बिकाऊ डोसे पर नफ़रत की हांडी


मथुरा में ‘श्रीनाथ डोसा कॉर्नर’ का नाम बदल गया। वह ‘अमेरिकन डोसा कॉर्नर’ हो गया। ‘युद्ध करने’ और ‘मथुरा को शुद्ध करने’ की अपील पर अमल हो गया। लेकिन, क्या ऐसा करने से मथुरा शुद्ध हो गया? या फिर अशुद्ध हुई है श्रीकृष्ण की नगरी?

इरफान डोसा बेचता रहेगा लेकिन नाम ‘श्रीनाथ’ न होकर ‘अमेरिकन’ होगा। वह पहले की तरह दुकान के मालिक राहुल ठाकुर को 400 रुपये रोजाना भी देता रहेगा, भले ही नयी परिस्थिति में उसकी आमदनी कम क्यों न हो गयी हो। ईश्वर के लिए आस्था पर क्या इसका कोई असर पड़ेगा? यह मजबूत होगी या कमज़ोर?

भारतीय संस्कृति वाला नाश्ता डोसा ‘अमेरिकन कॉर्नर’ से बिकेगा तो इससे डोसा का मान बढ़ेगा या घटेगा? खान-पान से जुड़ी हमारी संस्कृति कमजोर होगी या मजबूत?

डोसा स्टॉल का नाम अगर ईश्वर को संबोधित और उनकी याद दिलाने वाला था, तो वह आस्थावान हिन्दुओं के लिए अप्रिय था या कि इससे इतर कोई नाम अप्रिय हो सकता था?

डोसा के बिकने का तरीका हम बदल सकते हैं लेकिन क्या इसके स्वाद को बदला जा सकता है? नाश्ते में बेहद लोकप्रिय इसकी उपयोगिता को बदला जा सकता है? अलग-अलग रूपों में विकसित होता ‘डोसा’ नामक व्यंजन तमाम सीमाओं को पार कर प्रदेश से देश और देश से विदेश तक फैल चुका है। मगर, डोसा खुद अमेरिका में भी ‘अमेरिकन कॉर्नर’ से नहीं बिकता। साउथ इंडियन, इंडियन, आंध्रा, तमिल आदि नामों के साथ जुड़कर डोसा जरूर देश और दुनिया में बिकता रहा है।

इडली को बिरयानी बताकर हुई झूठ की खेती

‘श्रीनाथ कॉर्नर’ पर डोसा ना बिके, इसके लिए हर तरह के यत्न किए गये। मीडिया के जरिए यह बताया गया कि ‘श्रीनाथ कॉर्नर’ से नॉनवेज बिरयानी बेची जा रही थी। श्री कृष्ण मंदिर परिसर में खुलेआम यह ‘अपराध’ हो रहा था। यह ‘अपराध’ कौन कर रहा था? जाहिर है विक्रेता। विक्रेता कौन था?- एक मुसलमान। मुस्लिम-हिन्दू का मसला बनकर तथ्यों की छानबीन के बगैर ही बहस इस बात पर होने लगी कि इरफान के साथ मारपीट सही है या गलत।

इरफान के साथ मारपीट की वजह सही है या गलत- इसे जानने की कोशिश तक नहीं की गयी। यह मान लिया गया कि इरफान है तो नॉनवेज बिरयानी ही बेच रहा होगा। मंदिर परिसर में नॉन वेज बेचने को अपराध बताकर इरफान से मारपीट और दुकान में तोड़फोड़ के लिए भी समर्थन जुटा लिया गया। यह पूछने की जरूरत ही नहीं समझी गयी कि इसे तय कौन करेगा कि कोई अपराध हुआ है। और, जो तय हो जाए तो अपराध के लिए सज़ा कौन देगा?

नफ़रत ने डोसा को ‘श्रीनाथ कॉर्नर’ से ‘अमेरिकन कॉर्नर’ भेजा

काल्पनिक अपराध पर ‘बुद्धिजीवी’ इतने वास्तविक रूप में लड़ते दिखे मानो यह देश की सबसे बड़ी समस्या हो। आम तौर पर मंदिर परिसर के आसपास आस्था का सम्मान प्रचलित परंपरा में शामिल होता है। कभी-कभी इसका उल्लंघन होने पर प्रशासनिक स्तर पर इसे सुलझा लिया जाता है। मगर, मथुरा के ‘श्रीनाथ कॉर्नर’ वाले मामले में मारपीट, तोड़फोड़ और नफ़रत वाली प्रतिक्रिया ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा बना दिया।

देश में इन दिनों ऐसा ही हो रहा है क्योंकि नफ़रत ‘बिकता’ है। यह सोशल मीडिया से लेकर मुख्य धारा की मीडिया और सियासत में भी सबसे ज्यादा ‘बिकाऊ’ है। मथुरा का डोसा पूरे देश में अचानक ‘नॉनवेज’ हो गया। डोसा का स्वाद मानो बदल गया। नफ़रत की दुर्गंध मानो इसमें समा गयी।

श्रीनाथ कॉर्नर, राहुल कॉर्नर या मोदी कॉर्नर!

