपर नहीं हैं, तो अच्छी बात है। सीपीएम की इसी सोच के चलते जोति बसु ने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा दिया था।

कोई यह पूछ सकता है कि जिन लोगों ने मेग्सेसे पुरस्कार स्वीकार किया वे सभी लोग विचारहीन-सिद्धांतहीन और मूल्यहीन लोग हैं और उन्होंने ऐसा ख्याति पाने के लिए किया है तो मेरा कहना है कि ऐसा नहीं है, रेमन मेग्ससे पुरस्कार पाने वाले कई सारे लोग निहायत ईमानदार और जन के प्रति प्रतिबद्ध लोग हैं, पुरस्कार पाने से पहले भी वे सकारात्मक कार्य कर रहे थे और उसके बाद भी कर रहे हैं। कुछ पुरस्कार पाने वाले इसके उलट भी हैं और जनता के खिलाफ भी खड़े हैं।

सच यह है कि यदि कोई अपने आदर्शों, मूल्यों, विचारों और सिद्धांतों के चलते बड़े से बड़े पुरस्कार को अस्वीकार कर देता, जैसा कि के. के. शैलजा ने किया, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए, ज्यां पाल सात्र ने नोबेल पुरस्कार अस्वीकार कर दिया। रही बात यह कि किसी पुरस्कार को किसी ने क्यों स्वीकार किया, यह उस व्यक्ति के आदर्शों, मूल्यों, विचारों और सिद्धांतों का मामला है, उसके बारे में वह जाने। यहां भी किसी को नायक या खलनायक ठहराने की जरूरत नहीं है। हां अपने आदर्शों-मूल्यों के साथ यदि कोई जीता है, तो वह प्रेरणा का स्रोत है। के. के. शैलजा और उनकी पार्टी द्वारा मेग्सेसे पुरस्कार अस्वीकार करना एक प्रेरणादायी और स्वागत योग्य कदम है।

(सिद्धार्थ वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

डॉ. सिद्धार्थ
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