अगर विक्रेता इरफान न होकर स्वयं ‘श्रीनाथ कॉर्नर’ का मालिक राहुल ठाकुर होता तो? अरे! ये तो गजब का आइडिया है- ‘राहुल डोसा’! लेकिन, मंदिर के भीतर ‘राहुल डोसा’ का क्रेज नहीं हो सकता चाहे राहुल गांधी जितनी बार जनेऊ दिखा दें या फिर खुद का गोत्र बता दें।

हां, ‘मोदी डोसा’ धूम मचा सकता था। मगर, इसके लिए जरूरी शर्त होती कि विक्रेता इरफान ना हो अन्यथा इरफान पर मोदी का नाम बेचने का भी आरोप लग सकता है। ऐसी सूरत में शायद उसकी और अधिक पिटाई हो। फिर ‘श्रीनाथ कॉर्नर’ से ‘अमेरिकन कॉर्नर’ में बदलने का विकल्प भी इस रूप में नहीं मिलता कि वह ‘मोदी कॉर्नर’ से ‘राहुल कॉर्नर’ बना ले।

मीट दुकान पर भी होती है पूजा, यूसुफ़ ख़ान कहलाते हैं दिलीप कुमार

मांस विक्रेता को मां काली, मां दुर्गा या अपने किसी और देवी-देवता की पूजा करते हुए बोहनी (पहले ग्राहक को बिक्री) करते देखा है। तब न पूजा अपवित्र कहलाती है न ही कटते मांस वाले कमरे में देवी-देवता की तस्वीर को गलत माना जाता है। तर्क यह होता है कि मांस काटना, बेचना तो कर्त्तव्य (व्यक्ति का धर्म) है और पूजन धार्मिक संस्कार। जाहिर है कि सुविधानुसार तर्क गढ़ लिए जाते हैं।

कभी यूसुफ़ ख़ान ने अपना नाम दिलीप कुमार रख लिया था। आज की परिस्थिति में कोई ऐसा करे तो संभव है कि उसे कई तरह के सवालों के जवाब देने पड़े। मसलन, नाम हिन्दू का रखा है तो क्या आचरण भी हिन्दू जैसा रखोगे?, कभी बीफ तो नहीं खाओगे? वगैरह-वगैरह। शक-शुबहा और निगरानी से बचने के लिए साफ तौर पर कहा जा सकता है कि ऐसा करने नहीं दिया जाएगा। एक मुसलमान को हिन्दू नाम रखकर सिनेमा में आने और इस तरह लोगों की भावनाओं से ‘खिलवाड़’ करने की इजाजत नहीं दी जाएगी। आज की सोच इसी दिशा में बढ़ रही है।

सच यह है कि जो साहस दिलीप कुमार ने दिखलाया, वह साहस आमिर खान, शाहरूख खान, सलमान खान जैसे कलाकार नहीं दिखा पाए। किसी हिन्दू कलाकारों ने अपना नाम इस रूप में बदला हो कि वह मुसलमान लगे, ऐसा उदाहरण तो खोजने से नहीं मिलता।

इडली के चहेतों के साथ अन्याय

आने वाले वक्त में ऐसी भी बातें सुनने को मिल सकती हैं कि जो कोई भी ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, लक्ष्मी सरस्वती जैसे देवी-देवताओं की भूमिका निभाए, वह हिन्दू ही हो। तब भी प्रश्न वही रहेगा कि मुसलमान या हिन्दू में से कौन हिन्दू देवी-देवताओं के रोल निभाए जिससे धर्म की प्रतिष्ठा बढ़े? हिन्दू तो हमेशा अपने देवी-देवताओं का उपासक है। अगर मुसलमान नाटकीय रूप में भी यह भूमिका निभाता है तो इससे किसी का नुकसान नहीं होता। बल्कि, प्रकारांतर से एक मुसलमान हिन्दू देवी-देवता को प्रतिष्ठित ही करता है। इस बात की परवाह तक नहीं करता कि ऐसा करना उसके अपने मजहब के हिसाब से उचित है या नहीं।

डोसा अगर ‘श्रीनाथ कॉर्नर’ पर बिकता है तो यह हिन्दुओं के लिए कभी अपमान की बात नहीं हो सकती। भले ही बेचने वाला मुसलमान ही क्यों ना हो। अगर डोसा भारत में किसी ‘अमेरिकन कॉर्नर’ पर बिकता है तो निश्चित रूप से यह भारतीय व्यंजन के साथ और उसके चहेतों के साथ अन्याय है। क्या यह बात कभी समझ पाएंगे वे लोग, जो नफ़रत को मजबूत कर देश की समरसता को चोट पहुंचा रहे हैं?

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं। विभिन्न टीवी चैनलों पर डिबेट का हिस्सा रहते हैं। @AskThePremKumar ट्विटर हैंडल के जरिए उनसे संपर्क किया जा सकता है।)

प्रेम कुमार
Published by
प्रेम कुमार